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लौकिकीकरण का अर्थ, परिभाषा, कारण एवं विशेषताएँ

सरकार द्वारा भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित कर दिये जाने से भी लौकिकीकरण की इस प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला। इस प्रकार यह आवष्यक हो जाता है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं तथा भारतीय समाज के नये आधारों को समझने के लिए लौकिक के लौकिकीकरण की प्रक्रिया के अभिप्राय एवं भारतीय समाज पर उसके प्रभाव का मूल्यांकन किया जाये।

भारत एक लौकिक राज्य है तथा भारतीय संविधान में स्पष्ट शब्दों में यह लिखा हुआ है कि सभी धर्मों के लोग एक-समान हैं तथा उन्हें समान अधिकार दिए जाएंगे। धर्म, जाति, लिंग, प्रजाति इत्यादि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। धर्म का अन्य पक्षों, विशेष रूप से राजनीति, से अलग होना लौकिकीकरण कहलाता है। यह परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जिसमें धर्म का महत्त्व कम हो जाता है तथा तार्किक विचारों को प्रमुखता दी जाने लगती है। इस लेख का उद्देश्य भारत में साम्प्रदायिकता एवं क्षेत्रवाद की समस्याओं के विवेचन के साथ-साथ लौकिकीकरण की प्रक्रिया को समझाना भी है।

प्रस्तावना

भारतीय समाज में आज परिवर्तन की जो प्रक्रियाएँ क्रियाषील है, उनमें लौकिकीकरण अथवा धर्मनिरपेक्षीकरण का प्रमुख स्थान है। वास्तविकता यह है कि हमारे समाज में पष्चिमीकरण तथा संस्कृतिकरण के फलस्वरूप जो नवीन दषायें उत्पन्न हुई, उन्हीं के संयुक्त इस प्रक्रिया को जन्म दिया है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद यह प्रक्रिया बहुत तेजी से प्रभाव पूर्ण बनने लगी। तथा यहां न केवल सभी धर्मो को मानने वाले लोगों को सम्मान अधिकार दिये गये बल्कि अनेक नये कानूनों के द्वारा समाज का नये सिरे से पुर्नगठन करना भी प्रारम्भ किया गया।

लौकिकीकरण

लौकिकीकरण अथवा धर्मनिरपेक्षीकरण भी सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। भारत परम्परागत रूप से धर्म की प्रधानता वाला देश है। अंग्रेजी शासनकाल में पश्चिमीकरण एवं आधुनिकीकरण की प्रक्रियाओं के कारण सामाजिक कुरीतियों (जोकि धार्मिक विचारों से सम्बन्धित थीं) जैसे बाल विवाह, सती प्रथा, मानव बलि, कन्या वध, विधवा पुनर्विवाह का निषेध आदि को समाप्त करने के लिए धार्मिक मान्यताओं की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप एक विरोधी आन्दोलन शुरू हुआ। साथ ही राजनीतिक जागरूकता तथा विज्ञान के बढ़ते हुए महत्त्व के कारण भारत में लौकिकीकरण की शुरुआत हुई। यह प्रक्रिया तभी से समाज में निरन्तर होती चली आ रही है। लौकिकीकरण के परिणामस्वरूप तार्किकता तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोणों का विकास होता है।

लौकिकीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ

लौकिकीकरण परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप सभी बातों की व्याख्या धर्म के स्थान पर तार्किकता के आधार पर दी जाने लगती है अर्थात् जिसे लोग पहले धार्मिक मानते थे उसे अब वैसा नहीं समझा जाता। वेब्स्टर अन्तर्राष्ट्रीय शब्दकोश (Webster International Dictionary) में लौकिकवाद की प्रक्रिया का अर्थ इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है-“यह सामाजिक आचारों की एक ऐसी व्यवस्था है जो इस सिद्धान्त पर आधारित है कि आचार सम्बन्धी मापदण्ड तथा व्यवहार विशेष रूप से धर्म से हटकर वर्तमान जीवन तथा सामाजिक कल्याण पर आधारित होने चाहिए।”

श्रीनिवास (Srinivas) के अनुसार, “लौकिकीकरण शब्द में वह बात निहित है कि जिसे पहले धार्मिक माना जाता था वह अब वैसा नहीं माना जाता और इसमें विभेदीकरण की एक प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न पक्ष-आर्थिक, राजनीतिक, वैधानिक तथा नैतिक-एक-दूसरे के मामले में अधिकाधिक सचेत हो जाते हैं। चर्च एवं राज्य में अन्तर तथा धर्मनिरपेक्ष राज्य की भारतीय अवधारणा दोनों में ही ऐसे विभेदीकरण के अस्तित्व की स्वीकृति निहित है।” वाटरहाउस (Waterhouse) के अनुसार, “लौकिकवाद एक विचारधारा है जो जीवन तथा आचार-व्यवहार का एक सिद्धान्त प्रस्तुत करती है, जो धर्म द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त के विरुद्ध है। इसका सार भौतिकवाद है तथा मान्यता यह है कि मानवीय कल्याण को केवल राष्ट्रीय प्रयासों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लौकिकीकरण धर्म के स्थान पर तर्क के आधार पर किसी घटना की व्याख्या करना है तथा इसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न पक्ष एक-दूसरे से अलग हो जाते हैं। तार्किकता के कारण इसमें बुद्धिवाद भी सम्मिलित है। बुद्धिवाद परम्परागत विश्वासों के स्थान पर आधुनिक ज्ञान की स्थापना को प्रोत्साहन देता है।

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार, लौकिकीकरण ‘धार्मिक निरपेक्षता’ है अर्थात् सहअस्तित्ववाद है। एम० एन० राय ने इसे धर्म की दासता से बच निकलने का अवसर बताया है। विलबर्ट ई० मूर ने इसे परम्परागत धर्म का सक्रिय बहिष्कार तथा जीवन में धार्मिक नियन्त्रण का कम होना बताया है।

लौकिकीकरण की प्रमुख विशेषताएँ

लौकिकीकरण के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचारों से इस प्रक्रिया की अनेक विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं जिनमें से प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

परिवर्तन की प्रक्रिया

लौकिकीकरण सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। एम० एन० श्रीनिवास ने लोगों की परम्परागत अभिवृत्तियों, मूल्यों तथा कर्मकाण्डीय व्यवहारों में परिवर्तन आने को ही लौकिकीकरण बताया है।

धार्मिकता का ह्रास

श्रीनिवास द्वारा दी गई लौकिकीकरण की परिभाषा से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस प्रक्रिया में धार्मिक विचारों का ह्रास हो जाता है क्योंकि जिन वस्तुओं की व्याख्या पहले धार्मिक आधार पर की जाती थी अब उन्हें वैसा नहीं माना जाता।

विभेदीकरण की प्रक्रिया

लौकिकीकरण में विभेदीकरण की प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न पक्ष (जैसे आर्थिक, राजनीतिक, वैधानिक एवं नैतिक) एक-दूसरे के मामले में अधिकाधिक सावधान हो जाते हैं। श्रीनिवास के अनुसार धर्मनिरपेक्ष राज्य की भारतीय अवधारणा तथा राज्य एवं चर्च में अन्तर में ऐसे विभेदीकरण के अस्तित्व की स्वीकृति निहित है।

बुद्धिवाद

लौकिकीकरण में बुद्धिवाद अथवा विवेकशीलता को अधिक महत्त्व दिया जाता है। प्रत्येक घटना की व्याख्या तर्क एवं कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर की जाती है। रूढ़ियों और अन्धविश्वासों का स्थान तार्किकता ले लेती है। बुद्धिवाद का लक्ष्य सामाजिक व्यवहारों को तर्क व बुद्धि के सिद्धान्त के अनुसार नियमित करना एवं तर्कहीन बातों को समाप्त करना है।

वैज्ञानिक अवधारणा

लौकिकीकरण एक वैज्ञानिक अवधारणा है क्योंकि इससे केवल धार्मिक विचारों की महत्ता ही कम नहीं होती अपितु वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भी बढ़ावा मिलता है। प्रत्येक वस्तु की व्याख्या धर्म के स्थान पर कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर की जाती है।

व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर बल

लौकिकीकरण में यह मान्यता भी निहित है कि व्यक्ति को आत्मिक स्वतन्त्रता होनी चाहिए अर्थात् उसे किसी भी धर्म को अपनाने की एवं किसी भी धार्मिक संस्था का सदस्य होने की स्वतन्त्रता है तथा राज्य इसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

भारत में लौकिकीकरण तथा सामाजिक परिवर्तन

भारत में लौकिकीकरण की प्रक्रिया का प्रारम्भ पश्चिमीकरण के साथ ही अंग्रेजी शासनकाल में हुआ तथा तभी से यह प्रक्रिया भारतीय समाज एवं संस्कृति को प्रभावित करती आई है। यद्यपि इसका प्रभाव सम्पूर्ण समाज पर पड़ा है फिर भी हिन्दू इससे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं क्योंकि उनमें धर्म की कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं है। लौकिकीकरण की प्रक्रिया उन सम्प्रदायों को सबसे अधिक प्रभावित करती है जो असंगठित हैं तथा जिनमें केन्द्रीय सत्ता का अभाव पाया जाता है। श्रीनिवास के अनुसार इससे सर्वाधिक हिन्दू प्रभावित इसलिए हुए हैं कि उनमें जो पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणाएँ थीं वे बहुत क्षीण हो गईं क्योंकि हिन्दू धर्म का कोई केन्द्रीय एवं देशव्यापी संगठन नहीं है।

लौकिकीकरण द्वारा भारतीय समाज में होने वाले प्रमुख परिवर्तन निम्नलिखित हैं-

1. पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणा में परिवर्तन

हिन्दू धर्म में पवित्रता-अपवित्रता की धारणाओं का विशेष महत्त्व है। उच्च जातियाँ कुछ निम्न जातियों को अपवित्र मानती रही हैं तथा उन्हें दूर रखने के लिए उन पर प्रतिबन्ध लगाती रही हैं। लौकिकीकरण की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पवित्रता एवं अपवित्रता की धारणाएँ प्रभावित हुई हैं। अपवित्रता की भावना की व्यापकता घटी है। श्रीनिवास ने यात्रा और जलपान की दुकानों के उदाहरण देकर पवित्रता के घटते हुए सन्दर्भ का विवरण दिया है। भीड़-भाड़ में, बस या रेल में यात्रा करते समय लोग एक-दूसरे को प्राय: स्पर्श करते हैं (और दूरी बनाए रखना कठिन है) और जलपान करते हुए चाय का कॉफीघरों में परोसने वाले कर्मचारी की जाति पर ध्यान नहीं देते। साथ ही, शाकाहारी और मांसाहारी लोग भी बहुत निकट बैठकर खाना खाते हैं। अत: लौकिकीकरण के परिणामस्वरूप निश्चित रूप से हिन्दुओं में पाई जाने वाली पवित्रता-अपवित्रता की धारणाओं की व्यापकता कम हुई है।

2. जीवन-चक्र और संस्कारों में परिवर्तन

हिन्दुओं को अपने जीवनकाल में अनेक धार्मिक कर्मकाण्ड एवं संस्कार सम्पन्न करने होते हैं। लौकिकीकरण के परिणामस्वरूप कर्मकाण्डों का महत्त्व कम हो गया है और जो संस्कार रह गए हैं उनमें भी संक्षिप्तीकरण एवं साधारणीकरण की प्रवृत्ति शुरू हो गई है। कुछ संस्कार जैसे कि नामकरण, चौल एवं उपकर्म तो अब पूर्णतः समाप्त होते जा रहे हैं। विवाह संस्कार का संक्षिप्तीकरण हो गया है। दैनिक जीवन में संध्या, स्नान, पूजा, वेदपाठ का समय भी कम होता जा रहा है। कर्मकाण्ड, प्रार्थना, उपवास आदि की भी प्रवृत्तियाँ घटती जा रही हैं। पुरोहितों एवं ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा का ह्रास हुआ है और नगरों में धार्मिक समारोहों, त्योहारों, उत्सवों एवं संस्कारों के समय पुरोहितों एवं धार्मिक पुरुषों के स्थान पर नेताओं को आमन्त्रित किया जाने लगा है। एम० एन० श्रीनिवास तथा हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव का कहना है कि तीज-त्योहार और तीर्थ यात्राएँ अनुष्ठानबद्ध कम और मनोरंजनात्मक अधिक होते जा रहे हैं। तीर्थ यात्रा अब केवल धार्मिक भावनाओं के कारण ही नहीं की जाती अपितु देश भ्रमण एवं दर्शनीय स्थानों के दर्शन करने के उद्देश्य से भी की जाती है। दशहरा दीपावली जैसे त्योहार सामूहिक रूप से मनाये जाने लगे हैं। मन्दिर और मठों की सम्पत्ति का प्रयोग जन-कल्याण के लिए किया जाने लगा है। इन धार्मिक संस्थानों की ओर से विद्यालय, अनाथालय एवं अस्पताल आदि खोले जा रहे हैं। अनेक ब्राह्मणों ने अपना परम्परागत व्यवसाय (पुरोहिताई) त्याग कर, नवीन व्यवसायों (यथा प्राध्यापक, डॉक्टर, इन्जीनियर, प्रशासक एवं अन्य प्रतिष्ठाजनक पदों को ग्रहण कर लिया है। कोई सर्वव्यापी संगठन न होने के कारण हिन्दू इससे सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं और समय के अनुसार हिन्दू धर्म की नई व्याख्या दी जाने लगी है।

3. सामाजिक संरचना में परिवर्तन

लौकिकीकरण के कारण भारतीय सामाजिक संरचना में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। श्रीनिवास के अनुसार इससे सामाजिक संरचना के तीनों स्तम्भ-जाति, ग्रामीण समदाय और संयुक्त परिवार-प्रभावित हुए हैं। इन तीनों पर पड़ने वाले प्रमुख प्रभाव इस प्रकार हैं-

  • जाति व्यवस्था पर प्रभाव – जाति व्यवस्था भारतीय समाज की प्रमुख विशेषता रही है। लौकिकीकरण के कारण पवित्रता-अपवित्रता की भावनाओं के ह्रास के कारण जातियों में दूरी कम हुई है। निम्न जातियों पर लगी हुई निर्योग्यताएँ समाप्त हो गई हैं तथा इन विशेष सुविधाओं की उपलब्धि से इन जातियों में आत्म-सम्मान की भावनाएँ विकसित हुई हैं। सभी जातियों को समान अधिकार मिल जाने के कारण ब्राह्मणों की सर्वोच्च स्थिति प्रभावित हुई है। लौकिकीकरण के कारण अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन मिला है तथा जाति एवं व्यवसाय में परम्परागत सम्बन्ध समाप्त हो गया है। अस्पृश्यता समाप्त हो गई है।
  • ग्रामीण समाज पर प्रभाव – लौकिकीकरण ने भारतीय ग्रामीण संरचना को भी काफी सीमा तक प्रभावित किया है। आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तनों के कारण (जोकि काफी सीमा तक लौकिकवाद से जुड़े हुए हैं) ग्रामीण समाज का अधिक प्रभावशाली एकीकरण हुआ है। आवागमन व संचार के साधनों में विकास, सर्वव्यापी वयस्क मताधिकार एवं स्वशासन का प्रारम्भ, अस्पृश्यता का उन्मूलन, शिक्षा की बढ़ती लोकप्रियता तथा सामुदायिक विकास कार्यक्रमों से गाँव वालों की आकांक्षाएँ एवं धारणाएँ बदली हैं। अब ग्रामवासी अच्छा जीवन व्यतीत करने की कामना करने लगे हैं। विभिन्न जातियों के परस्पर सम्बन्धों में परिवर्तन आया है तथा ग्रामवासियों में राजनीतिक जागरूकता बढ़ी है। आज गाँव का वातावरण पहले से कहीं अधिक उन्मुक्त है।
  • संयुक्त परिवार पर प्रभाव – लौकिकीकरण की प्रक्रिया ने संयुक्त परिवार प्रणाली को भी प्रभावित किया है। परिवार के धार्मिक नियन्त्रण में कमी हुई है तथा इससे कर्ता की सत्ता में तथा परिवार की संरचना में परिवर्तन आए हैं। आज संयुक्त परिवारों की अपेक्षा एकाकी परिवारों की संख्या बढ़ती जा रही है तथा इसका एक कारण लौकिकीकरण है जिससे सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा मिला है। ग्रामीण परिवारों की अपेक्षा नगरीय परिवारों का अधिक लौकिकीकरण हुआ है। हरिश्चन्द्र श्रीवास्तव का कहना है कि देहात से अलग होकर शहर में बसने वाले एकाकी परिवार, परम्परागत संयुक्त परिवार के दबाव से मुक्त हो गए हैं।

4. परम्परागत धर्म में परिवर्तन

लौकिकीकरण परम्परागत धर्म में परिवर्तन का भी एक स्रोत है। इससे मठों और मन्दिरों का उपयोग आज जनकल्याण कार्यों के लिए किया जाने लगा है। धर्म की व्याख्या लौकिक तथा तार्किक आधार पर की जाने लगी है जिससे मठाधिपतियों एवं पुरोहितों की स्थिति में परिवर्तन आया है तथा अनेक धार्मिक कुरीतियाँ एवं अन्धविश्वास समाप्त होते जा रहे हैं।

इस प्रकार, लौकिकीकरण ने भारतीय समाज के तीन स्तम्भ-जाति, गाँव तथा संयुक्त परिवार को ही प्रभावित नहीं किया है अपितु, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक, नैतिक एवं मनोरंजनात्मक पक्षों को भी प्रभावित किया है।

भारत में लौकिकीकरण को प्रोत्साहन देने वाले कारक

भारत में लौकिकीकरण की प्रक्रिया को अनेक कारकों ने प्रोत्साहन दिया है जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं

पश्चिमीकरण

भारत में लौकिकीकरण को प्रोत्साहन देने वाला प्रमुख कारक पश्चिमीकरण है। वास्तव में लौकिकीकरण की शुरूआत ही अंग्रेजी शासनकाल में हुई। इस सन्दर्भ में श्रीनिवास का कहना है कि अंग्रेजी शासन अपने साथ भारतीय जीवन और संस्कृति के लौकिकीकरण को प्रोत्साहित करने वाले कारक के रूप में पश्चिमीकरण की प्रक्रिया को भी साथ लाया। अंग्रेजी शासनकाल में तकनीकी के विकास, आवागमन एवं संचार के साधनों में विकास तथा शिक्षा सुविधाओं में वृद्धि से लौकिकीकरण को प्रोत्साहन मिला।

नगरीकरण एवं औद्योगीकरण

भारत में लौकिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने में नगरीकरण एवं औद्योगीकरण का भी विशेष स्थान है। नगरों में लौकिकीकरण इसलिए शीघ्रता से हुआ क्योंकि इन केन्द्रों पर धार्मिक विचारों की महत्ता कम थी तथा विजातीयता के कारण समायोजन क्षमता पहले से ही अधिक थी। अधिकांश उद्योग भी नगरों में ही विकसित हुए जिससे कि विभिन्न जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों के लोगों को एक साथ काम करने का अवसर मिला। औद्योगिक केन्द्रों में ऊँच-नीच की भावनाओं को बनाए रखना सम्भव ही नहीं है साथ ही, औद्योगीकरण से वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टिकोण में भी वृद्धि होती है।

संचार व्यवस्था एवं आवागमन के साधनों का विकास

संचार साधनों के विकास तथा आवागमन के साधनों के विकास से भी लौकिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला है। इनसे विभिन्न जातियों एवं धर्मों के लोगों में परस्पर सम्पर्क बढ़ता है तथा गतिशीलता में वृद्धि होती है। विजातीय लोगों के साथ रहने से तथा इनके साथ अन्तर्कियाओं से दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है और धार्मिक संकीर्णता समाप्त हो जाती है।

आधुनिक शिक्षा

परम्परागत रूप से धर्म की प्रधानता के कारण भारतीय समाज में शिक्षा केवल द्विज जातियों तक ही सीमित थी तथा निम्न जातियों को शिक्षा सुविधाओं से वंचित रखा जाता था। परन्तु आधुनिक शिक्षा के प्रचलन से भारत में लौकिकीकरण को प्रोत्साहन मिला है। अंग्रेजी शासनकाल में आधुनिक (पश्चिमी) शिक्षा प्रणाली की शुरूआत हुई तथा अंग्रेजी भाषा द्वारा भारतीय लोगों को पश्चिमी देशों की प्रमुख विशेषताओं (जैसे समानता, बुद्धिवाद, विवेकशीलता, मानवतावाद, स्वतन्त्रता, भ्रातृत्व आदि) के बारे में पता चला तथा इनका हमारे रूढ़िवादी विचारों पर काफी प्रभाव पड़ा। साथ ही भिन्न जातियों पर लगे शिक्षा प्रतिबन्ध समाप्त हो गए और शिक्षा संस्थाएँ उच्च एवं निम्न जातियों के बच्चों के लिए एक-साथ बैठने और एक-दूसरे से अन्तक्रिया करने के स्थल बन गईं। इसमें पवित्रता-अपवित्रता की धारणाओं में परिवर्तन आया तथा लौकिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला।

धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन

भारतीय समाज में प्रचलित धार्मिक एवं सामाजिक बुराइयों को समाप्त करने के लिए अनेक आन्दोलनों का प्रारम्भ हुआ जिनमें ब्रह्म समाज, आर्य समाज, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण मिशन तथा थियोसोफिकल सोसाइटी आदि प्रमुख हैं। इन आन्दोलनों के परिणामस्वरूप अस्पृश्यता, जाति-पाँति के भेदभाव एवं कट्टरता तथा धार्मिक अन्धविश्वासों की समाप्ति हुई तथा स्वतन्त्रता, समानता एवं भ्रातृत्व के विचारों को प्रोत्साहन मिला। इससे लौकिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिला।

स्वतन्त्रता आन्दोलन

स्वतन्त्रता आन्दोलन ने भी भारतीय जनता में सामाजिक एवं राजनीतिक जागरूकता में वृद्धि करके लौकिकीकरण को प्रोत्साहन दिया है। स्वतन्त्रता आन्दोलन में सभी धर्मों के लोगों ने मिलकर कार्य किया तथा इसी के परिणामस्वरूप स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया तथा समाजवादी समाज की स्थापना का लक्ष्य निर्धारित कर लौकिकीकरण को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है।

सामाजिक विधान

अंग्रेजी शासनकाल में तथा स्वतन्त्र भारत में धार्मिक एवं सामाजिक बुराइयों को दूर करने के लिए जो प्रयास किए गए, उनसे भी लौकिकीकरण को प्रोत्साहन मिला है। इन विधानों से बाल विवाह, सती प्रथा, मानव बलि, विधवा पुनर्विवाह निषेध, अस्पृश्यता आदि ही समाप्त नहीं हुए अपितु स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सभी धर्मों के व्यक्तियों को समान अधिकार दिए गए। अल्पसंख्यक वर्गों को कुछ विशेषाधिकार भी दिए गए। संविधान की दृष्टि से भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य का दर्जा मिलना लौकिकीकरण को बढ़ाने का एक प्रभावशाली प्रयास है। आज भारत में जाति, धर्म, सम्प्रदाय, लिंग, प्रजाति इत्यादि के आधार पर किसी भी नागरिक से भेदभाव नहीं किया जाता जोकि धर्मनिरपेक्ष नीति का ही सूचक है।

हिन्दू धर्म में संगठन तथा केन्द्रीय सत्ता का अभाव

हिन्दू धर्म अन्य धर्मों की अपेक्षा संगठित नहीं है तथा कोई ऐसी केन्द्रीय सत्ता भी नहीं है जोकि सभी हिन्दुओं को संगठित रख सके। वास्तव में, हिन्दू धर्म स्वयं अनेक समूहों, सम्प्रदायों, मठों और उपसंस्कृतियों में विभाजित है। प्रो० श्रीनिवास का कहना है कि लौकिकीकरण की प्रक्रिया हिन्दुओं में केन्द्रीय सत्ता के अभाव के कारण शीघ्रता से विकसित हो गई। पवित्रता-अपवित्रता सम्बन्धी विचारों की महत्ता में कमी तथा धार्मिक सहिष्णुता के कारण लौकिकीकरण को हिन्दुओं को अधिक प्रभावित करने का अवसर मिला है।

राजनीतिक दल

हमारे देश में प्रजातान्त्रिक प्रणाली है तथा बहुदलीय व्यवस्था के कारण विभिन्न राजनीतिक दलों ने लौकिकीकरण लाने में सहायता दी है। कोई भी दल जोकि धार्मिक विचारधारा पर गठित हुआ, अधिक देर तक टिका नहीं रह सका। इसलिए अधिकांश दलों ने धर्मनिरपेक्षता को अपना लक्ष्य स्वीकार किया जिससे अल्पसंख्यक सम्प्रदायों के लोग भी इन दलों का समर्थन कर सकें।

अतः भारत में विविध प्रकार के कारकों ने लौकिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहन देने में सहायता दी है। यह प्रक्रिया आज भी हमारे समाज में चल रही है।

भारतीय समाज में लौकिक राज्य की विशेषताएँ

भारत एक लौकिक राज्य है अथवा नहीं? इस प्रश्न का उत्तर देना एक कठिन कार्य है। जिस प्रकार लौकिकीकरण पश्चिमी समाजों में पाया जाता है ठीक उसी प्रकार का लौकिकीकरण भारतवर्ष में नहीं पाया जाता है, क्योंकि भौतिकवाद तथा धर्म में लौकिकवाद की पृथकता भारतीय परम्परा से मेल नहीं खाती। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन का कहना है कि हमारे वर्तमान संकट का सबसे प्रमुख कारण लौकिकवाद ही है। इस आशापूर्ण विश्व को जिस तत्त्व ने छिन्न-भिन्न किया है वह है भ्रम में डालने वाली मान्यताओं, विश्वासों तथा मूल्यों पर आधारित एक मिथ्या दर्शन का पनपते रहना। कुछ भी हो भारतीय समाज में एक लौकिक राज्य की अनेक विशेषताएँ पाई जाती हैं जिनमें से प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-

भारतीय संविधान सभी धर्मों को एक-समान मानता है

भारत एक लौकिक राज्य है क्योंकि हमारे संविधान में स्पष्ट शब्दों में यह लिखा हुआ है कि सभी धर्मों के लोग एक-समान हैं तथा उन्हें समान अधिकार दिए जाएंगे। धर्म, जाति, लिंग, प्रजाति इत्यादि के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा।

विभेदीकरण

भारत एक लौकिक राज्य इस दृष्टि से भी है कि इसमें आर्थिक, राजनीतिक, कानूनी तथा नैतिक पक्ष एक-दूसरे से पृथक् हैं। चर्च और राज्य में अन्तर तथा धर्मनिरपेक्ष राज्य की भारतीय अवधारणा दोनों ही में ऐसे विभेदीकरण के अस्तित्व की स्वीकृति निहित है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण

आज भारत में औद्योगीकरण, नगरीकरण, पश्चिमीकरण तथा आधुनिकीकरण के परिणामस्वरूप अधिकतर लोगों का दृष्टिकोण तार्किक अथवा वैज्ञानिक होता जा रहा है अर्थात् अब सभी बातों की व्याख्या धर्म के आधार पर न देकर तर्क के आधार पर दी जाने लगी है।

समान वयस्क मताधिकार पर आधारित प्रजातान्त्रिक प्रणाली

भारत में सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले हुए हैं। हर वयस्क व्यक्ति को वोट देने का तथा अपने शासक चुनने का समान अधिकार है। सरकार का संचालन देश के चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं जोकि किसी भी धर्म, जाति, प्रजाति या लिंग के हो सकते हैं।

धार्मिक संस्कारों तथा कर्मकाण्डों के महत्त्व में कमी

भारत एक लौकिक राज्य इस दृष्टि से भी है कि आज परम्परागत अभिवृत्तियों, मूल्यों और कर्मकाण्डीय व्यवहार को अधिक महत्त्व नहीं दिया जाता। उदाहरण के लिए, हिन्दुओं में अड़तालीस संस्कारों का उल्लेख मिलता है जिनका प्रारम्भ गर्भावस्था से ही शुरू हो जाता था परन्तु आज नामकरण, विवाह तथा दाह संस्कार ही प्रमुख संस्कार रह गए हैं। जितने संस्कार बचे भी हैं उनका भी संक्षिप्तीकरण होता जा रहा है।

बुद्धिवाद अथवा विवेकशीलता

लौकिकीकरण का एक मुख्य लक्षण बुद्धिवाद और विवेकशीलता है। भारत में भी आज अन्धविश्वास कम होते जा रहे हैं तथा व्यवहार में विवेकशीलता आती जा रही है। तर्कहीन बातों जैसे कि सती प्रथा इत्यादि की समाप्ति हो गई है।

भारत एक लौकिक राज्य के रूप में

क्या भारत एक लौकिक राज्य है? इस प्रश्न का उत्तर दो विभिन्न स्तरों पर दिया जा सकता है-सैद्धान्तिक स्तर तथा व्यावहारिक स्तर। अगर हम सैद्धान्तिक स्तर की दृष्टि से देखें तो भारतवर्ष निश्चित रूप से एक लौकिक राज्य है क्योंकि भारतीय संविधान भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य मानता है जिसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार मिले हुए हैं तथा धर्म, जाति, प्रजाति, लिंग एवं जन्म के आधार पर (कम से कम सैद्धान्तिक स्तर पर) भेदभाव न करने की बात कही गई है। परन्तु क्या यह सब हमारे देश में व्यावहारिक रूप से सम्भव है? अगर हम भूतकाल के अनुभव को सामने रखें, तो लगता है नहीं, क्योंकि आज भी हमारे देश में लौकिकीकरण के मार्ग में आने वाली अनेक बाधाएँ पाई जाती हैं जो भारत को पूर्णत: लौकिक राज्य नहीं बनने दे रही हैं।

भारतवर्ष में जब तक ये बाधाएँ दूर नहीं हो जाती, तब तक व्यावहारिक रूप से लौकिक राज्य नहीं हो सकता क्योंकि निम्नलिखित बाधाएँ आज भी इस लक्ष्य प्राप्ति को कठिन बनाए हुए हैं-

राज्य तथा धर्म में पूर्ण पृथक्करण असम्भव

आज भी हमारे देश में सरकार अनेक धार्मिक मामलों तथा झगड़ों से अपने आप को दूर नहीं रख सकती है। लौकिक राज्य वह है जिसमें सरकार धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करे। परन्तु आए दिन हमारे देश में इसके विपरीत उदाहरण देखने को मिलते हैं; जैसे मेरठ में गुरुद्वारा और मन्दिर को लेकर सिक्खों और वाल्मीकियों में हुए झगड़े में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। इतना ही नहीं राजनीति भी धर्म से पूर्ण रूप में स्वतन्त्र नहीं है। पंजाब में अकाली दल के भूतपूर्व मुख्यमन्त्री प्रकाशसिंह बादल तथा इसके अध्यक्ष जगदेवसिंह तलवन्डी में पारस्परिक मतभेदों का निबटारा सिक्खों के धार्मिक गुरुओं को करना पड़ा। इस प्रकार आज भी भारत में राज्य तथा धर्म अपने आप को एक-दूसरे से पूर्ण रूप से पृथक् नहीं कर पाए हैं।

साम्प्रदायिक लड़ाई-झगड़े

भारत में अनेक सम्प्रदायों के लोग निवास करते हैं तथा उनमें तनाव तथा आपस में लड़ाई-झगड़ों के उदाहरण अतीत काल से ही मिलते हैं। आज भी साम्प्रदायिक झगड़ों तथा तनाव में कोई विशेष कमी नहीं हुई है जिसके कारण आज भी लौकिकवाद की बात करना कठिन है।

जातिवाद तथा जातीय संगठन

भारत में लौकिकीकरण के मार्ग में आने वाली तीसरी प्रमुख बाधा जातिवाद तथा विभिन्न जातियों में अपने हितों की पूर्ति के लिए बनाए गए संगठन हैं। आज भी हमारी वफादारी देश के प्रति कम है अपने परिवार, नातेदारों तथा जाति-बिरादरी के प्रति अधिक है जिसके कारण लौकिक राज्य का निर्माण नहीं हो पाया है।

राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन तथा भाषाई तनाव

हमारे देश में राज्यों का पुनर्गठन भाषा के आधार पर किया गया है तथा विभिन्न राज्यों के लोगों में अपने प्रदेश की भाषा के प्रति ही प्रेम भाव देखा गया है। यद्यपि देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी है फिर भी दक्षिणी राज्यों में इसका प्रचलन बहुत कम है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि हमारे देश की एक भाषा न होना भी लौकिक राज्य के निर्माण में एक बाधा है।

सरकार की संरक्षण नीति

अगर भारत एक लौकिक राज्य है और सभी सम्प्रदाय एवं जातियों के लोगों को समान अधिकार प्राप्त हैं तो फिर सरकार ने कुछ जातियों अथवा सम्प्रदायों के प्रति आरक्षण की नीति को क्यों अपनाया हुआ है? क्या इससे भेदभाव अथवा लौकिक नीति के विरोध का आभास नहीं होता? वास्तव में चुनाव या नौकरी के समय कुछ जातियों को विशेष आरक्षण देना लौकिक राज्य के सिद्धान्तों के विपरीत है।

क्षेत्रीयता

क्षेत्रीयता अथवा क्षेत्रवाद भी लौकिक राज्य के निर्माण में एक प्रमुख बाधा है। विभिन्न क्षेत्रों के लोगों में अपने क्षेत्र के प्रति तनाव तथा वफादारी पाई जाती है तथा आज भी अनेक राज्यों के विभाजन की बात की जा रही है। आज असम में अन्य राज्यों के नागरिकों के नामों को असम की मतदाता सूचियों से निकालने को लेकर जो आन्दोलन चल रहा है उससे हमें यह पता चलता है कि आज भी भारत एक लौकिक राज्य नहीं है।

सैद्धान्तिक समानता, व्यावहारिक असमानता

वैसे तो सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समान अधिकार प्राप्त हैं परन्तु आज भी सभी पहलुओं में असमानता देखी जा सकती है। कहने को सभी को वयस्क मताधिकार मिले हुए हैं परन्तु देखने में यह आया है कि निम्न जातियों को अपने मताधिकार का प्रयोग करने से रोका जाता है। बूथ (मतदान केन्द्र) पर कब्जा करने के उदाहरण यह सिद्ध करते हैं कि आज भी भारत में लौकिक राज्य की बात करना वास्तविकता की उपेक्षा करना है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संविधान में यद्यपि भारत को एक धर्मनिरपेक्ष अथवा लौकिक राज्य की संज्ञा दी गई है परन्तु व्यावहारिक रूप में अगर हम देखें तो आज भी भारत एक लौकिक राज्य नहीं है। परन्तु इतना जरूर है कि हम निरन्तर लौकिकता की ओर अग्रसर हैं।

FAQs

लौकिकीकरण का अर्थ एवं परिभाषाएँ?

लौकिकीकरण परिवर्तन की वह प्रक्रिया है जिसके परिणामस्वरूप सभी बातों की व्याख्या धर्म के स्थान पर तार्किकता के आधार पर दी जाने लगती है अर्थात् जिसे लोग पहले धार्मिक मानते थे उसे अब वैसा नहीं समझा जाता।

लौकिकीकरण की प्रमुख विशेषताएँ?

लौकिकीकरण के बारे में विभिन्न विद्वानों के विचारों से इस प्रक्रिया की अनेक विशेषताएँ भी स्पष्ट होती हैं जिनमें से प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- परिवर्तन की प्रक्रिया लौकिकीकरण सामाजिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। एम० एन० श्रीनिवास ने लोगों की परम्परागत अभिवृत्तियों, मूल्यों तथा कर्मकाण्डीय व्यवहारों में परिवर्तन आने को ही लौकिकीकरण बताया है। धार्मिकता का ह्रास श्रीनिवास द्वारा दी गई लौकिकीकरण की परिभाषा से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इस प्रक्रिया में धार्मिक विचारों का ह्रास हो जाता है क्योंकि जिन वस्तुओं की व्याख्या पहले धार्मिक आधार पर की जाती थी अब उन्हें वैसा नहीं माना जाता। विभेदीकरण की प्रक्रिया लौकिकीकरण में विभेदीकरण की प्रक्रिया भी निहित है जिसके परिणामस्वरूप समाज के विभिन्न पक्ष (जैसे आर्थिक, राजनीतिक, वैधानिक एवं नैतिक) एक-दूसरे के मामले में अधिकाधिक सावधान हो जाते हैं। श्रीनिवास के अनुसार धर्मनिरपेक्ष राज्य की भारतीय अवधारणा तथा राज्य एवं चर्च में अन्तर में ऐसे विभेदीकरण के अस्तित्व की स्वीकृति निहित है।

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