हिंदी भाषा क्या है?
हिंदी भाषा का वर्णन भारतीय संविधान के भाग 17 एवं 8वीं अनुसूची में अनुच्छेद 343 से 351 में है। 8वीं अनुसूची में शामिल भारतीय भाषाओं की संख्या 22 है – कश्मीरी, सिन्धी, पंजाबी, हिन्दी, बंगाली, आसामी, उडिया, गुजराती, मराठी, कन्नड़, तेलगु, तमिल, मलयालम, उर्दू, संस्कृत, नेपाली, मढिपूडी, कोंकणी, बोडो, डोंगरी, मैथिली, संताली।
हिन्दी भारत में सम्पर्क भाषा का कार्य करती है और कुछ हद तक पूरे भारत में आमतौर पर एक सरल रूप में समझी जानेवाली भाषा है। कभी-कभी ‘हिन्दी‘ शब्द का प्रयोग नौ भारतीय राज्यों के संदर्भ में भी उपयोग किया जाता है, जिनकी आधिकारिक भाषा हिंदी है और हिन्दी भाषी बहुमत है, अर्थात् बिहार, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड, जम्मू और कश्मीर, उत्तर प्रदेश और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली।
हिन्दी और इसकी बोलियाँ सम्पूर्ण भारत के विविध राज्यों में बोली जाती हैं। भारत और अन्य देशों में भी लोग हिंदी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। फ़िजी, मॉरिशस, गयाना, सूरीनाम, नेपाल और संयुक्त अरब अमीरात में भी हिन्दी या इसकी मान्य बोलियों का उपयोग करने वाले लोगों की बड़ी संख्या मौजूद है। फरवरी 2019 में अबू धाबी में हिन्दी को न्यायालय की तीसरी भाषा के रूप में मान्यता मिली।
‘हिन्दी’ शब्द की व्युत्पत्ति
‘भारत’ देश की भौगोलिक सीमाओं तथा उसके लिए प्रयुक्त होने वाले नामों (विशेषणों) में निरन्तर परिवर्तन होता रहा है। ब्रह्मवर्त, भारतखण्ड, जम्बूद्वीप, आर्यावर्त, उत्तरापथ, दक्षिणापथ तथा भारत इसके पुरातन नाम है। हिन्द तथा हिन्दुस्तान शब्द भी इसकी संज्ञा के रूप में प्राचीनकाल से ही व्यवहृत होते रहे हैं। ये दोनों शब्द वस्तुत: ईरानी सम्पर्क से व्युत्पन्न हुए हैं।
इनमें भी हिन्दी शब्द को विद्वानों ने हिन्दुस्तान की अपेक्षा पुरातन माना है। पारसियों की प्राचीनतम धार्मिक पुस्तक ‘दसातीर‘ में ‘हिन्द‘ शब्द का उल्लेख मिलता है। पं. रामनरेश त्रिपाठी के मतानुसार ईरान के लोग, महर्षि वेदव्यास के समय में ही इस देश को हिन्द कहने लगे थे। ईरान के शाह गस्तस्य के काल में महर्षि वेदव्यास के ईरान जाने का उल्लेख मिलता है। (हिन्दी भाषा कहा जाता हैं।)
ऋग्वेद में ‘सिन्ध’ और ‘सप्त सिन्धवः‘ शब्द नदी और सात नदियों के निमित्त कई बार तथा विशिष्ट प्रदेश के अर्थ में एक बार प्रयुक्त हुआ है।
डॉ. भोलानाथ तिवारी के मतानुसार प्राचीन ईरानी साहित्य में ‘हिन्द‘ शब्द का सिन्धु नदी तथा उसके आस-पास के प्रदेश के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। एक प्रदेश विशेष की संज्ञा के रूप में इस शब्द का प्रयोग महाभारत में भी मिलता है।
‘हिन्दी’ शब्द का मूल अर्थ
‘हिन्दी’ शब्द का मूल अर्थ है- ‘हिन्दी का’ अर्थात् भारतीय। व्याकरण के अनुसार इसे योगरूढ़ शब्द कहा जा सकता है। इस प्रकार के नामकरण दूसरे बहुत से देशों के लिए प्रचलित हैं, यथा- जापानी, चीनी, नेपाली, भूटानी, रूसी, अमरीकी आदि।
धीरे-धीरे ‘हिन्द‘ शब्द का प्रयोग देशबोधक से निवासियों का बोधक बन गया। आरम्भ में यहाँ से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं की पहचान हेतु भी यह शब्द प्रयुक्त होता था। उदाहरण के लिए अरबी तथा फारसी भाषा में ‘हिन्दी‘ शब्द का प्रयोग एक विशेष प्रकार की तलवार (जो भारतीय इस्पात की बनी होती थी) के लिए होता था।
‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग
‘हिन्दी‘ शब्द के प्रचलन के प्रसंग पर विचार करते समय यह स्पष्ट होता है कि संस्कृत, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं में यह शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ है। मुसलमानों के आगमन तक भारत में भाषा के लिए ‘भाषा‘ या ‘भारवा‘ शब्द प्रचलित थे। ये शब्द 1800 ई. के बाद तक प्रचलन में रहे।
जहाँ संस्कृत ग्रन्थों की टीका को ‘भाषा-टीका‘ कहा गया है, वहीं फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दी पढ़ाने हेतु नियुक्त होने वाले लल्लू लाल एवं सदल मिश्र को ‘भाषा मुंशी‘ या ‘भारवा मुंशी‘ कहा गया है।
हिन्दुस्तानी शब्द की व्युत्पत्ति
अनेक विद्वानों ने हिन्दुस्तानी शब्द की व्युत्पत्ति, अंग्रेजी के प्रभाव से मानी है, किन्तु कालान्तर में सम्पन्न होने वाले शोध-कार्यों से यह स्पष्ट हो चुका है कि यह शब्द उनके यहाँ आगमन से पूर्व ही प्रचलित हो गया था। शाहजहाँ (1627-1657 ई.) के समय की पुस्तकों (तारीख-ए-फरिश्ता तथा बादशाहनामा) में इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इससे भी पूर्व स्वामी प्राणनाथ (1581-1694 ई.) ने अपनी पुस्तक ‘कुलजम स्वरूप‘ में ‘हिन्दुस्तान‘ शब्द का प्रयोग भाषा के निमित्त किया है।
भाषा के रूप में ‘हिन्दी’ के विविध अर्थ
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द क्षेत्र बोधक था। कालान्तर में यह यहाँ की वस्तुओं और निवासियों के लिए प्रयुक्त होने लगा। अन्तत: यह भाषा के लिए रूढ़ हो गया, परन्तु हिन्दी भाषा के सन्दर्भ में भी आज इसके तीन अर्थ मिलते हैं-
-
- व्यापक अर्थ,
- सामान्य अर्थ,
- विशिष्ट अर्थ।
1. हिन्दी का भाषा के रूप में “व्यापक अर्थ”
अपने व्यापक अर्थ में हिन्दी, (बाबू श्यामसुन्दरदास तथा डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के मतानुसार) हिन्दी-प्रदेश में बोली जाने वाली समस्त 18 बोलियों की प्रतिनिधि भाषा है। ये बोलियाँ हैं-
- पश्चिमी हिन्दी में- खड़ी बोली, बाँगरू (हरियाणवी), ब्रजभाषा, कन्नौजी और बुन्देली
- पूर्वी हिन्दी में- अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी
- पहाड़ी में- पूर्वी पहाड़ी (नेपाली), मध्यवर्ती पहाड़ी (जौनसारी)
- राजस्थानी में- पूर्वी राजस्थानी (ढुंढाड़ी), उत्तरी राजस्थानी (मेवाती), पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी) और दक्षिणी राजस्थानी (मालवी)
- बिहारी में- मैथिली, मगही तथा भोजपुरी।
2. हिन्दी का भाषा के रूप में “सामान्य अर्थ”
जॉर्ज ग्रियर्सन एवं सुनीति कुमार चटर्जी प्रभृति भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार केवल पूर्वी हिन्दी एवं पश्चिमी हिन्दी की बोलियों को ही हिन्दी भाषा की बोली के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इस प्रकार इनकी मान्यताओं के धरातल पर हिन्दी को 8 (पश्चिमी हिन्दी की 5 और पूर्वी हिन्दी की 3) बोलियों की प्रतिनिधि भाषा मानते हुए उसका उद्भव शौरसेनी और अर्द्धमागधी अपभ्रंश से माना जा सकता है।
3. हिन्दी का भाषा के रूप में “विशिष्ट अर्थ”
हिन्दी भाषा का समसामयिक आशय है-खड़ी बोली हिन्दी भारतीय संविधान के अन्तर्गत इसे भारत संघ की राजभाषा के रूप में (अनुच्छेद 120, 210 तथा 343 से 351 तक) एवं 8वीं अनुसूची में देश की 18 प्रमुख बोलियों के अन्तर्गत स्थान दिया गया है।
परिनिष्ठित हिन्दी, मानक हिन्दी या व्यावहारिक हिन्दी के रूप में व्यवहृत होने वाली यही हिन्दी आज देश के (लगभग) 42 प्रतिशत लोगों की मातृभाषा है, साथ ही 30 प्रतिशत अन्य ऐसे लोग भी हैं जिन्हें इसका व्यावहारिक ज्ञान है। इसी कारण यह देश की प्रमुखतम सम्पर्क भाषा है।
‘हिन्दी भाषा’ का उत्पत्ति और विकास
हिन्दी भाषा पूर्णतया वियोगात्मक भाषा है। अपभ्रंश के उत्तरार्द्ध काल में इसका लगभग 40 प्रतिशत स्वरूप स्पष्ट हो गया था। लेकिन एक स्वतन्त्र भाषा के रूप में इसकी पहचान लगभग 1000 ई. के आस-पास स्थापित होती है। तब से अद्यावधि तक यह विकास के पथ पर निरन्तर गतिशील है। हिंदी भाषा के उद्भव और विकास का इतिहास तीन भागों में बांटा जा सकता है-
आदिकाल (1000 से 1500 ई. तक)
हिन्दी भाषा का आदिकाल राजनीतिक दृष्टि से अस्थिरता का काल कहा जा सकता है। सर्वत्र मत्स्यन्याय की परम्परा व्याप्त थी। जर, जोरू और जमीन तथा कथित अभिमान के प्रणेता इन लोगों को पशुवत् हिंसक बना रहे थे।
इस विनाशलीला से जहाँ कुछ लोग उत्साहित होते थे, वहीं बहुत-से लोग विक्षुब्ध भी। कुछेक ने इन विसंगतियों से स्वयं को मुक्त रखा। इसलिए भोग एवं योग अपूर्व समन्वय इस युग की रचनाओं में दृष्टिगत होता है।
इस युग में विकास की दृष्टि से हिन्दी की निम्न ध्वनिगत एवं रूपगत विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं-
- अपभ्रंश में 8 स्वर थे- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए तथा ऐ; ये मूल स्वर थे। हिन्दी में नए स्वर विकसित हुए-ऐ तथा और इनका उच्चारण क्रमशः “अ, ए तथा ओ” रूप में होता था। इन्हें संयुक्त स्वर कहा गया।
- अपभ्रंश में डु और ढ़ व्यंजन नहीं थे जो कि हिन्दी में प्रचलित हुए।
- न्ह, ल्ह, यह जैसे संयुक्त व्यंजन अपने पूर्व व्यंजन के महाप्राण के रूप में प्रचलित हो, मूल व्यंजन बन गए।
- सहायक क्रियाओं एवं उपसर्गों के अलग प्रयोग से हिन्दी की मूल विशिष्टता-वियोगात्मकता, इसके प्रारम्भिक काल में ही प्रभावी दृष्टिगत होने लगी।
- अपेक्षाकृत कम होते हुए नपुंसक लिंग शब्द धीरे-धीरे समाप्त हो गए।
- वाक्य-रचना का स्वरूप सुनिश्चित हो गया।
- संस्कृत के शब्दों का प्रयोग धीरे-धीरे बढ़ा तथा अरबी, फारसी, तुर्की एवं पश्तो के शब्द भी प्रचुर संख्या में अपनाए गए।
मध्यकाल (1501 से 1800 ई. तक)
यह काल, हिन्दी भाषा और साहित्य की उपलब्धियों को देखते हुए उसका स्वर्णकाल कहा जा सकता है। राजनीतिक स्थिरता, शान्तिपूर्ण वातावरण एवं कलात्मक उत्कर्ष ने हिन्दी भाषा एवं साहित्य के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया। यद्यपि संस्कृत अब भी पाण्डित्य की प्रदर्शिका थी किन्तु प्रतिभाशाली एवं स्वाभिमानी सन्तों एवं भक्तों ने लोक बोलियों (विशेष रूप से ब्रज और अवधी) को अपनाकर उसे भाषा के स्तर तक पहुँचा दिया।
- फारसी भाषा में सम्पर्क के कारण हिन्दी में पाँच नयी ध्वनियाँ प्रचलित हुई- क़, ख़, ग, ज़, फ़।
- अ से होने वाले शब्दांत में अ का उच्चारण समाप्त होने लगा। जैसे- अर्थात्, सम्राट्, तथागत् आदि।
- हिन्दी का व्याकरणिक स्वरूप भी लगभग सुनिश्चित हो गया। अपभ्रंश रूप या तो प्रचलन में समाप्त हो गये अथवा हिन्दी के अपने बन गये।
- मुसलमानों से आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित होने के कारण उनकी विविध भाषाओं- अरबी, फारसी, तुर्की, पश्तो आदि के लगभग 6000 शब्द हिन्दी में अपना लिए गए।
- हिन्दी भाषा की वियोगितात्मकता लगभग पूरी हो गयी और परसर्ग तथा क्रियाओं आदि का अधिक से अधिक स्वतन्त्र प्रयोग होने लगा।
- सूरदास एवं तुलसीदास के साथ-साथ रीतिकालीन आचार्यों के कारण जहाँ हिन्दी में प्रचुर मात्रा में तत्सम शब्द सम्मिलित एवं प्रचलित हुए वहीं सन्त, सूफियों या मुक्तक परम्परा के रचनाकारों के प्रभाव से तद्भव एवं देशी तथा देशज शब्दों का भी प्रचुर प्रयोग हुआ।
आधुनिक काल (1801 ई. से आज तक)
इस अवधि को खड़ी बोली हिन्दी का काल कहा जा सकता है। साहित्यिक दृष्टि से ब्रज भाषा और अवधी एक तरफ जनमानस से दूर होकर विशिष्ट वर्ग की भाषा बन गयी, तो दूसरी तरफ हिन्दी प्रदेश पर अधिकार करने वाले अंग्रेजों ने अपनी प्रशासनिक गतिविधियों की सुकरता हेतु 1800 ई. से ही खड़ी बोली को संरक्षण प्रदान करते हुए अपना लिया।
यद्यपि साहित्यिक क्षेत्र में कुछ दिनों तक खड़ी बोली गद्यविधा और ब्रजभाषा पद्य-विधा का माध्यम भाषा न रही, लेकिन धीरे-धीरे राष्ट्रीय चेतना की व्यापकता, राजनीतिक घटनाओं, सामाजिक जागरण और प्रेस के अस्तित्व में आने के कारण खड़ी बोली साहित्यिक स्रजन की एकमात्र भाषा बन गयी।
- कचहरी में उर्दू भाषा और फारसी लिपि के प्रचलन के कारण 1947 ई. तक क़, ख़, ग, ज़, फ़ वर्ण तो प्रचलन में रहे, किन्तु धीरे-धीरे क़, ख़, ग,- क, ख, ग के रूप में प्रयुक्त होने लगे पर ज़, फ़ प्रचलन में अभी भी बने हुए हैं।
- अंग्रेजी के प्रभाव से उसके ‘०’ वर्ण के लिए एक नयी ध्वनि ‘ऑ’ प्रचलित हुई। जैसे-कॉलेज, डॉक्टर, कॉलगेट आदि। (ऑ का उच्चारण ओ एवं आ के मध्य करने की चेष्टा की जाती है।)
- अंग्रेजी के प्रभाव से एक नया संयुक्त व्यंजन ‘ड्र‘ भी प्रचलन में आया है। जैसे- ड्रिप, ड्रग आदि।
- शब्दांत में ‘अ‘ का उच्चारण लगभग समाप्त हो चुका है। जैसे राम, श्याम आदि।
FAQs
हिंदी का विश्व में कौन सा स्थान है?
विश्व में कितने लोग हिन्दी भाषा बोलते हैं?
भारत में हिंदी भाषा बोलने वालों का प्रतिशत क्या है?
विश्व में कितने देशों में हिंदी भाषा बोली जाती है?