करेंट अफेयर्स प्रश्नोत्तरी

  • करेंट अफेयर्स दिसम्बर 2022
  • करेंट अफेयर्स नवंबर 2022
  • करेंट अफेयर्स अक्टूबर 2022
  • करेंट अफेयर्स सितम्बर 2022
  • करेंट अफेयर्स अगस्त 2022
  • करेंट अफेयर्स जुलाई 2022
  • करेंट अफेयर्स जून 2022
  • करेंट अफेयर्स मई 2022
  • करेंट अफेयर्स अप्रैल 2022
  • करेंट अफेयर्स मार्च 2022

करेंट अफेयर्स ( वर्गीकृत )

  • व्यक्तिविशेष करेंट अफेयर्स
  • खेलकूद करेंट अफेयर्स
  • राज्यों के करेंट अफेयर्स
  • विधिविधेयक करेंट अफेयर्स
  • स्थानविशेष करेंट अफेयर्स
  • विज्ञान करेंट अफेयर्स
  • पर्यावरण करेंट अफेयर्स
  • अर्थव्यवस्था करेंट अफेयर्स
  • राष्ट्रीय करेंट अफेयर्स
  • अंतर्राष्ट्रीय करेंट अफेयर्स
  • छत्तीसगढ़ कर्रेंट अफेयर्स

समाज की प्रकृति अथवा समाज की विशेषताएँ

समाज एवं उसमें व्याप्त सम्बन्धों की व्यवस्था स्थिर न होकर परिवर्तनशील है। समाज में समयानुसार निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक सम्बन्धों की सदैव परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को ही समाज कहा है। इनके शब्दों में, यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है जो सदैव परिवर्तित होता रहता है।

समाज की प्रकृति अथवा समाज की विशेषताएँ

विभिन्न समाजशास्त्रियों ने समाज की परिभाषाएँ जिन शब्दों में दी हैं उनसे समाज की कुछ विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं। समाज की कतिपय प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. समाज सामाजिक सम्बन्धों की व्यवस्था है

बिना सामाजिक सम्बन्धों के समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। समाज के सदस्यों में पाए जाने वाले निश्चित सामाजिक सम्बन्धों के जाल अथवा व्यवस्था द्वारा सभी सदस्य एक-दूसरे से बँधे रहते हैं। ये सम्बन्ध अव्यवस्थित, मनमाने अथवा पूर्ण रूप से स्वतन्त्र नहीं होते हैं, अपितु इनकी स्थापना हेतु समाज में पाए जाने वाले सांस्कृतिक आदर्शों एवं मूल्यों के अनुरूप होती है। समाज के सदस्य इन सम्बन्धों की स्थापना अपनी मानसिक सन्तुष्टि, सामान्य हितों की पूर्ति, पारस्परिक निर्भरता तथा सामाजिक दायित्वों के निर्वाह हेतु करते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित इन्हीं सम्बन्धों द्वारा सदस्यों के व्यक्तित्व का विकास भी होता है। सदस्यों में पाए जाने वाले व्यापक सम्बन्धों के एक निश्चित ढाँचे अथवा व्यवस्था को ही समाज कहा जाता है।

2. समाज अमूर्त है

समाज मनुष्यों का मूर्त समूह कदापि नहीं है, अपितु यह सदस्यों में पाए जाने वाले व्यापक सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना या व्यवस्था है। क्योंकि सम्बन्धों का कोई स्वरूप नहीं होता, इसलिए समाज भी अमूर्त होते हैं। इस सन्दर्भ में रयूटर (Reuter) ने उचित ही लिखा है कि, “जिस प्रकार जीवन एक वस्तु नहीं है, बल्कि जीवित रहने की प्रक्रिया है, उसी प्रकार समाज एक वस्तु नहीं है, बल्कि सम्बन्ध स्थापित करने की प्रक्रिया है।” राइट (Wright) की इस परिभाषा से भी समाज की अमूर्तता के बारे में पता चलता है कि, “समाज व्यक्तियों का समूह नहीं है, यह समूह के सदस्यों के मध्य स्थापित सम्बन्धों की व्यवस्था है।” सम्बन्ध क्योंकि अमूर्त होते हैं इसलिए समाज भी अमूर्त है।

3. समाज में सहयोग एवं संघर्ष

समाज के सदस्यों के मध्य सहयोगात्मक तथा असहयोगात्मक दोनों प्रकार के सम्बन्ध पाये जाते हैं। ये दोनों ही प्रकार के सम्बन्ध समाज के लिए आवश्यक भी हैं। सहयोग के द्वारा सामाजिक सम्बन्ध निर्मित होते हैं। संघर्ष के द्वारा सामाजिक समस्याओं का निराकरण होता है। सहयोग और संघर्ष एक प्रकार से जीवन के दो पहलू हैं। यदि इन्हें एक-दूसरे का पूरक भी कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। इस सम्बन्ध में जॉर्ज सिमेल (Georg Simmel) का कथन है कि समाज में दो प्रकार की शक्तियों का समावेश होता है—एक तो वे शक्तियाँ जो मनुष्यों को एक सूत्र में बाँधती हैं और दूसरी वे शक्तियाँ जो उन्हें पृथक् कर देती हैं।

(अ) समाज में सहयोग

मानव समाज एक जटिल व्यवस्था है। समाज के सदस्य एक-दूसरे से सहयोग करते हुए अपने लक्ष्यों (आवश्यकताओं) की पूर्ति करते हैं। मनुष्य की आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है। यह भी सम्भव नहीं है कि वह प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ति स्वयं ही कर ले। अत: मानव का सामाजिक जीवन सहयोग पर ही आधारित होता है। सहयोग दो प्रकार का होता है-

प्रत्यक्ष सहयोग

प्रत्यक्ष सहयोग वहाँ प्रदान किया जाता है जहाँ व्यक्ति आमने-सामने (Face-to-face) के सम्बन्ध रखते हैं। उदाहरण के लिए-परिवार में प्रत्येक सदस्य आमने-सामने का सम्बन्ध रखता है। वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक-दूसरे से सहयोग करते हैं। प्रत्यक्ष सहयोग में समान कार्य व उद्देश्य का होना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इस सन्दर्भ में यह स्मरण रखना होगा कि प्रत्यक्ष सहयोग का अर्थ स्वयं के कार्यों से अन्य को लाभ पहुंचाना नहीं है। इसका अर्थ निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए मिल-जुलकर प्रयास करना होता है। ऐसा सहयोग सरल समाजों में पाया जाता है।

अप्रत्यक्ष सहयोग

अप्रत्यक्ष सहयोग जटिल समाजों में अधिक पाया जाता है। इसमें उद्देश्यों व लक्ष्यों में तो समानता होती है, परन्तु उसकी प्राप्ति हेतु सभी सदस्य मिलकर एक साथ एक-सा प्रयत्न नहीं करते। सदस्य इन उद्देश्यों व लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अलग-अलग प्रयास करते हैं। वे अलग-अलग साधन भी अपना सकते हैं। अप्रत्यक्ष सहयोग का अर्थ समान उद्देश्यों को पाने के लिए असमान कार्य करने से है। उदाहरण के लिए रेलगाड़ी तैयार करना। अलग-अलग लोग अपनी योग्यता और पद के अनुसार रेलगाड़ी के विभिन्न हिस्से बनाते हैं, लेकिन सभी का एक ही उद्देश्य है कि रेलगाड़ी बन जाए। इस प्रकार वे अप्रत्यक्ष सहयोग से रेलगाड़ी का निर्माण करते हैं। श्रम-विभाजन (Division of labour) अप्रत्यक्ष सहयोग का सर्वोत्तम उदाहरण है। समाज में महत्त्व की दृष्टि से दोनों प्रकार के सहयोग एक समान हैं।

(ब) समाज में संघर्ष

प्रत्येक मनुष्य जैविक, मानसिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भिन्न होता है। अतएव समाज में संघर्ष की उत्पत्ति होती है। समाज में मनुष्य अपनी आवश्यकताओं, उद्देश्यों व लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए संघर्ष का आश्रय लेता है। वस्तुत: जीवन एक संघर्ष है। संघर्ष को भी दो भागों में विभाजित किया जा सकता है

प्रत्यक्ष संघर्ष

प्रत्यक्ष सम्पर्क होने पर विकसित संघर्ष को प्रत्यक्ष संघर्ष कहा जाता है। दो व्यक्तियों या समूहों में संघर्ष (जैसे साम्प्रदायिक दंगे, युद्ध, दो मित्रों में झगड़ा, परिवार के सदस्यों में संघर्ष या पति-पत्नी के मध्य संघर्ष तथा विवाह-विच्छेद आदि) प्रत्यक्ष संघर्ष के उदाहरण हैं।

अप्रत्यक्ष संघर्ष

इसके अन्तर्गत व्यक्ति अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे व्यक्तियों के हितों में बाधा पहुँचाने की चेष्टा करता है। अप्रत्यक्ष संघर्ष में व्यक्ति अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए दूसरों के स्वार्थों का हनन करता है, लेकिन इसमें वह दूसरों से प्रत्यक्ष रूप से परिचित नहीं होता है। सभी प्रकार की प्रतियोगिताएँ अप्रत्यक्ष संघर्ष का उदाहरण हैं। उदाहरण के लिए-साइकिल बनाने वाली दो कम्पनियाँ हैं। हो सकता है कि उनके मालिक व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे को न जानते हों, लेकिन दोनों यह चाहते हैं कि उनका माल बाजार में अधिक बिके तथा इसके लिए वे अनेक प्रयत्न करते हैं। यह अप्रत्यक्ष संघर्ष है। अप्रत्यक्ष संघर्ष का क्षेत्र आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक हो सकता है।

4. समाज में समानता और विभिन्नता

समाज में समानता तथा विभिन्नता पायी जाती है। बाह्य दृष्टिकोण से दोनों परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं, पर वास्तविकता में ये परस्पर पूरक हैं। इन्हीं के द्वारा समाज को स्थायित्व व निरन्तरता प्राप्त होती है। समानता के कारण संस्थाओं का जन्म होता है। विभिन्नता के कारण संस्थाओं में परिवर्तन तथा कार्यों में सुधार होता है।

(अ) समाज में समानता

समाज के निर्माण में सामाजिक सम्बन्धों का अत्यधिक महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। सामाजिक सम्बन्धों के अभाव में समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सम्बन्धों की उत्पत्ति के लिए पारस्परिक चेतना एवं समानता का होना अत्यन्त आवश्यक है। यह समानता शारीरिक अथवा मानसिक रूप में हो सकती है। इसी समानता के कारण चेतना होगी तथा उससे सम्बन्धों का जन्म होगा। किसी निर्जीव वस्तु के साथ व्यक्ति अपना सम्बन्ध स्थापित नहीं कर सकता है। इसका कारण यह है कि दोनों में पारस्परिक चेतना का जन्म नहीं होता, अत: सम्बन्धों की उत्पत्ति नहीं हो पाती है। किन्तु यदि दो मनुष्य हैं व उनमें किसी भी क्षेत्र में समानता पाई जाती है तो उनमें सम्बन्धों का जन्म होगा। गिडिंग्स ने इसे ‘समानता की चेतना’ कहा है। मैकाइवर एवं पेज का विचार है कि यदि हम एक विश्व के सिद्धान्त पर विजय पाना चाहते हैं तो ऐसा तभी सम्भव हो सकता है जब हम समस्त मानव प्रजाति के आधारभूत तत्त्व को समानता की मान्यता प्रदान करें।

(ब) समाज में विभिन्नता

समाज के लिए विभिन्नता भी महत्त्व रखती है। यद्यपि बाहरी रूप से विभिन्नताएँ समानताओं के विपरीत प्रतीत होती हैं, तथापि वास्तविकता में ये उनकी पूरक हैं। यदि समाज के सभी सदस्य जैविक व मानसिक दृष्टिकोण में समान होते, तो मानव व्यवहार यन्त्रवत् हो जाता। ऐसी अवस्था में मानव समाज व पशु समाज के मध्य कोई अन्तर नहीं रह जाता। मैकाइवर एवं पेज का कथन है कि यदि समाज के सदस्य सभी क्षेत्रों में एक-दूसरे के समान होते, तो उनके सम्बन्ध उतने ही सीमित हो जाते जितने कि चींटियों तथा मधुमक्खियों के समाज में पाए जाते हैं। मनुष्य के अनेक सामाजिक उद्देश्य हैं; जैसे- शरीर रक्षा, भोजन प्राप्त करना, सांस्कृतिक कार्य, सामाजिक कार्य आदि। इन लक्ष्यों या उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए भिन्न-भिन्न तरीके या साधन हैं। समाज में इसी कारण व्यक्तियों के विभिन्न पद एवं भूमिकाएँ होती हैं। समाज में अनेक भिन्नताएँ: जैसे पेशे में भिन्नता, व्यापार में भिन्नता, कार्यों में भिन्नता आदि पाई जाती हैं। योग्यता में भिन्नता के कारण ही समाज में व्यक्तियों को उच्च व निम्न स्थान प्रदान किए जाते हैं। ऐसे समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती, जहाँ सिर्फ पुरुष ही पुरुष या स्त्रियाँ ही स्त्रियाँ हैं।

समाज में विद्यमान विभिन्नताओं को निम्नलिखित तीन प्रमुख प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है-

  1. जैविक भिन्नताएँ – इनका उदाहरण शारीरिक संरचनाएँ व यौन भिन्नताएँ हैं।
  2. प्राकृतिक भिन्नताएँ – इसके अन्तर्गत मानसिक भिन्नताओं व कार्यक्षमताओं में अन्तर आदि आते हैं।
  3. सामाजिक तथा सांस्कृतिक भिन्नताएँ – उद्देश्यों, मनोवृत्तियों, प्रथाओं, रहन-सहन, जीवन-पद्धति व रुचियों में भिन्नताएँ सामाजिक-सांस्कृतिक भिन्नताएँ हैं।

5. समाज का आधार अन्योन्याश्रितता है

मनुष्यों की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताओं को जैविक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि उपखण्डों में बाँटा जा सकता है। लेकिन किसी व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं कि वह इन आवश्यकताओं को अपने आप या बिना किसी की सहायता के पूरा कर ले। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उसे दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। मनुष्य की एक प्रमुख आवश्यकता यौन तृप्ति है। इसके लिए स्त्री-पुरुष परस्पर निर्भर होते हैं। बाल्यावस्था में बच्चा अपने पालन-पोषण एवं शिक्षण के लिए परिवार के सदस्यों पर (विशेषकर माता-पिता पर) निर्भर होता है। माता-पिता के वृद्ध होने पर उन्हें सन्तान पर निर्भर होना पड़ता है। दुर्खीम के अनुसार आधुनिक समाजों में व्यक्ति श्रम-विभाजन के कारण एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं।

6. समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है

पारस्परिक सम्बन्धों से ही समाज का जन्म होता है। इन सम्बन्धों की स्थापना के लिए पारस्परिक जागरूकता का होना आवश्यक है। सभी जीवधारियों में जागरूकता पाई जाती है, भले ही जागरूकता की मात्रा कम हो। इसलिए जीवधारियों, चाहे वे पशु हो या कीट-पतंगे हों, में समाज पाया जाता है। मधुमक्खियों, चींटियों तथा दीमकों में समाज पाया जाता है। उनमें श्रम-विभाजन भी पाया जाता है तथा सामाजिक व्यवस्था भी। हाथियों में सुनियोजित सामाजिक व्यवस्था पाई जाती है।

7. निरन्तर परिवर्तनशील

समाज एवं उसमें व्याप्त सम्बन्धों की व्यवस्था स्थिर न होकर परिवर्तनशील है। समाज में समयानुसार निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं। मैकाइवर एवं पेज ने सामाजिक सम्बन्धों की सदैव परिवर्तित होने वाली जटिल व्यवस्था को ही समाज कहा है। इनके शब्दों में, यह सामाजिक सम्बन्धों का जाल है जो सदैव परिवर्तित होता रहता है।

‘समाज’ एवं ‘एक समाज’

सामान्य शब्दों में लोग ‘समाज’ तथा ‘एक समाज’ दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं, किन्तु समाजशास्त्र में इन दोनों शब्दों का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में किया जाता है। दोनों शब्द पर्यायवाची नहीं हैं अपितु दोनों में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। समाज तो सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना या जाल है। क्योंकि सामाजिक सम्बन्ध अमूर्त हैं अत: इन सम्बन्धों के जाल द्वारा निर्मित समाज भी अमूर्त है। ‘समाज’ शब्द का प्रयोग सामान्य अर्थ में किया जाता है, जबकि ‘एक समाज’ शब्द का प्रयोग किसी विशिष्ट समाज के लिए किया जाता है, जिसकी निश्चित भौगोलिक सीमाएँ हैं तथा जो अन्य समाजों से भिन्न है। उदाहरण के लिए भारतीय समाज, अमेरिकी समाज, फ्रांसीसी समाज इत्यादि ‘एक समाज’ के ही उदाहरण हैं।

रयूटर तथा जिन्सबर्ग की एक समाज की परिभाषा से ‘समाज’ एवं ‘एक समाज’ में अन्तर और अधिक स्पष्ट हो जाता है। रयूटर (Reuter) के अनुसार ‘एक समाज’ पुरुषों, स्त्रियों तथा बच्चों का स्थायी तथा निरन्तर चलने वाला समूह है जिसमें लोग स्वतन्त्र रूप से सांस्कृतिक स्तर पर अपनी प्रजाति को जीवित एवं स्थायी रखने में सामर्थ होते हैं। ‘एक समाज’ में मनुष्य अपना सामान्य जीवन व्यतीत करता है।

जिन्सबर्ग (Ginsberg) के अनुसार ‘एक समाज’ व्यक्तियों का वह समूह है जो किन्हीं सम्बन्धों अथवा व्यवहार के तरीकों द्वारा संगठित है और जो उन व्यक्तियों से भिन्न है जो इन सम्बन्धों से नहीं बँधे हैं अथवा जो उनसे भिन्न व्यवहार करते हैं।

सभी ‘एक समाज’ एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। प्रत्येक ‘एक समाज के अपने मूल्य, आदर्श तथा कार्यपद्धति होती है। ‘एक समाज’ का एक और आवश्यक तत्त्व है-निश्चित भू-भाग, जिसके कारण समानता की भावना का जन्म होता है।

‘समाज’ तथा ‘एक समाज’ में निम्नलिखित अन्तर पाए जाते हैं-

  • ‘समाज’ सामाजिक सम्बन्धों का जाल है जिसमें सामाजिक सम्बन्धों की सम्पूर्ण व्यवस्था पाई जाती है, जबकि ‘एक समाज’ व्यक्तियों का समूह है जिसमें सम्बन्ध विशेषीकृत होते हैं।
  • ‘समाज’ सम्बन्धों का जाल होने के कारण अमूर्त है, जबकि ‘एक समाज’ व्यक्तियों का समूह होने के नाते मूर्त है।
  • समाज’ शब्द का प्रयोग विस्तृत क्षेत्र के लिए होता है तथा यह ‘एक समाज’ से जटिल होता है, जबकि ‘एक समाज’ का प्रयोग सीमित क्षेत्र के लिए होता है तथा यह अपेक्षाकृत सरल संगठन होता है।
  • ‘समाज’ के सदस्यों में व्यवहारों, मनोवृत्तियों और क्रियाओं का एक होना आवश्यक नहीं वरन् इनमें भिन्नता पाई जाती है। ‘एक समाज’ के सदस्यों में समानता का कुछ न कुछ सीमा तक होना आवश्यक है, अन्यथा ‘एक समाज’ का अस्तित्व ही नहीं होगा।
  • ‘समाज’ को भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत नहीं बाँधा जा सकता। इसके विपरीत ‘एक समाज’ को भौगोलिक सीमाओं के अन्तर्गत बाँधा जा सकता है।
  • ‘समाज’ बहु-सांस्कृतिक होता है अर्थात् उसमें एक ही समय पर एक से अधिक संस्कृतियाँ विद्यमान होती हैं। इसके विपरीत ‘एक समाज’ में प्रायः एक ही संस्कृति विद्यमान होती है।

FAQs

समाज कैसे बनता है?

समाज उन लोगों के समूहों द्वारा बनाए जाते हैं जो अपने सामान्य हितों को बढ़ावा देने के लिए शामिल होना चाहते हैं । ये हित मनोरंजन, सांस्कृतिक या धर्मार्थ हो सकते हैं। समाज किसी भी उपयोगी उद्देश्य के लिए गठित किए जा सकते हैं लेकिन उन्हें व्यापार या व्यवसाय करने के लिए नहीं बनाया जा सकता है।

समाज की परिभाषा क्या है?

एक समाज निरंतर सामाजिक संपर्क में भाग लेने वाले लोगों का एक समूह है, या एक ही सामाजिक या स्थानिक क्षेत्र पर कब्जा करने वाला एक व्यापक सामाजिक समूह है, जो आम तौर पर एक ही राजनीतिक शक्ति और सांस्कृतिक मानकों से प्रभावित होता है।

सम्बंधित लेख

इसे भी देखे ?

सामान्य अध्यन

वस्तुनिष्ठ सामान्य ज्ञान

  • प्राचीन भारतीय इतिहास
  • मध्यकालीन भारतीय इतिहास
  • आधुनिक भारत का इतिहास
  • भारतीय राजव्यवस्था
  • पर्यावरण सामान्य ज्ञान
  • भारतीय संस्कृति
  • विश्व भूगोल
  • भारत का भूगोल
  • भौतिकी
  • रसायन विज्ञान
  • जीव विज्ञान
  • भारतीय अर्थव्यवस्था
  • खेलकूद सामान्य ज्ञान
  • प्रमुख दिवस
  • विश्व इतिहास
  • बिहार सामान्य ज्ञान
  • छत्तीसगढ़ सामान्य ज्ञान
  • हरियाणा सामान्य ज्ञान
  • झारखंड सामान्य ज्ञान
  • मध्य प्रदेश सामान्य ज्ञान
  • उत्तराखंड सामान्य ज्ञान
  • उत्तर प्रदेश सामान्य ज्ञान

Exam

GS

Current

MCQ

Job

Others

© 2022 Tyari Education.