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समिति किसे कहते है? अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, प्रकार, लक्षण, महत्व

समाज द्वारा इस तरीके को मान्यता प्रदान नहीं की जाती; तथा तृतीय, व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को दूसरे व्यक्तियों के सहयोग से पूरा करे। यह एक सामाजिक ढंग है। आवश्यकताओं को पूरा करने का तीसरा ढंग समिति का आधार है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि पारस्परिक सहायता तथा सहयोग के आधार पर मिल-जुलकर लक्ष्यों को पूरा करने वाले समूह या संगठन को हम समिति कह सकते हैं।

समिति किसे कहते है?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के कारण उसकी असीमित इच्छाएँ व आवश्यकताएँ हैं। जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए व्यक्ति अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करता है। मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के मतानुसार इन आवश्यकताओं या लक्ष्यों को पूरा करने के तीन ढंग हो सकते हैं-प्रथम, व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को स्वतन्त्र रूप से अकेले ही बिना किसी की सहायता लिए स्वयं पूरा कर ले, परन्तु यह एक तो असामाजिक ढंग है तथा दूसरे अत्यन्त दुष्कर है; द्वितीय, व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए दूसरे के हितों का हनन करे व उनसे संघर्ष करे।

यह ढंग भी समाजविरोधी प्रवृत्ति को अधिक स्पष्ट करता है। यद्यपि संघर्ष जीवन का ही एक अंग है फिर भी यह असामाजिक है।

समिति का अर्थ एवं परिभाषाएँ

समिति व्यक्तियों का समूह है। यह किसी विशेष हित या हितों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है। परिवार, विद्यालय, व्यापार संघ, चर्च (धार्मिक संघ), राजनीतिक दल, राज्य इत्यादि समितियाँ हैं। इनका निर्माण विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। उदाहरणार्थ-विद्यालय का उद्देश्य शिक्षण तथा व्यावसायिक तैयारी है। इसी प्रकार, श्रमिक संघ का उद्देश्य नौकरी की सुरक्षा, उचित पारिश्रमिक दरें, कार्य की स्थितियाँ इत्यादि को ठीक रखना है। साहित्यकारों या पर्वतारोहियों के संगठन भी समिति के ही उदाहरण हैं।

  • जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार, “समिति आपस में सम्बन्धित सामाजिक प्राणियों का एक समूह है, जो एक निश्चित लक्ष्य या लक्ष्यों की पूर्ति के लिए एक सामान्य संगठन का निर्माण करते हैं।”
  • मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “सामान्य हित या हितों की पूर्ति के लिए दूसरों के सहयोग के साथ सोच-विचार कर संगठित किए गए समूह को समिति कहते हैं।”
  • गिलिन एवं गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार, “समिति व्यक्तियों का ऐसा समूह है, जो किसी विशेष हित या हितों के लिए संगठित होता है तथा मान्यता प्राप्त या स्वीकृत विधियों और व्यवहार द्वारा कार्य करता है।”
  • इसी भाँति, बोगार्डस (Bogardus) के अनुसार, “समिति प्राय: किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए लोगों का मिल-जुलकर कार्य करना है।”

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें सहयोग व संगठन पाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य किसी लक्ष्य की पूर्ति है। समिति के सदस्य अपने विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति कुछ निश्चित नियमों के अन्तर्गत सामूहिक प्रयास द्वारा करते हैं।

समिति के अनिवार्य तत्त्व

समिति के निम्नलिखित चार अनिवार्य तत्त्व हैं-

  1. व्यक्तियों का समूह- समिति समुदाय की ही तरह मूर्त है। यह व्यक्तियों का एक संकलन है। दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों का होना समिति के निर्माण हेतु अनिवार्य है।
  2. सामान्य उद्देश्य- समिति का दूसरा आवश्यक तत्त्व सामान्य उद्देश्य अथवा उद्देश्यों का होना है। व्यक्ति इन्हीं सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो संगठन बनाते हैं उसे ही समिति कहा जाता है।
  3. पारस्परिक सहयोग- सहयोग समिति का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। इसी के आधार पर समिति का निर्माण होता है। सहयोग के बिना समिति का कोई अस्तित्व नहीं है।
  4. संगठन- समिति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संगठन का होना भी आवश्यक है। संगठन द्वारा समिति की कार्यप्रणाली में कुशलता आती है।

समिति के निर्माण हेतु उपर्युक्त चारों तत्त्वों का होना अनिवार्य है। वस्तुत: समितियों का निर्माण अनेक आधारों पर किया जाता है। अवधि के आधार पर समिति स्थायी (जैसे राज्य) एवं अस्थायी (जैसे बाढ़ सहायता समिति); सत्ता के आधार पर सम्प्रभु (जैसे राज्य), अर्द्ध-सम्प्रभु (जैसे विश्वविद्यालय) एवं असम्प्रभु (जैसे क्लब); कार्य के आधार पर जैविक (जैसे परिवार), व्यावसायिक (जैसे श्रमिक संघ), मनोरंजनात्मक (जैसे संगीत क्लब) एवं परोपकारी (जैसे सेवा समिति) हो सकती हैं।

समिति की प्रमुख विशेषताएँ

समिति की विभिन्न परिभाषाओं से इसकी कुछ विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं। इनमें से प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • मानव समूह- समिति का निर्माण दो या दो से अधिक व्यक्तियों के समूह से होता है जिसका एक संगठन होता है। संगठन होने का आधार उद्देश्य या उद्देश्यों की समानता है।
  • निश्चित उद्देश्य- समिति के जन्म के लिए निश्चित उद्देश्यों का होना आवश्यक है। यदि निश्चित उद्देश्य न हों तो व्यक्ति उनकी पूर्ति के लिए तत्पर न होंगे और न ही समिति का जन्म होगा।
  • पारस्परिक सहयोग- समिति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए एक व्यवस्था का निर्माण करती है। उद्देश्य की प्राप्ति तथा व्यवस्था के लिए सहयोग होना अति आवश्यक है। चूंकि सदस्यों के समान उद्देश्य होते हैं, इस कारण उनमें सहयोग पाया जाता है।
  • ऐच्छिक सदस्यता- प्रत्येक मनुष्य की अपनी आवश्यकताएँ हैं। जब वह अनुभव करता है कि अमुक समिति उसकी आवश्यकता की पूर्ति कर सकती है तो वह उसका सदस्य बन जाता है। समिति की सदस्यता के लिए कोई बाध्यता नहीं होती है। इसकी सदस्यता ऐच्छिक होती है। इसे कभी भी बदला जा सकता है।
  • अस्थायी प्रकृति- समिति का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों को पूर्ति के लिए किया जाता है। जब उद्देश्यों की प्राप्ति हो जाती है तो वह समिति समाप्त हो जाती है। उदाहरणार्थ-गणेशोत्सव के लिए गठित समिति गणेशोत्सव समाप्त होने के बाद भंग हो जाती है।
  • विचारपूर्वक स्थापना- समिति की स्थापना मानवीय प्रयत्नों के कारण होती है। व्यक्तियों का समूह पहले यह परामर्श करता है कि समिति उनके लिए कितनी लाभप्रद होगी। यह विचार-विमर्श करने के पश्चात् ही समिति की स्थापना की जाती है।
  • नियमों पर आधारित- प्रत्येक समिति की प्रकृति अलग होती है। इसी कारण समितियों के नियम भी अलग-अलग होते हैं। उद्देश्यों को पाने के लिए व सदस्यों के व्यवहार में अनुरूपता (Conformity) लाने के लिए कतिपय निश्चित नियम आवश्यक हैं। नियमों के अभाव में समिति अपने लक्ष्यों की पूर्ति नहीं कर सकती।
  • मूर्त संगठन- समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जो कतिपय लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु एकत्र होते हैं। इस दशा में समिति को मूर्त संगठन के रूप में वर्णित किया जा सकता है। इसको किसी के भी द्वारा देखा जा सकता है।
  • समिति साधन है, साध्य नहीं- समितियों का निर्माण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। यदि हम पढ़ने के शौकीन हैं, तो वाचनालय की सदस्यता ग्रहण कर लेते हैं। इससे हमें इच्छानुसार पुस्तकें मिलती रहती हैं। इसमें वाचनालय पुस्तकें प्राप्त करने का साधन है, साध्य नहीं; और यही समिति है। अत: हम कह सकते हैं कि समिति साधन है साध्य नहीं।
  • सुनिश्चित संरचना- प्रत्येक समिति की एक सुनिश्चित संरचना होती है। समस्त सदस्यों की प्रस्थिति समान नहीं होती, वरन् उनकी अलग-अलग प्रस्थिति या पद होते हैं। पदों के अनुसार ही उन्हें अधिकार प्राप्त होते हैं।

उदाहरण के लिए

महाविद्यालय में प्राचार्य, अध्यापक, छात्र, लिपिक इत्यादि प्रत्येक की अलग-अलग प्रस्थिति होती है तथा तदनुसार उनके अलग-अलग कार्य होते हैं।

समितियों के प्रकार

समिति की संरचना के आधार पर समितियों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-औपचारिक समितियाँ एवं अनौपचारिक समितियाँ। इन दोनों को निम्नांकित प्रकार से समझा जा सकता है

औपचारिक समितियाँ

औपचारिक समिति का आदर्श रूप वही है जो समिति की विभिन्न परिभाषाओं में दिखाया गया है। किसी विशिष्ट हित या हितों की प्राप्ति के लिए जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक औपचारिक एवं स्पष्ट कार्यपद्धति के अनुसार संगठित होते हैं तो उसे औपचारिक समिति कहा जाता है। ऐसी समितियों में सम्पूर्ण कार्य को निश्चित भागों में तार्किक आधार पर बाँट दिया जाता है और उसी के अनुरूप प्रत्येक कार्य के लिए निश्चित पदों का सृजन किया जाता है।

प्रत्येक पद के अधिकार और कर्त्तव्य सुपरिभाषित होते हैं। औपचारिक नियमों के आधार पर प्रत्येक पद के लिए उपयुक्त योग्यता का व्यक्ति चयन द्वारा नियुक्त किया जाता है। उसका वेतनक्रम, उन्नति का प्रावधान, प्रशिक्षण आदि सभी सेवा सम्बन्धी नियम स्पष्ट होते हैं। इसी भाँति, निरीक्षण एवं नियन्त्रण के नियम भी पूर्व-निर्धारित होते हैं।

ऐसी औपचारिक समितियों के अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं; जैसे-कॉलेज की प्रबन्ध समिति, राजनीतिक दल, सरकारी कार्यालय, मजदूर संघ अथवा छात्र संघ। उदाहरणार्थ-किसी छात्र संघ को लिया जा सकता है जिसका निर्माण निश्चित, लिखित व स्पष्ट संविधान के आधार पर किया जाता है।

इस संविधान में छात्र संघ के उद्देश्य, औपचारिक संगठन की रूपरेखा, नेताओं के चयन की पद्धति एवं संघ के कार्यों का स्पष्ट समावेश होता है। संघ की सभाओं के सम्बन्ध में पूर्व सूचना सम्बन्धी नोटिस के नियम, न्यूनतम अनिवार्य उपस्थिति (कोरम) के नियम, प्रस्ताव अनुमोदन के नियम आदि सभी दिए जाते हैं। बजट और कार्यक्रम के नियम भी होते है। यदि पदासीन नेताओं और विरोधी पक्ष में किसी विषय पर मतभेद हो जाए तो विवादास्पद विषय पर निर्णय कैसे होगा, यह निर्णय कौन देगा आदि भी पहले से ही तय होता है। ऐसे औपचारिक नियमों के अभाव में छात्र संघ की कल्पना करना भी कठिन है।

इस भाँति, औपचारिक समिति के प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं-

  • विशिष्ट नाम,
  • सुघोषित उद्देश्य,
  • स्पष्ट नेतृत्व,
  • औपचारिक संविधान,
  • निरीक्षण एवं नियन्त्रण की व्यवस्था (पुरस्कार एवं दण्ड द्वारा),
  • कार्य-क्षेत्र की परिधि, तथा
  • विशिष्ट चिह्न, यदि कोई हो तो।

अनौपचारिक समितियाँ

अनौपचारिक समितियाँ ऊपर (सतह) से ही परस्पर दो विरोधी शब्द लगते हैं क्योंकि अधिकांशत: समिति की परिभाषा औपचारिक नियमों की विद्यमानता के आधार पर ही की जाती है। परन्तु यदि हम सतह से नीचे गहराई में देखें तो यह एक यथार्थ है कि अनेक समितियाँ अनौपचारिक रूप से विकसित होती हैं और कार्य करती हैं। इसके सदस्य विशिष्ट हितों के लिए मिल-जुल कर कार्य करने के लिए प्रेरित होते। हैं।

औपचारिक रूप से चयन न होने पर भी उसमें स्पष्ट नेतृत्व उभर का कर सामने आ जाता है और उसकी प्रभाविता भी साफ दिखाई देती है। ऐसी समितियों के सदस्य भी अपने व्यवहार के आदर्श एवं नियम विकसित कर लेते हैं जो परस्पर सहमति के परिणाम होते हैं। ये नियम अथवा आचरण के प्रतिमान, चाहे लिखित या औपचारिक न हों, परन्तु उनके प्रति सदस्यों में उच्च स्तर की प्रतिबद्धता पाई जाती है। अनौपचारिकता की मात्रा के आधार पर नीचे दो अनौपचारिक समितियों (मित्र-मण्डली एवं परिवार) के उदाहरण दिए जा रहे हैं।

मित्र-मण्डली भी एक विशेष प्रकार की समिति है। जीवन सम्बन्धी आवश्यकताओं की सहज पूर्ति व स्नेहमय सहयोग के लिए पारस्परिक आकर्षण के आधार पर इस मित्र-मण्डली का निर्माण होता है। यद्यपि यह सही है कि उनमें आपस में कोई लिखित विधान लागू नहीं होता, परन्तु मित्रों के आचरण के भी कुछ आदर्श होते हैं। मित्रों से आशा की जाती है कि वे एक-दूसरे से कुछ छिपायेंगे नहीं। एक-दूसरे के परिवार को अपने परिवार के समान मानेंगे।

आवश्यकता पड़ने पर यथासम्भव एक-दूसरे की सहायता करेंगे। विपदा के समय यह सहायता सामान्य सीमाओं से भी परे हो सकती है। धीरे-धीरे उस मित्र-मण्डली के बीच भी कोई एक निर्णायक के पद पर पहुँच जाता है जिसके सुझावों व निर्देशों में सभी को विश्वास है और जो मित्र-मण्डली का नायक बन जाता है। इन उपर्युक्त अलिखित आदर्शों का उल्लंघन करने वाला ऐसी मित्र-मण्डली से या तो खुद ही बाहर हो जाता है या बाहर कर दिया जाता है।

यदि हम परिवार को देखें तो उसमें मित्र-मण्डली की अपेक्षा औपचारिकता और सहजता अधिक होती है। भारतीय परिवेश में पिता और सन्तान के सम्बन्ध निश्चित ही औपचारिकता का सम्बन्ध लिए हुए होते हैं। पिता की प्रभुता में औपचारिकता का अंश है परन्तु फिर भी परिवार को औपचारिक समिति नहीं कहा जा सकता। यह तो स्त्री-पुरुष के मध्य समाज द्वारा स्वीकृत ऐसे स्थायी यौन सम्बन्धों पर आधारित होता है जिसमें बालकों का प्रजनन और लालन-पालन हो सके। परिवार में सहजता, अनौपचारिकता, स्नेह, निस्स्वार्थ सहयोग और व्यक्तिगत सम्बन्ध पाए जाते हैं। इसीलिए हम इसे अनौपचारिक समिति की श्रेणी में रखते हैं।

ऐसी अनेक अनौपचारिक समितियों में किसी गुप्त क्रान्तिकारी दल या आतंकवादी दल को भी लिया जा सकता है। सच तो यह है कि आधुनिक समाजशास्त्रियों के विचार में आज का युग जटिल समाज का युग है। इस समाज में विभिन्न हितों (राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक आदि) के लिए बड़े-बड़े औपचारिक संगठनों का निर्माण किया जाता है।

जैसे एक विश्वविद्यालय लाखों विद्यार्थियों के हित हेतु स्थापित किया जाता है। अनेक आचार्य उससे सम्बद्ध होते हैं। इसी भाँति, किसी बड़े उद्योग संस्थान अथवा पुलिस संगठन को लिया जा सकता है। परन्तु यह देखा गया है कि इन सभी औपचारिक संगठनों में दो प्रकार की संरचनाएँ विकसित हो जाती हैं

एक तो वैधानिक- औपचारिक संरचना है और दूसरी वह अनौपचारिक संरचना है जो पदाधिकारी व अन्य कर्मचारी धीरे-धीरे पारस्परिक परिचय व घनिष्ठता के आधार पर हितों के संरक्षण एवं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विकसित कर लेते हैं। वह ऐसे वृहत् संरक्षण का अनौपचारिक पक्ष होता है।

प्रत्येक संगठन में ऐसे अनौपचारिक गुट पाए जाते हैं जो यान्त्रिक औपचारिक कार्यप्रणाली के दबाव, दूरी, उबाऊपन या जटिलता से बचने के लिए पारस्परिकता पर आधारित सहज अनौपचारिक कार्यप्रणाली विकसित कर लेते हैं। ये उन्हें सहज, सरल व अनौपचारिक क्रियाशीलता प्रदान करते हैं। वास्तव में, प्रत्येक संगठन में ऐसी अनौपचारिक संरचना अधिक प्रभावपूर्ण और क्रियाशील होती है।

इस भाँति, अनौपचारिक समिति के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-

  • समान हित,
  • पारस्परिक परिचय एवं सम्पर्क,
  • कार्यप्रणाली की सहजता एवं सरलता,
  • वैयक्तिक सम्बन्ध,
  • अनौपचारिक नियमावली, तथा
  • सहमति के आधार पर स्वतः विकसित सहज नेतृत्व।

औपचारिक एवं अनौपचारिक समितियों में तुलना

औपचारिक एवं अनौपचारिक समितियों की तुलना इस मान्यता पर आधारित है कि दोनों में कुछ लक्षण समान हैं और जो अन्तर हैं वे मात्रा के हैं किस्म के नहीं। इसलिए तो दोनों के साथ समितियाँ शब्द लगा हुआ है। समानता की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि दोनों ही हित-प्रधान सामाजिक संगठन हैं जो किसी विशेष लक्ष्य या लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर उन्मुख हैं। दूसरे, दोनों में ही आचरण के कुछ आदर्श और नियम होते हैं।

तीसरे, दोनों में ही स्पष्ट नेतृत्व है और अन्तिम रूप से, दोनों में ही सदस्य अभिमति (Sanctions) द्वारा नियन्त्रित होते हैं अर्थात् किसी भी सदस्य के किसी व्यवहार के प्रति अन्य सहयोगी कैसी प्रतिक्रिया करेंगे, वे उसका अनुमोदन करेंगे या उसके विरुद्ध कार्यवाही करेंगे, यह प्रश्न बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इसी से प्रत्येक सदस्य नियन्त्रित होता है।

औपचारिक एवं अनौपचारिक समितियों में निम्नांकित प्रमुख अन्तर हैं-

  • औपचारिक समितियों में लिखित व यान्त्रिक प्रक्रिया होती है, जबकि अनौपचारिक समितियों में नियमावली परस्पर सहमति के आधार पर सर्वमान्य होती है। वह स्वत: विकसित होती है और अधिकांशत: अलिखित होती है।
  • औपचारिक समितियों में नेतृत्व का स्वरूप पदों के अनुसार होता है, जबकि अनौपचारिक समितियों में वह स्वत: विकसित और सहज होता है।
  • औपचारिक समितियों के सदस्यों में अवैयक्तिक सम्बन्ध होते हैं, जबकि अनौपचारिक समितियों का निर्माण ही पारस्परिक परिचय व सम्बन्धों की घनिष्ठता के आधार पर होता है। इसलिए उसके सदस्यों के सम्बन्ध वैयक्तिक अधिक और अवैयक्तिक कम होते हैं।
  • औपचारिक समितियों के उद्देश्यों में सार्वभौमिकता अथवा सामान्यता अधिक होती है, जबकि अनौपचारिक समितियाँ सदस्यों के सार्वभौमिक हितों की अपेक्षा उनके अपने हितों की पूर्ति पर अधिक जोर देती है।
  • औपचारिक समितियों में नियन्त्रण औपचारिक दृष्टि से पुरस्कार या दण्ड के द्वारा होता है, जबकि अनौपचारिक समितियों में सदस्यों का जनमत अथवा मतैक्य अधिक प्रभावपूर्ण होता है। यथार्थ में किसी भी संगठन की संरचना दो पहलुओं में होती है-औपचारिक एवं अनौपचारिक। यही संगठित सामाजिक जीवन की एक वास्तविकता है।

समाज एवं समिति में अन्तर

समाज एवं समिति दोनों अलग-अलग अवधारणाएँ हैं। समाज व्यक्तियों में पाए जाने वाले सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना या जाल है। क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध अमूर्त होते हैं, अत: समाज भी अमूर्त है। समिति व्यक्तियों

द्वारा किसी निश्चित उद्देश्य अथवा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बनाया गया एक मूर्त संगठन है।

समाज एवं समिति में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-

समाज/समिति

  • समाज व्यक्तियों के मध्य विद्यमान सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। समिति सामान्य लक्ष्यों की पूर्ति हेतु निर्मित व्यक्तियों का एक समूह है।
  • सामाजिक सम्बन्धों का जाल होने के कारण समाज एक अमूर्त अवधारणा है। व्यक्तियों का समूह होने के कारण समिति एक मूर्त अवधारणा है।
  • समाज की प्रकृति अधिकांशत: स्थायी होती है। समिति पूर्णत: अस्थायी होती है।
  • समाज में सहयोग व संघर्ष का मिश्रित प्रवाह होता है। समिति का आधार सहयोग है। अतएव समिति में पूर्ण सहयोग पाया जाता है।
  • समाज की सदस्यता ऐच्छिक न होकर अनिवार्य है। मनुष्य जन्म से ही किसी न किसी समाज का सदस्य होता है।समिति की सदस्यता अनिवार्य न होकर ऐच्छिक होती है।
  • समाज में संगठन व विघटन दोनों ही पाए जाते हैं। समिति में पूर्णत: संगठन पाया जाता है।
  • व्यक्ति एक समय में एक ही समाज का सदस्य हो सकता है। व्यक्ति एक समय में अनेक समितियों का सदस्य हो सकता है।
  • समाज का विकास स्वत: होता है।समिति का निर्माण विचारपूर्वक किया जाता है।
  • समाज में समानता तथा भिन्नता दोनों ही पाई जाती हैं। समिति में केवल समानता ही पाई जाती है।
  • समाज एक साध्य है। समिति एक साधन है।

समिति एवं समुदाय में अन्तर

समिति एवं समुदाय दो भिन्न अवधारणाएँ हैं। यद्यपि दोनों ही व्यक्तियों के मूर्त समूह हैं तथापि दोनों में पर्याप्त अन्तर है। समिति व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जोकि किसी विशेष हित या हितों की पूर्ति के लिए बनाया जाता है। समुदाय, इसके विपरीत, व्यक्तियों का एक ऐसा समूह है जोकि एक निश्चित भू-भाग पर रहता है तथा जिसके सदस्यों में सामुदायिक भावना पाई जाती है। समिति एवं समुदाय में पाए जाने वाले प्रमुख अन्तर निम्नांकित हैं

समिति/समुदाय

  • समिति के लिए निश्चित भू-भाग की आवश्यकता नहीं है। समुदाय के लिए निश्चित भू-भाग का होना आवश्यक है।
  • समिति की स्थापना विचारपूर्वक की जाती है। समुदाय का जन्म स्वत: होता है।
  • उद्देश्य सीमित होने के कारण समिति एक छोटी इकाई है। समुदाय सामान्य जीवन से सम्बन्धित होने के कारण एक बड़ी इकाई है।
  • समिति के उद्देश्य पूर्व-निश्चित होते हैं। समुदाय सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है।
  • समिति की सदस्यता अनिवार्य नहीं है। समुदाय की सदस्यता अनिवार्य है।
  • व्यक्ति एक ही समय में कई समितियों का सदस्य बन सकता है। समुदाय में ऐसा होना सम्भव नहीं है।
  • इसकी प्रकृति अस्थायी होती है। उद्देश्य विशेष पर आधारित होने के कारण उसकी पूर्ति के पश्चात् समिति समाप्त हो जाती है। समुदाय में उद्देश्य सामान्य होने के कारण इसकी प्रकृति स्थायी है।
  • समिति के लिए सामुदायिक भावना आवश्यक नहीं है। समुदाय के लिए सामुदायिक भावना का होना आवश्यक तत्त्व है।
  • समितियाँ साधन होती हैं। समुदाय स्वयं साध्य होते हैं।
  • समिति में संगठन आवश्यक है। समुदाय संगठित एवं विघटित दोनों रूपों में कार्य करता है।

समिति एवं समुदाय में उपुर्यक्त अन्तर से स्पष्ट हो जाता है कि समिति व्यक्तियों का विशेष उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बनाया गया समूह है। समुदाय में, समिति के विपरीत, हमारे सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति होती है। समुदाय में हमारा सम्पूर्ण जीवन व्यतीत होता है।

समिति हमारे किसी एक उद्देश्य से सम्बन्धित होती है अर्थात् इसका सम्बन्ध जीवन के किसी एक पक्ष से होता है। समिति एक संकुचित अवधारणा है, जबकि समुदाय एक वृहत् अवधारणा है। एक समुदाय के अन्तर्गत अनेक समितियाँ पाई जा सकती हैं। इस सन्दर्भ में मैकाइवर एवं पेज ने उचित ही लिखा है कि, “एक समिति एक समुदाय नहीं है, बल्कि समुदाय के अन्तर्गत एक संगठन है।”

समाजशास्त्र में प्रयुक्त एक अन्य प्रमुख अवधारणा संस्था की है जिसे अधिकतर समिति के सन्दर्भ में समझा जाता है तथा इसीलिए कई बार दोनों के अर्थ में भ्रान्ति भी हो जाती है। समिति व्यक्तियों का एक समूह है जोकि किसी निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाया गया है। संस्था समिति के उद्देश्यों की पूर्ति की समाज द्वारा मान्य पद्धति है। इसीलिए संस्था शब्द को कार्यप्रणाली, कार्यपद्धति अथवा नियमों की ऐसी व्यवस्था के रूप में प्रयोग किया जाता है जोकि अमूर्त होती है।

FAQs

समिति किसे कहते है?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। सामाजिक प्राणी होने के कारण उसकी असीमित इच्छाएँ व आवश्यकताएँ हैं। जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए व्यक्ति अपनी इन आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करता है।

समिति के अनिवार्य तत्त्व कौन से है?

समिति के निम्नलिखित चार अनिवार्य तत्त्व हैं-
  1. व्यक्तियों का समूह- समिति समुदाय की ही तरह मूर्त है। यह व्यक्तियों का एक संकलन है। दो अथवा दो से अधिक व्यक्तियों का होना समिति के निर्माण हेतु अनिवार्य है।
  2. सामान्य उद्देश्य- समिति का दूसरा आवश्यक तत्त्व सामान्य उद्देश्य अथवा उद्देश्यों का होना है। व्यक्ति इन्हीं सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जो संगठन बनाते हैं उसे ही समिति कहा जाता है।
  3. पारस्परिक सहयोग- सहयोग समिति का तीसरा अनिवार्य तत्त्व है। इसी के आधार पर समिति का निर्माण होता है। सहयोग के बिना समिति का कोई अस्तित्व नहीं है।
  4. संगठन- समिति के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संगठन का होना भी आवश्यक है। संगठन द्वारा समिति की कार्यप्रणाली में कुशलता आती है।

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