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संस्कृति क्या है?, अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, प्रकार

संस्कृति में परम्पराओं, जनरीतियों एवं लोकाचारों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इन्हीं सभी से किसी देश की सांस्कृतिक विरासत का पता चलता है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा संस्कृति, परम्पराओं, जनरीतियों एवं लोकाचारों का हस्तान्तरण पीढ़ी-दर-पीढ़ी होता रहता है। प्रस्तुत अध्याय में संस्कृति, परम्परा, जनरीति एवं लोकाचार की अवधारणाओं को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

समाजशास्त्र की शब्दावली में ‘समाज’ की अवधारणा का प्रयोग विशिष्ट अर्थ में किया जाता है। प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति एक जटिल सम्पूर्णता है जिसमें वे सभी ढंग सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते हैं व कार्य करते हैं और वह सब-कुछ जो समाज के सदस्य होने के नाते हम अपने पास रखते हैं। इसके दो पक्ष होते हैं- अभौतिक एवं भौतिक। भौतिक पक्ष को सभ्यता भी कहा जाता है।

संस्कृति क्या है?

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मजूमदार (Majumdar) ने तो संस्कृति को ही मनुष्य का जीवन माना है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति संस्कृति के माध्यम से करते हैं। संस्कृति में धर्म, कला, विज्ञान, विश्वास, रीति-रिवाज, रहन-सहन तथा मानव द्वारा निर्मित सभी वस्तुएँ सम्मिलित की जाती हैं। यही वस्तुएँ उसका सांस्कृतिक पर्यावरण कहलाती हैं। भौगोलिक पर्यावरण के विपरीत सांस्कृतिक पर्यावरण मानव निर्मित होता है। प्रत्येक समाज की अपनी सामूहिक जीवन प्रणाली होती है। उसकी कला, विश्वास, ज्ञान आदि विशेष ढंग के होते हैं जिसे हम सामान्य अर्थों में संस्कृति के अन्तर्गत रख सकते हैं। मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक साधनों का निर्माण किया है।

संस्कृति का अर्थ एवं परिभाषाएँ

‘संस्कृति’ समाजशास्त्र की शब्दावली में प्रयुक्त की जाने वाली एक विशिष्ट अवधारणा है। इस नाते इसका एक सुस्पष्ट अर्थ है, जो इस संकल्पना के दैनिक प्रयोग में लगाए गए अर्थ से भिन्न होता है। रोजमर्रा की बातों अथवा दैनिक प्रयोग में ‘संस्कृति’ शब्द को कला तक सीमित कर दिया जाता है अथवा इसका अर्थ कुछ वर्गों या देशों की जीवन-शैली से लगाया जाता है। कला के रूप में ‘संस्कृति’ शब्द का प्रयोग शास्त्रीय संगीत, नृत्य अथवा चित्रकला में परिष्कृत रुचि का ज्ञान प्राप्त करने के सन्दर्भ में किया जाता है।

यह परिष्कृत रुचि लोगों को असांस्कृतिक अर्थात् आम लोगों से भिन्न करती है। समाजशास्त्र में संस्कृति को व्यक्तियों में विभेद करने वाला साधन नहीं माना जाता, अपितु इसे जीवन जीने का एक तरीका माना जाता है जिसमें समाज के सभी सदस्य भाग लेते हैं।

‘संस्कृति’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है—’सम’ तथा ‘कृति’। ‘सम’ उपसर्ग का अर्थ है ‘अच्छा’ तथा ‘कृति’ शब्द का अर्थ है ‘करना’। इस अर्थ में यह ‘संस्कार’ का समानार्थक है। हिन्दू जीवन में जन्म से मृत्यु तक अनेक संस्कार होते हैं जिससे जीवन परिशुद्ध होता है। व्यक्ति की आन्तरिक व बाह्य क्रियाएँ संस्कारों के अनुसार ही होती हैं। अंग्रेजी का ‘कल्चर’ (Culture) शब्द लैटिन भाषा के ‘Colere’ शब्द से बना है जिसका अर्थ ‘जोतना’ अथवा ‘भूमि पर हल चलाना’ (To cultivate or to till the soil) है।

मध्यकाल में इस शब्द का प्रयोग फसलों के उत्तरोत्तर परिमार्जन (Progressive refinement) के लिए किया जाता था। इसी से खेती करने की कला के लिए ‘कृषि’ (Agriculture) शब्द बना है। परन्तु अठारहवीं तथा उन्नीसवीं शताब्दियों में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तियों के परिमार्जन के लिए भी किया जाने लगा। जो व्यक्ति परिष्कृत अथवा पढ़ा-लिखा था, उसे सुसंस्कृत कहा जाता था।

इस युग में यह शब्द अभिजात वर्गों (Aristocratic classes) के लिए प्रयोग होता था जिन्हें असंस्कृत (Uncultured) जनसाधारण से अलग किया जाता था। जर्मन के ‘कल्चर’ (Kultur) शब्द का प्रयोग आज भी सभ्यता के उच्च शिखर पर पहुँचने के लिए किया जाता है। परन्तु सामाजिक विज्ञानों में यह शब्द इस अर्थ में प्रयोग नहीं किया जाता है।

वस्तुत: संस्कृति एक जटिल अवधारणा है। इसे एक ऐसी व्यवस्था माना जा सकता है जिसमें व्यवहार के ढंग, भौतिक तथा अभौतिक प्रतीक, परम्पराएँ, ज्ञान, विश्वास, अविश्वास आदि सन्निहित होते हैं। संस्कृति सदैव एक ऐसी वस्तु है जिसे अपनाया जा सके, जिसका उपयोग किया जा सके, जिस पर विश्वास हो, जिस पर अनेक व्यक्तियों का अधिकार हो तथा जो अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सम्पूर्ण समूह के जीवन पर निर्भर करती हो।

टॉयलर (Tylor) के अनुसार, “संस्कृति वह जटिल समग्रता है, जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा और ऐसी ही दूसरी क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है, जिसे मानव समाज के सदस्य होने के रूप में प्राप्त करता है।”

बीरस्टीड (Bierstedt) के अनुसार, “संस्कृति एक जटिल सम्पूर्णता है जिसमें वे सभी ढंग सम्मिलित हैं जिन पर हम विचार करते हैं व कार्य करते हैं और वह सब-कुछ जो समाज के सदस्य होने के नाते हम अपने पास रखते हैं।”

मैलिनोव्स्की (Malinowski) के अनुसार, “संस्कृति प्राप्त आवश्यकताओं की एक व्यवस्था और उद्देश्यपूर्ण क्रियाओं की संगठित व्यवस्था है।”

इसी भाँति, मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “संस्कृति हमारे नित्य प्रतिदिन के रहन-सहन, साहित्य, धर्म, कला, मनोरंजन तथा आनन्द में पाए जाने वाले विचारों के ढंग में हमारी प्रकृति की अभिव्यक्ति है।”

क्रोबर एवं क्लूखोन (Kroeber and Kluckhohn) नामक अमेरिकी मानवशास्त्रियों ने संस्कृति की परिभाषा जिन शब्दों द्वारा देने का प्रयास किया उन्हें निम्न प्रकार से सूचीबद्ध किया गया है-

  • संस्कृति सोचने, अनुभव करने तथा विश्वास करने का एक तरीका है।
  • संस्कृति लोगों के जीने का एक सम्पूर्ण तरीका है।
  • संस्कृति व्यवहार का सारांश है।
  • संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है।
  • संस्कृति सीखी हुई चीजों का एक भण्डार है।
  • संस्कृति सामाजिक धरोहर है जो कि व्यक्ति अपने समूह से प्राप्त करता है।
  • संस्कृति बार-बार घट रही समस्याओं के लिए मानकीकृत दिशाओं का एक समुच्चय है।
  • संस्कृति व्यवहार के मानकीय नियमितीकरण हेतु एक साधन है।

उपर्युक्त अर्थों में संस्कृति को उस सामाजिक धरोहर के रूप में स्वीकार करना उचित है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है। यह सीखा हुआ व्यवहार है। जब हम अठारहवीं शताब्दी में लखनऊ की संस्कृति, अतिथि सत्कार की संस्कृति या सामान्यतया प्रयुक्त शब्द ‘पाश्चात्य संस्कृति’ का प्रयोग करते हैं तो हमारा तात्पर्य व्यवहार के मानकीकृत ढंग से ही होता है। व्यवहार के भिन्न ढंग के कारण ही आज भी हम लखनऊ की संस्कृति को अन्य शहरों की संस्कृतियों से भिन्न मानते हैं।

संस्कृति की विभिन्न परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि इसमें दैनिक जीवन में पाई जाने वाली समस्त वस्तुएँ आ जाती हैं। यह अर्जित व्यवहारों की वह व्यवस्था है जिसका प्रयोग विशिष्ट समाज के द्वारा होता है। मनुष्य भौतिक, मानसिक तथा प्राणिशास्त्रीय रूप में जो कुछ पर्यावरण से सीखता है उसी को संस्कृति कहा जाता है। संस्कृति में समस्त रीति-रिवाज, प्रथाएँ, रूढ़ियाँ आदि आ जाती हैं, चाहे वे कल्याणकारी हों अथवा न हो।

संस्कृति के प्रमुख लक्षण

संस्कृति की विभिन्न परिभाषाओं से इसके अनेक लक्षणों अथवा विशेषताओं का भी आभास होता है, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं-

सीखा हुआ व्यवहार

सांस्कृतिक वंशानुक्रमण के आधार पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित नहीं होती, अपितु व्यक्ति समाज में रहकर इसे सीखता है। संस्कृति की अवधारणा सामूहिक अवधारणा है। व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक सीखता रहता है। इस समाजीकरण की प्रक्रिया के मध्य व्यक्ति समाज के धर्म, आचार, कला, परम्पराओं आदि को सीखता है। इसलिए समाजशास्त्रियों ने संस्कृति को सीखा हुआ गुण, व्यवहार या सामाजिक विरासत माना है।

हस्तान्तरणशील

संस्कृति की प्रकृति चाहे भौतिक हो या अभौतिक, दोनों ही प्रकार की संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है। परिवार, विद्यालय इत्यादि संस्कृति को हस्तान्तरित करने के साधन ही हैं।

सामाजिक गुण

संस्कृति सामाजिक गुणों का ही नाम है। संस्कृति में धर्म, प्रथा, कला व साहित्य आदि सामाजिक गुणों का समावेश होता है। अत: संस्कृति को एक सामाजिक घटना कहा जा सकता है। वस्तुतः मनुष्य की उसी उपलब्धि को संस्कृति कहा जाता है जिसमें सम्पूर्ण समाज की भागीदारी होती है। इसीलिए संस्कृति अपने समाज के सदस्यों के व्यवहार को नियन्त्रित करती है तथा उसमें एकरूपता लाती है।

आदर्शात्मक

संस्कृति का निर्माण सामूहिक आदतों एवं व्यवहार करने के तरीकों से होता है। इसमें समूह के आदर्श-नियम मिश्रित रहते हैं। इसी कारण, संस्कृति की प्रकृति आदर्शात्मक हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी संस्कृति के अनुसार व्यवहार करता है।

आवश्यकताओं की पूर्ति

मानव की अनेक जैविक एवं सामाजिक आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताएँ की पूर्ति संस्कृति के माध्यम से ही होती है। इसीलिए मरडॉक (Murdock) ने संस्कृति को प्रसन्नतादायक (Gratifying) कहा है। जब कोई संस्कृति आवश्यकता पूरी करने में असमर्थ हो जाती है तो वह नष्ट हो जाती है।

अनुकूलन की क्षमता

प्रत्येक संस्कृति समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। यह पर्यावरण के साथ अनुकूलन करती है, चाहे पर्यावरण भौगोलिक हो या सामाजिक-सांस्कृतिक। पहले लोग पैदल, फिर बैलगाड़ी पर यात्रा करते थे और उसके स्थान पर आज मोटरकार तथा वायुयान का उपयोग होता है। अन्य शब्दों में, समय के साथ-साथ भौतिक संस्कृति में परिवर्तन होता है और उसके साथ व्यक्ति अनुकूलन कर लेते हैं।

संस्कृतियों में भिन्नता

प्रत्येक समाज की अपनी प्रथाएँ, परम्पराएँ, धर्म, विश्वास, कला व ज्ञान आदि होते हैं। चूँकि प्रत्येक समाज की आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं तथा इन आवश्यकताओं को पूरा करने के ढंग भी अलग-अलग होते हैं, अत: संस्कृतियों में भिन्नता पाई जाती है।

प्रतीकात्मक मनोवैज्ञानिक वास्तविकता

संस्कृति एक मनोवैज्ञानिक तथा प्रतीकात्मक वास्तविकता है। यह केवल अवधारणा-मात्र ही नहीं है। संस्कृति मानव समाज की उपज है और समाज एक मनोवैज्ञानिक यथार्थ है। इसके अतिरिक्त मनुष्य प्रतीकात्मक प्राणी है। उसने विचारों के आदान-प्रदान हेतु विभिन्न प्रतीकों को विकसित किया है।

निरन्तरता एवं ऐतिहासिकता

संस्कृति एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। संस्कृति का आधार आविष्कार एवं मानव-सीख हैं। मनुष्य मृत्यु-पर्यन्त कुछ-न-कुछ सीखता ही रहता है और कोई-न-कोई नया आविष्कार करता रहता है। अत: सांस्कृतिक वृद्धि निरन्तर होती रहती है। इस प्रकार संस्कृति इतिहास की एक वस्तु बन जाती है।

समाजोपरि एवं आधिभौतिक

संस्कृति व्यक्ति से ऊपर है। संस्कृति व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक होती है। यद्यपि स्वयं मानव संस्कृति का निर्माणकर्ता है तथापि निर्मित हो जाने के पश्चात् यह समाज एवं मानव से ऊपर एक आधिभौतिक रूप का विकास कर लेती है। क्रोबर (Kroeber) ने इसे व्यक्ति एवं सावयवों से ऊपर माना है। व्यक्ति संस्कृति के अनुसार व्यवहार करने लगता है। यह कुछ ऐसी विशेषताएँ विकसित कर लेती है कि व्यक्ति मरते रहते हैं, किन्तु इसका नैरन्तर्य बना रहता है।

सार्वभौमिकता एवं मूल्यविहीनता

संस्कृति सार्वभौमिक है। कोई भी मानव-समूह ऐसा नहीं है जिसके पास संस्कृति न हो। साथ ही, संस्कृति में ऊँच-नीच का भेदभाव नहीं किया जाता। जैसी भी किसी मानव समूह की संस्कृति है वह उस समूह की आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। वहाँ रहने वाले व्यक्ति इसे उचित मानते हैं।

संस्कृति के प्रमुख आयाम

संस्कृति के प्रमुख आयाम निम्नलिखित हैं-

संज्ञानात्मक

संज्ञानात्मक आयाम का सन्दर्भ हमारे द्वारा देखे या सुने गए को व्यवहार में लाकर उसे अर्थ प्रदान करने की प्रक्रिया से है। किसी नेता के कार्टून की पहचान करना अथवा अपने मोबाइल फोन की घण्टी को पहचानना इसके उदाहरण हैं। यह आयाम आदर्शात्मक एवं भौतिक आयाम की पहचान करने की तुलना में कठिन होता है। संज्ञान का अर्थ समझ से है। साक्षर समाजों में विचार किताबों तथा दस्तावेजों में दिए होते हैं जो पुस्तकालयों, संस्थाओं या संग्रहालयों में सुरक्षित रखे जाते हैं। निरक्षर समाजों में दन्तकथाएँ या जनश्रुतियाँ याद्दाश्त में रहती हैं तथा मौखिक रूप में हस्तान्तरित की जाती हैं। समकालीन विश्व हमें अत्यधिक रूप से लिखित, श्रव्य एवं दृश्य रिकॉर्ड पर विश्वास करने की छूट देता है।

आदर्शात्मक या मानकीय

आदर्शात्मक आयाम का सम्बन्ध आचरण के नियमों से है। इसमें लोकरीतियाँ, लोकाचार, प्रथाएँ, परिपाटियाँ तथा कानून आदि को सम्मिलित किया जाता है। ये वे मूल्य या नियम हैं जो विभिन्न सन्दर्भो में सामाजिक व्यवहार को दिशा-निर्देश देते हैं। समाजीकरण के परिणामस्वरूप हम प्राय: सामाजिक मानकों का अनुसरण करते हैं क्योंकि हम वैसा करने के आदी होते हैं। सभी सामाजिक मानकों के साथ स्वीकृतियाँ होती हैं जोकि अनुरूपता को बढ़ावा देती हैं। अन्य व्यक्तियों के पत्रों को न खोलना, निधन पर अनुष्ठानों का निष्पादन करना ऐसे ही आचरण के नियम हैं।

भौतिक

भौतिक आयाम में भौतिक साधनों के प्रयोग सम्बन्धी क्रियाकलाप सम्मिलित होते हैं। इसमें औजारों, तकनीकों, यन्त्रों, भवनों तथा यातायात के साधनों के साथ-साथ उत्पादन तथा सम्प्रेक्षण के उपकरण सम्मिलित होते हैं। नगरीय क्षेत्रों में चालित फोन, वादक यन्त्रों, कारों तथा बसों, ए०टी०एम० (स्वतः गणक मशीनों), रेफ्रिजरेटरों तथा संगणकों का दैनिक जीवन में व्यापक प्रयोग तकनीक पर निर्भरता को दर्शाता है। यहाँ तक कि ग्रामीण क्षेत्रों में ट्रांजिस्टर रेडियो का प्रयोग या उत्पादन बढ़ाने के लिए सिंचाई के लिए जमीन के नीचे से पानी ऊपर उठाने के लिए इलैक्ट्रिक मोटर पम्पों का प्रयोग तकनीकी उपकरणों को अपनाए जाने को दर्शाता है। इण्टरनेट पर चैटिंग करना भी इसका उदाहरण है।

संस्कृति के उपर्युक्त तीनों आयामों के समग्र से ही संस्कृति का निर्माण होता है। व्यक्ति अपनी पहचान अपनी संस्कृति से ही करता है तथा संस्कृति के आधार पर ही अपने को अन्य संस्कृतियों के लोगों से अलग समझता है।

संस्कृति के स्वरूप : भौतिक एवं अभौतिक

डब्ल्यू० एफ० ऑगबर्न (W. F. Ogburn) ने संस्कृति को दो प्रमुख भागों में बाँटा है-भौतिक संस्कृति तथा अभौतिक संस्कृति। भौतिक संस्कृति में मानव निर्मित उन सभी मूर्त वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है जिन्हें हम छू सकते हैं, देख सकते हैं और अपनी इन्द्रियों द्वारा महसूस कर सकते हैं। कुर्सी, मेज, भवन, पंखा, मोटरगाड़ी, औजार, वस्त्र, विभिन्न उपकरण आदि सब भौतिक संस्कृति के उदाहरण हैं। इन्हें मानव ने स्वयं निर्मित किया है। भौतिक संस्कृति मूर्त तथा संचयी होने के साथ-साथ उपयोगी भी होती है। इसमें शीघ्रता से परिवर्तन हो जाता है। भौतिक संस्कृति का सम्बन्ध मानव के बाह्य जीवन से है।

अभौतिक संस्कृति में संस्कृति के अभौतिक पक्षों को सम्मिलित किया जाता है। ये अमूर्त होते हैं तथा इस नाते इनकी कोई निश्चित माप-तौल या रंग-रूप नहीं होता। इन्हें केवल महसूस किया जा सकता है, इनका स्पर्श नहीं किया जा सकता। हमारे विश्वास, विचार, व्यवहार करने के ढंग, प्रथा, रीति-रिवाज, कानून, मूल्य, मनोवृत्तियाँ, साहित्य, ज्ञान, कला आदि अभौतिक संस्कृति के ही तत्त्व हैं। अभौतिक संस्कृति अपेक्षाकृत जटिल होती है। उसमें परिवर्तन बहुत कम अथवा धीमी गति से होता है। अभौतिक संस्कृति का सम्बन्ध मानव के आन्तरिक जीवन से है। ऑगबर्न ने भौतिक एवं अभौतिक संस्कृति में पाई जाने वाली विलम्बना को सांस्कृतिक विलम्बना कहा है तथा इसी के आधार पर सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या दी है।

भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति में निम्नलिखित प्रमुख अन्तर पाए जाते हैं-

  • भौतिक संस्कृति मूर्त होती है, जबकि अभौतिक संस्कृति अमूर्त होती है।
  • भौतिक संस्कृति में अभौतिक संस्कृति की अपेक्षा तीव्रता से परिवर्तन होते हैं। अभौतिक संस्कृति अपेक्षाकृत स्थिर होती है और अत्यन्त धीमी गति से परिवर्तित होती है।
  • भौतिक संस्कृति का सम्बन्ध मानव के बाह्य जीवन से है, जबकि अभौतिक संस्कृति मानव के आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित है।
  • भौतिक संस्कृति का माप सम्भव है, जबकि अभौतिक संस्कृति की माप-तौल सम्भव नहीं है।
  • भौतिक संस्कृति का मूल्यांकन इसकी उपयोगिता द्वारा किया जाता है, जबकि अभौतिक संस्कृति का मूल्यांकन उपयोगिता द्वारा नहीं किया जा सकता है।

संस्कृति का सामाजिक जीवन पर प्रभाव

संस्कृति द्वारा जिस पर्यावरण का निर्माण होता है, उसे सांस्कृतिक पर्यावरण कहा जाता है। यह पर्यावरण मानव-निर्मित होता है। इसमें उन वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है जिन्हें मानव ने स्वयं बनाया है। ऐसा नहीं है कि प्राकृतिक पर्यावरण का सामाजिक पर्यावरण से सम्बन्ध ही नहीं है। प्रत्येक समाज में संस्कृति के दोनों अंग (भौतिक एवं अभौतिक) विद्यमान होते हैं। भौतिक और अभौतिक संस्कृति व्यक्ति के जीवन को पूर्ण रूप से नियन्त्रित करती है।

संस्कृति अथवा सांस्कृतिक पर्यावरण के सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभाव निम्न प्रकार हैं-

प्रौद्योगिकीय विकास पर प्रभाव

सांस्कृतिक पर्यावरण प्रौद्योगिक विकास की दिशा तथा गति निर्धारित करता है। वैज्ञानिक आविष्कारों ने व्यक्ति के जीवन को पूर्ण रूप से घेर लिया है। विकसित समाजों में तो इन आविष्कारों की सहायता से सम्पूर्ण मानव जीवन नियन्त्रित होता है। अनुकूल सांस्कृतिक पर्यावरण प्रौद्योगिक विकास में सहायक होता है।

आर्थिक जीवन पर प्रभाव

सांस्कृतिक पर्यावरण व्यक्तियों के आर्थिक विकास में सहायक है। दूसरी ओर, आधुनिक युग में आर्थिक संस्थाएँ भी मानव जीवन को एक सीमा तक प्रभावित करती हैं। मार्क्स, वेब्लन आदि विचारकों का मत है कि आर्थिक संस्थाएँ व्यक्ति को ही नहीं, सम्पूर्ण समाज को प्रभावित करती हैं।

राजनीतिक संगठन तथा संस्थाओं पर प्रभाव

सांस्कृतिक पर्यावरण राजनीतिक संगठन तथा संस्थाओं को भी प्रभावित करता है। किसी देश में किस प्रकार का शासनतन्त्र पाया जाएगा, यह सांस्कृतिक मूल्यों पर निर्भर करता है। दूसरी ओर, राजनीतिक संस्थाएँ भी व्यक्ति के जीवन पर गहरा प्रभाव डालती हैं।

सामाजिक संगठन तथा संस्थाओं पर प्रभाव

सांस्कृतिक पर्यावरण सामाजिक संरचना, संगठन तथा संस्थाओं को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए-परिवार तथा विवाह का क्या रूप होगा, यह सांस्कृतिक मूल्यों और आदर्शों पर आधारित है। इसी कारण परिवार तथा विवाह का स्वरूप प्रत्येक समाज में एक जैसा नहीं है। किस देश में किस तरह की सामाजिक संस्थाएँ पाई जाएँगी, यह सब सांस्कृतिक पर्यावरण पर निर्भर करता है। व्यक्तियों के पदों और कार्यों पर भी सांस्कृतिक पर्यावरण का प्रभाव पड़ता है।

व्यक्तित्व पर प्रभाव

व्यक्तित्व तथा संस्कृति का घनिष्ठ सम्बन्ध है। व्यक्ति का व्यक्तित्व किसी समाज की संस्कृति द्वारा पूर्ण रूप से प्रभावित होता है। व्यक्ति की समाजीकरण की प्रक्रिया में संस्कृति का ही समावेश होता है। व्यक्ति उन्हीं बातों का अनुकरण करता है जो उसके समाज में प्रचलित होती हैं। प्रथाओं, लोकाचारों, परम्पराओं एवं त्योहारों आदि का भी व्यक्ति के जीवन पर प्रभाव पड़ता है।

धार्मिक जीवन पर प्रभाव

सांस्कृतिक पर्यावरण व्यक्तियों के धार्मिक जीवन को भी प्रभावित करता है। धार्मिक संस्थाओं का व्यक्ति के जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। धर्म द्वारा व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन एवं व्यवहार निर्दिष्ट होता है। मैक्स वेबर जैसे विचारकों का कथन है कि धर्म सम्पूर्ण आर्थिक एवं सामाजिक ढाँचे को बनाता है। धर्म स्वयं सांस्कृतिक पर्यावरण पर आधारित है तथा निरन्तर इससे प्रभावित होता रहता है।

समाजीकरण पर प्रभाव

सांस्कृतिक पर्यावरण का व्यक्ति के समाजीकरण पर प्रभाव पड़ता है। जब बच्चा जन्म लेता है तब वह पशु समान होता है। धीरे-धीरे परिवार, पड़ोस, स्कूल आदि से वह सामाजिक गुणों को सीखता है। व्यक्ति का समाजीकरण कैसे होगा यह सांस्कृतिक पर्यावरण की मान्यताओं पर निर्भर करता है। बच्चा निरन्तर समाजीकरण की प्रक्रिया में संस्कृति से प्रभावित होता रहता है। यही कारण है कि एक भारतीय, फ्रांसीसी तथा अमेरिकी बच्चे में अलग-अलग गुण विकसित हुए मिलते हैं। इन तीनों के सामाजिक जीवन में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती है जिसका कारण केवल सांस्कृतिक पर्यावरण ही है।

सभ्यता

सभ्यता का सम्बन्ध संस्कृति के भौतिक पक्ष से होता है। इसके अन्तर्गत वे चीजें आती है जिनका उपयोग करके व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। सभ्यता का सम्बन्ध उन भौतिक साधनों से है जिनमें उपयोगिता का तत्त्व पाया जाता है जैसे कि उद्योग, आवागमन के साधन, मुद्रा इत्यादि। मानव की विविध प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों या माध्यमों को हम सभ्यता कह सकते हैं। मैथ्यू आरनोल्ड, अल्फ्रेड वेबर तथा मैकाइवर आदि विद्वानों ने संस्कृति के भौतिक पक्ष को ही सभ्यता कहा है।

सभ्यता का अर्थ एवं परिभाषाएँ

सभ्यता शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘Civitas’ तथा ‘Civis’ शब्दों से हुई है जिनका अर्थ क्रमश: ‘नगर’ तथा ‘नगर निवासी’ हैं। इस दृष्टि से सभ्यता का अर्थ उन नगरों या नगर निवासियों से है जो एक स्थान पर स्थायी रूप से निवास करते हैं, शिक्षित हैं तथा जिनका व्यवहार जटिल है। अन्य शब्दों में उच्च एवं विकसित संस्कृति को ही सभ्यता कहा जाता है। मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “सभ्यता से हमारा अर्थ उस सम्पूर्ण प्रविधि तथा संगठन से है जिसे कि मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियन्त्रित करने के प्रयत्न से बनाया है।” इसी भाँति, ग्रीन (Green) के अनुसार, “एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती है जब उसके पास एक लिखित भाषा, विज्ञान, दर्शन, अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रम-विभाजन, एक जटिल तकनीकी तथा राजनीतिक पद्धति हो।”

इस प्रकार, कहा जा सकता है कि मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के माध्यम या साधन सभ्यता के परिचायक होते हैं। सभ्यता के अन्तर्गत उन समस्त साधनों को सम्मिलित किया जाता है, जो मानव की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित होते हैं तथा मानवीय जीवन के लिए आवश्यक होते हैं।

सभ्यता के लक्षण

सभ्यता के प्रमुख लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन

आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु मानव द्वारा सभ्यता के विभिन्न साधनों का उपयोग किया जाता है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि सभ्यता मानव की किसी न किसी आवश्यकता की पूर्ति करती है।

परिवर्तनशील

मानव की आवश्यकताओं में वृद्धि के साथ-साथ परिवर्तन होता रहता है। इसके परिणामस्वरूप आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले साधनों में भी परिवर्तन होता जाता है। जैसे पहले ठण्डे पानी के लिए मिट्टी के घड़े का इस्तेमाल होता था परन्तु आजकल कूलर या फ्रिज का इस्तेमाल किया जाता है।

संचरणशील

सभ्यता में उपयोगिता का तत्त्व अधिक मात्रा में होता है। इसी कारण सभ्यता एक स्थान से दूसरे स्थान तक तीव्रता से फैल जाती है। चाहे कोई दवाई हो या उन्नत ढंग का कपड़ा, जैसे ही किसी देश में इसका आविष्कार होता है बहुत कम समय में सम्पूर्ण विश्व में इसका प्रसार हो जाता है।

अग्रसर होना

सभ्यता निरंतर आगे बढ़ती रहती है। अगर यातायात के साधनों को देखें तो पता चलता है कि प्रत्येक आविष्कार से गति की मात्रा बढ़ी है। पहले बैलगाड़ी, फिर मोटर व रेलगाड़ी और आजकल ध्वनि के वेग की गति से भी तेज उड़ने वाले विमानों का आविष्कार हो चुका है।

बाह्य आचरणों से सम्बन्धित

सभ्यता मानव के बाहरी आचरणों से सम्बन्धित होती है। समाज में जो बाहरी आचरण किया जाता है वह सभ्यता का परिचायक माना जाता है। उदाहरणार्थ, हमारे कपड़े हमारी सभ्यता के परिचायक हैं।

प्रविधियों से सम्बन्धित

सभ्यता के अन्तर्गत मानव-जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले उपकरणों का समावेश होता है।

भौतिक स्वरूप

सभ्यता का स्वरूप भौतिक होता है। इसको देखा व स्पर्श किया जा सकता है। इस संसार में जितने भी भौतिक उपकरण एवं साधन है, जोकि हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित हैं, उन्हें हम सभ्यता के अन्तर्गत ही रखते हैं।

साधन है, साध्य नहीं

सभ्यता हमारी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन मात्र है।

संस्कृति एवं सभ्यता में अन्तर

भौतिक संस्कृति को ही क्योंकि सभ्यता कहा जाता है इसलिए सभ्यता और संस्कृति के अन्तर को समझना भी अनिवार्य है।

सभ्यता एवं संस्कृति में पाए जाने वाले अन्तर को निम्नलिखित ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है-

  1. गिलिन एवं गिलिन के मत में, “सभ्यता संस्कृति का अधिक जटिल तथा विकसित रूप है।”
  2. ए० डब्ल्यू० ग्रीन सभ्यता और संस्कृति के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि “एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती है, जब उसके पास लिखित भाषा, विज्ञान, दर्शन, अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रमविभाजन, एक जटिल प्रविधि और राजनीतिक पद्धति हो।’
  3. सभ्यता को कुशलता के आधार पर मापना चाहें तो मापा जा सकता है, परन्तु संस्कृति को नहीं।
  4. सभ्यता को सरलता से समझा जा सकता है, लेकिन संस्कृति को हृदयंगम करना कठिन है।
  5. सभ्यता में फल प्राप्त करने का उद्देश्य होता है, परन्तु संस्कृति में क्रिया ही साध्य है।
  6. संस्कृति का सम्बन्ध आत्मा से है, और सभ्यता का सम्बन्ध शरीर से है।
  7. सभ्यता का पूर्ण रूप से हस्तान्तरण हो सकता है, परन्तु संस्कृति का हस्तान्तरण पूर्ण रूप से नहीं हो सकता।
  8. मैकाइवर एवं पेज के अनुसार, “संस्कृति केवल समान प्रवृत्ति वालों में ही संचारित रहती है। कलाकार की योग्यता के बिना कोई भी कला के गुण की परख नहीं कर सकता, न ही संगीतकार के गुण के बिना ही कोई संगीत का आनन्द ले सकता। सभ्यता सामान्य तौर पर ऐसी माँग नहीं करती। हम उसको उत्पन्न करने वाली सामर्थ्य में हिस्सा लिए बिना ही उसके उत्पादों का आनन्द ले सकते हैं।”
  9. सभ्यता का रूप बाह्य होता है, जबकि संस्कृति का आन्तरिक।
  10. सभ्यता सदा प्रगति करती है, जबकि संस्कृति नहीं करती।

FAQs

संस्कृति एवं सभ्यता में अन्तर?

सभ्यता एवं संस्कृति में पाए जाने वाले अन्तर को निम्नलिखित ढंग से स्पष्ट किया जा सकता है-
  1. गिलिन एवं गिलिन के मत में, “सभ्यता संस्कृति का अधिक जटिल तथा विकसित रूप है।"
  2. ए० डब्ल्यू० ग्रीन सभ्यता और संस्कृति के अन्तर को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि “एक संस्कृति तभी सभ्यता बनती है, जब उसके पास लिखित भाषा, विज्ञान, दर्शन, अत्यधिक विशेषीकरण वाला श्रमविभाजन, एक जटिल प्रविधि और राजनीतिक पद्धति हो।'
  3. सभ्यता को कुशलता के आधार पर मापना चाहें तो मापा जा सकता है, परन्तु संस्कृति को नहीं।
  4. सभ्यता को सरलता से समझा जा सकता है, लेकिन संस्कृति को हृदयंगम करना कठिन है।
  5. सभ्यता में फल प्राप्त करने का उद्देश्य होता है, परन्तु संस्कृति में क्रिया ही साध्य है।
  6. संस्कृति का सम्बन्ध आत्मा से है, और सभ्यता का सम्बन्ध शरीर से है।

सभ्यता का अर्थ एवं परिभाषाएँ?

सभ्यता शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के 'Civitas' तथा 'Civis' शब्दों से हुई है जिनका अर्थ क्रमश: 'नगर' तथा 'नगर निवासी' हैं। इस दृष्टि से सभ्यता का अर्थ उन नगरों या नगर निवासियों से है जो एक स्थान पर स्थायी रूप से निवास करते हैं, शिक्षित हैं तथा जिनका व्यवहार जटिल है। अन्य शब्दों में उच्च एवं विकसित संस्कृति को ही सभ्यता कहा जाता है। मैकाइवर एवं पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “सभ्यता से हमारा अर्थ उस सम्पूर्ण प्रविधि तथा संगठन से है जिसे कि मनुष्य ने अपने जीवन की दशाओं को नियन्त्रित करने के प्रयत्न से बनाया है।"

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