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मानव एवं पशु समाज की आवश्यकताओं में अंतर

मानव समाज में मानव की मानव के प्रति पारस्परिक चेतना पाई जाती है। इससे वह अपने बारे में ही न सोच कर अपने परिवार, जाति, जनजाति, प्रजाति, प्रदेश तथा देश के बारे में भी चेतना रखता है। ऐसी विशिष्ट चेतना पशु समाज में नहीं पाई जाती है।

मानव एवं पशु समाज

मनुष्य समाज में रहते हैं। परन्तु यह तथ्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है, अपितु पशुओं में भी समाज पाया जाता है। अनगिनत अन्य जीव जैसे चीटियाँ, दीमक, मधुमक्खी, बन्दर, लंगूर आदि में भी समाज पाया जाता है। विकास के जीवशास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार मानव का विकास निम्न जीवधारियों में क्रमिक परिवर्तन से हुआ है। परन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मानव तथा पशु समाज एक ही हैं। मानव और पशु समाज में अत्यधिक अन्तर पाया जाता है। मानव समाज को पशु समाज से भिन्न करने वाला सबसे प्रमुख आधार संस्कृति है। संस्कृति मानव समाज को एक अनुपम समाज बना देती है, जबकि पशु समाज में संस्कृति नहीं पाई जाती।

प्रत्येक समाज को, चाहे वह मानव समाज है या पशु समाज, अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए कुछ अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करनी पड़ती है। आवश्यकता से तात्पर्य समाज के अस्तित्व की अनिवार्य दशाओं से है। समाज को, प्रत्येक वस्तु की भाँति, अपने अस्तित्व के लिए कुछ दशाओं की आवश्यकता होती है।

इन आवश्यकताओं की रूपरेखा किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) ने निम्नलिखित प्रकार से दी है-

1. जनसंख्या का प्रतिपालन

  • (अ) पोषण का प्रबन्ध
  • (ब) क्षति के विरुद्ध संरक्षण तथा
  • (स) नए जीवों का पुनरुत्थान

2. जनसंख्या के बीच कार्य विभाजन

3. समूह का संगठन

  • (अ) सदस्यों के बीच सम्पर्क की प्रेरणा
  • (ब) पारस्परिक सहिष्णुता की प्रेरणा

4. सामाजिक व्यवस्था की निरन्तरता।

पशु समाज

समाज की अनिवार्य सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति समाज द्वारा विभिन्न प्रकार के साधनों का प्रयोग करके की जा सकती है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक प्रतिमान (Social patterns) दो प्रकार से निर्धारित होते हैं- आनुवंशिकता द्वारा, तथा संस्कृति द्वारा। सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अपनाए गए।

इन दोनों प्रतिमानों के आधार पर समाज का वर्गीकरण निम्नलिखित दो प्रमुख श्रेणियों में किया जा सकता है-

  1. जैविक-सामाजिक व्यवस्था, तथा
  2. सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था।

जैविक- सामाजिक व्यवस्था में समाज की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के प्रतिमान आनुवंशिकता (पैतृकता) द्वारा निर्धारित होते हैं। इसे हम मानवविहीन समाज (Manless society) अथवा पशु समाज (Animal society) भी कह सकते हैं।

सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में प्रतिमानों का निर्धारण संस्कृति द्वारा होता है। इसे हम मानव समाज कह सकते हैं। अतः पशु समाज तथा मानव समाज को हम क्रमश: जैविक- सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था कह सकते हैं।

पशु समाज या जैविक-सामाजिक व्यवस्था

जैविक-सामाजिक व्यवस्था अर्थात् मानवविहीन समाज (पशु समाज) में प्रत्येक प्रकार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति आनुवंशिकता (पैतृकता) के आधार पर होती है। मानवविहीन समाज में जैविक- सामाजिक व्यवस्था एक समान नहीं है, अपितु विभिन्न जीवों में इसमें आश्चर्यजनक भिन्नता देखी जा सकती है।

किंग्सले डेविस (Kingsley Davis) ने पशु समाज को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में विभाजित किया है

1. कीड़ों का समाज या कीट-पंतग समाज

कीड़ों के समाज का तात्पर्य चींटी, टिड्डा, पतंगा, दीमक इत्यादि से है। ये सभी जीवधारी वंशानुक्रमण पर आधारित होते हैं। ये प्राणी अपने व्यवहारों में कोई परिवर्तन नहीं कर पाते हैं। एकता की भावना खाद्यपूर्ति तक ही सीमित मानी जाती है। इनमें नर तथा मादा में तथा एक ही योनि के जीवों में शारीरिक भिन्नता स्तनपायी समाज की अपेक्षा अधिक होती है। उदाहरणार्थ-कारबरा चीटियों में रानी चींटी; श्रमिक चीटी की अपेक्षा हजार गुना बड़ी होती है। इनमें संरचनात्मक विशेषीकरण का भी अभाव पाया जाता है। परिवार की सदस्य संख्या हजारों में होती है, जीवन काल अल्पायु होता है, इसलिए समाज में स्थायित्व भी कम होता है। इनमें समझने की शक्ति का अभाव होता है।

2. स्तनधारी समाज

पशुओं में स्तनधारी पशुओं का अलग ही महत्त्व पाया जाता है। स्तनधारी पशु उन्हें कहा जाता है जो स्तनपायी अथात् स्तनपान से बड़े होते हैं। स्तनधारी पशुओं में नर व मादा में विशेष अन्तर नहीं होता है; जैसे—कुत्ता-कुतिया, गाय-भैंस, बिल्ली-बिलाव तथा नर चिम्पैंजी तथा मादा चिम्पैंजी में अन्तर (शारीरिक बनावट की दृष्टि से) बहुत कम पाया जाता है। शारीरिक गठन में सादृश्यता होती है। स्तनधारी पशुओं की बनावट जटिल होती है। ये प्रजनन शक्ति से युक्त होते हैं। कीड़ों के समाज में सभी सदस्य प्रजनन शक्ति से युक्त नहीं होते हैं जो प्रजनन शक्ति से युक्त होते हैं। किन्तु पशुओं में ऐसे कुछ भी होते हैं जो प्रजनन शक्ति से युक्त नहीं होते हैं। स्तनधारी पशुओं का समाज छोटा होता है, क्योंकि वे एक बार में एक या कुछ ही बच्चों को जन्म दे सकते हैं। इसी कारण स्तनधारी समाज में स्थायित्व होता है। पशु सामाजिक सीख अनुभव के आधार पर प्राप्त कर सकते हैं तथा वातावरण के साथ अपना अनुकूलन स्थापित कर सकते हैं। इनके यौन व्यवहार पर मौसम का प्रभाव पड़ता है। यह विशेषता कीड़ों के समाज में नहीं पाई जाती है।

3. नर-वानर समाज

नर-वानर समाज स्तनधारी समाज से उच्च स्तर की अवस्था है। डार्विन (Darvin) ने नर-वानरों में मनुष्य को सम्मिलित किया है। इस वर्ग में लंगूर, चिम्पैंजी, बन्दर, गोरिल्ला आदि को सम्मिलित किया जाता है। इनकी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • ये मानसिक व शारीरिक दृष्टि से विकसित होते हैं। प्राकृतिक परिस्थितियों के अनुकूल भली-भाँति कर लेते हैं। मस्तिष्क विकासशील होने के कारण यौन व्यवहारों पर मौसम का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता। इनके सदस्य आपस में किसी भी मौसम में यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं। ये दूसरों के अनुकरण से नहीं, वरन् प्रेरणाओं में प्रेरित होकर यौन व्यवहार करते हैं। प्राणियों का व्यवहार परिपक्व व व्यवस्थित होता है।
  • बाल्यकाल की अवधि लम्बी होने के कारण मादा पशु एवं बच्चे का सम्पर्क भी स्थायी होता है। प्रजनन कम होता है, जिसके फलस्वरूप परिवार का आकार छोटा होता है।
  • ये परस्पर संचार के लिए आवाज या बोली के माध्यम से, शारीरिक क्रियाओं के माध्यम से, चेहरे के भाव-प्रदर्शन के द्वारा अपनी बात व्यक्त करने का प्रयत्न करते हैं। संचार की प्रक्रिया भाषा से अधिक विकसित रूप में है।
  • इस समाज के प्राणियों में प्रभुत्व की भावना अधिकतर पाई जाती है। जुकरमैन (Zukerman) के अनुसार प्रभुत्व की भावना नर-वानर समाज में पाई जाती है, किन्तु स्तनधारी समाज में इसका अभाव पाया जाता है। प्रत्येक नर-वानर अपने नेता के आदेशों का पालन करता है। आदेशों व आज्ञाओं के उल्लंघन करने पर समाज से निष्कासित कर दिया जाता है।

मानव समाज या सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था

डेविस (Davis) के अनुसार एक जैविक-व्यवस्था के रूप में मानव समाज में नर-वानर समाज की सामान्य विशेषताएँ पाई जाती हैं परन्तु सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था होने के कारण मानव समाज में परिवर्तन, परिवर्द्धन तथा संशोधन सांस्कृतिक स्तर पर होते हैं। वास्तव में, संस्कृति केवल मानव को ही नहीं, अपितु मानव समाज को भी एक अनुपम समाज बना देती है। मनुष्यों का सम्पूर्ण जीवन संस्कृति ही निर्धारित करती है। संस्कृति से ही मनुष्य विवाह तथा यौन सम्बन्ध में, कानून तथा गैर-कानून में, सत्ता तथा प्रभुसत्ता में अन्तर सीखता है। इसीलिए कुछ विद्वानों ने मानव समाज के अध्ययन को संस्कृति का ही अध्ययन बताया है। परन्तु समाजशास्त्री की संस्कृति में रुचि केवल उन्हीं तत्त्वों तक सीमित है जो सामाजिक जीवन से सम्बन्ध रखते हैं, वह केवल वही पहलू चुनता है जो सामाजिक संगठन व सामाजिक व्यवहार से सम्बन्धित हो। एक समाजशास्त्री की सबसे ज्यादा रुचि संस्कृति की उन प्रवृत्तियों से है जो सामाजिक अन्तक्रियाओं, लोकरीतियों, लोकाचारों, कानून, विश्वास तथा विचारों से सम्बन्ध रखती है और ऐसी संस्थाओं से है जो सामाजिक व्यवहार निर्धारित करती है।

मानव समाज की प्रमुख विशेषताएँ

मानव समाज की प्रमुख विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं-

शारीरिक व मानसिक समानता

मानव समाज के सदस्यों में परस्पर अनेक असमानताएँ दिखाई दे सकती हैं। वे काले, गोरे, लम्बे, छोटे, मन्द बुद्धि अथवा तीव्र बुद्धि के हो सकते हैं। परन्तु उन सभी के शरीरों में और उनके अंगों की बनावट में एक विचित्र और अद्वितीय समानता पाई जाती है। इस प्रकार, सभी मनुष्यों में शारीरिक व मानसिक समानता का अद्भुत साम्य होता है।

मानव समाज के पास संस्कृति है

मानव समाज की सबसे बड़ी धरोहर उसकी संस्कृति है। यह संस्कृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है और मनुष्य उसकी निरन्तर रक्षा और संवर्धन करता रहता है जिससे आने वाली पीढ़ियाँ लगातार बहुत कुछ सीखती रहती हैं।

सांस्कृतिक आधार पर आवश्यकताओं की पूर्ति

मानव समाज की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं जैसे सुरक्षा, सन्तानोत्पादन, पालन-पोषण व श्रम-विभाजन आदि। समाज के सदस्य इन आवश्यकताओं की पूर्ति सांस्कृतिक आधार पर करते हैं। पशु समाज में तो इन आवश्यकताओ की पूर्ति का आधार अक्सर जैविक एवं उनका बाहुबल होता है, परन्तु मानव समाज में परम्पराएँ, कानून और संस्कृति इस पूर्ति का आधार बनती है।

मानव समाज में भाषा व संकेत

मानव समाज की सबसे बड़ी उपलब्धि उसकी भाषा है। इसी के सहारे वह एक-दूसरे के साथ अपने विचारों और संदेशों का आदान-प्रदान आसानी से कर लेता है। कुछ ऐसे संकेत और चिह्न भी होते हैं जिनसे वह ऐसा कर सकता है।

सामाजिक मूल्यों की उपस्थिति

सामाजिक मूल्यों का अर्थ ऐसी धारणाएँ एवं विचार हैं जिनसे समाज का व्यवहार नियन्त्रित होता है। दूसरे शब्दों में, समाज के वे स्वीकृत व्यवहार जिन्हें सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है सामाजिक मूल्य कहलाते हैं। मानव समाज में सामाजिक मूल्य पाए जाते हैं। मानव व्यवहार में कुछ बातें कम मान्य और कुछ अधिक मान्य होती हैं परन्तु अधिकांश मानव व्यवहार सामाजिक मूल्यों द्वारा ही संचालित होता है।

धर्म एवं नैतिकता

प्रकृति में स्वतः घटित घटनाओं और परिवर्तनों ने मानव को किसी अलौकिक शक्ति पर विश्वास करना भी सिखाया है। इन्हीं के आधार पर उसने धर्म का निर्माण किया है। इसी प्रकार, धीरे-धीरे कुछ ऐसे विचारों का भी निर्माण हुआ है जिन्हें नैतिकता या नैतिक संहिताओं की संज्ञा दी जाती है यथा प्रेम, दया, सहिष्णुता, त्याग, सहानुभूति आदि। दोनों को मानव समाज की विशेषताएँ माना जाता है।

आदर्शात्मक मापदण्ड

मानव समाज में आदर्शों के आधार पर उचित और अनुचित में भेद किया जाता है। आदर्श एक प्रकार के ऐसे मापदण्ड होते हैं जिनके अनुसार किसी के कार्यों का मूल्यांकन होता है।

यौन सम्बन्धों में स्थायित्व

पशु तथा अन्य समाजों की अपेक्षा मानव समाज में यौन सम्बन्धों में अधिक स्थिरता पाई जाती है। इसका कारण मानव समाज में विवाह की संस्था का प्रचलित होना है। विवाह की संस्था यौन सम्बन्धों को समाज की मान्यताओं के अनुकूल नियन्त्रित करती है।

मानव समाज में गतिशीलता

मानव समाज, पशु समाज की भाँति, स्थिर नहीं है। इसमें परिवर्तनशीलता पाई जाती है। यह समयानुकूल निरन्तर परिवर्तित होता रहता है।

मानव समाज में सहयोग एवं संघर्ष

मानव जीवन एक साथ सहयोग और संघर्ष की भावना से पूरित है। एक ओर, अपने दैनिक कार्यकलापों में मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ सहयोग की भावना से कार्य करता है तो दूसरी ओर, वह उन्हीं के साथ प्रतियोगिता की स्थिति का निर्वाह करते हुए अपने हितों की पूर्ति के लिए संघर्षरत भी रहता है। यह मानव समाज की एक विचित्र स्थिति है।

संस्थाओं एवं संगठनों की उपस्थिति

मानव जीवन की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव समाज में अनेक समितियाँ, संस्थाएँ व संगठन भी पाए जाते हैं। सदस्य इन संगठनों के नियमों के अनुसार आचरण करते हुए अपने लक्ष्यों की प्राप्ति करते हैं। ये संगठन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व अन्य प्रकार के हो सकते हैं।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव समाज की अपनी कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं। यही विशेषताएँ मानव समाज को अनुपम स्वरूप प्रदान करती हैं तथा इसे पशु समाज से भिन्न करती हैं।

पशुओं में समाज पाया जाता है पर संस्कृति नहीं

समाज केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं है। यह अनगिनत अन्य जीवों (जैसे चीटियाँ, दीमक, मधुमक्खियाँ, बन्दर, लंगूर इत्यादि) में भी पाया जाता है। परन्तु मानव समाज एवं पशु समाज में समानता न होकर भिन्नता पाई जाती है। भिन्नता का प्रमुख कारण मानव समाज में संस्कृति का पाया जाना है। संस्कृति केवल मानव को ही नहीं, अपितु मानव समाज को भी एक अनुपम समाज बना देती है। पशुओं में संस्कृति नहीं पाई जाती अतः पशु समाज को संस्कृति-विहीन समाज कहा गया है। ‘पशुओं में समाज पाया जाता है पर संस्कृति नहीं’ यह कथन पूर्णत: तर्कसंगत है। मानव की तरह पशु भी समाज में रहते हैं परन्तु संस्कृति मानव समाज को पशु समाज से भिन्न करती है। इस कथन की पुष्टि हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं

(अ) पशुओं में समाज पाया जाता है

मानव ही अकेला ऐसा प्राणी नहीं है जो समाज का निर्माण करता है। चीटियाँ, दीमक, चिड़ियाँ, बन्दर, लंगूर, मधुमक्खियाँ आदि भी समाज में रहते हैं। इनमें भी ऊँच-नीच की व्यवस्था, श्रम-विभाजन, सहयोग, अपनत्व की भावना, पारस्परिक संचार आदि पाया जाता है। स्तनधारी पशुओं में तो सामाजिक जीवन का स्पष्ट बोध होता है। प्रेम, घृणा, सहानुभूति, विरोध, मित्रता, शत्रुता, सुख-दुःख व सामूहिक एकता आदि इनमें भी पाई जाती है। बिना पूँछ के बन्दर जैसे गोरिल्ला, चिम्पैंजी, ओरगंटन आदि स्तनधारी पशुओं में मानव सामाजिक जीवन के अनेक गुण पाए जाते हैं। परन्तु इनमें ये समस्त गुण आनुवंशिकता द्वारा आते हैं। पशु सभी प्रकार का सामाजिक व्यवहार वंश परम्परा द्वारा सीखते हैं।

पशुओं की मुख्य आवश्यकताओं (जैसे भूख, प्यास, यौन-सन्तुष्टि तथा जीवित रहने के लिए अन्य मूलभूत आवश्यकताएँ) की पूर्ति उनके द्वारा स्वाभाविक रूप से होती है। परन्तु वे यह सब अकेले नहीं कर सकते, बल्कि सामूहिक सम्बन्धों के द्वारा समूह बनाकर करते हैं। सामूहिक प्रयासों द्वारा वे प्राय: अपनी रक्षा और निवास बनाने जैसा कठिन कार्य भी करते हैं जैसे गुफाएँ, बिल, घोंसले आदि बनाना। इस प्रकार, मानव समाज की भाँति पशुओं में भी समाज होता है। समाज के आवश्यक तत्त्व उनमें अधिकांश रूप से मिलते हैं। समान हित वाले पशु एक साथ रहते हैं, किन्तु इनमें सामाजिक सम्बन्ध बहुत सीमित होते हैं। उनका सामाजिक ढाँचा अत्यधिक सरल होता है। पशुओं में समाज पाया जाता है, इस कथन की पुष्टि हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं

1. कीट-पतंग समाज

चींटी, टिडडे, पतंगे, दीमक इत्यादि अनगिनत कीट-पतंग समाज में रहते हैं। इनमें सभी गुण एवं क्षमताएँ आनुवंशिकता के आधार पर होती हैं। इनमें अपने व्यवहार को परिवर्तित करने की क्षमता नहीं होती।

2. स्तनधारी समाज

स्तनपान से बड़े हुए जीवों को स्तनधारी जीव कहा जाता है। गाय, कुत्ता, बिल्ली जैसे अनेक स्तनधारी जीव समाज में रहते हैं। इनमें नर-मादा में शारीरिक अन्तर बहुत कम पाया जाता है। इनकी शारीरिक बनावट भी जटिल होती है।

3. नर-वानर समाज

अनेक उच्च स्तनधारी नर-वानर जैसे लंगूर, चिम्पैंजी, बन्दर, गोरिल्ला इत्यादि में भी समाज पाया जाता है। ये शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से काफी विकसित होते हैं।

(ब) पशुओं में संस्कृति नहीं पाई जाती

पशुओं में समाज पाया जाता है तथा उनमें सामूहिक व सामाजिक भावना तो होती है परन्तु उनमें संस्कृति का अभाव होता है। उनकी सामाजिक व्यवस्था जैविक-सामाजिक व्यवस्था (Bio-social system) होती है। समाज में रहते हुए भी उनमें गुण तथा कार्य करने की क्षमता आदि आनुवंशिकता (पैतृकता) द्वारा निर्धारित होते हैं। पशुओं में संचार और साधारण संकेतों का आदान-प्रदान होता है। परन्तु उनके पास भाषा का अभाव होने के कारण ज्ञान का भी अभाव होता है। भाषा के अभाव से वे परस्पर एक-दूसरे को कुछ सिखा नहीं सकते। अत: उन्हें कोई भी ज्ञान अपने पूर्वजों से विरासत में प्राप्त नहीं होता। प्रत्येक पशु को प्रत्येक बात स्वयं प्रयास से सीखनी पड़ती है।

संस्कृति के अभाव में पशुओं का सम्पूर्ण व्यवहार आनुवंशिकता द्वारा निर्धारित होता है। उदाहरण के लिए पक्षियों में एक-एक तिनका जोड़कर घोंसला (Nest) बनाने की प्रवृत्ति, तथा गाय, बैल, हाथी, शेर इत्यादि अनेक पशुओं में तैरने की क्षमता उन्हें जन्म से ही प्राप्त होती है। पक्षियों को घोंसला बनाना या पशुओं को तैरना सिखाया नहीं जाता है। पशुओं में सम्पूर्ण गुण उनकी मूलप्रवृत्तियों (Instincts) तथा प्रतिवर्त (Reflex) व्यवहार के परिणामरूवरूप होते हैं।

अतः यह कहना पूर्णत: ठीक है कि पशुओं में समाज तो पाया जाता है पर संस्कृति नहीं। मानव और पशु समाज में अन्तर इस बात की भी पुष्टि करता है कि मानव समाज में सभी गुण संस्कृति के कारण ही हैं।

मानव एवं पशु समाज में अन्तर

शरीर विज्ञान के अनुसार मानव और पशु की शारीरिक संरचना में कोई विशेष अन्तर नहीं पाया जाता है। यही कारण है कि औषधि निर्माण के पश्चात् प्रथमत: प्रयोग पशुओं पर ही किए जाते हैं तथा शिक्षा कार्यों हेतु भी प्रयोगशाला में पशु शरीरों की चीर-फाड़ होती है। दोनों की समानता के विषय में किंग्सले डेविस ने कहा है कि एक जैविक-सामाजिक व्यवस्था के रूप में मानव नर-वानरों की साधारण विशेषताओं को उसी तरह प्रदर्शित करता है जिस प्रकार नर-वानर समूह स्तनधारी समाज की सामान्य विशेषताओं को प्रकट करता है। पशुओं में भी मानवों की तरह काम प्रवृत्ति (Sex instinct), प्रजनन क्षमता तथा अन्य सामान्य मूलप्रवृत्तियाँ एक समान पाई जाती हैं। दोनों में सुख-दुःख, काम-क्रोध, आशा-निराशा, भूख-भय आदि मानसिक उद्वेग एक से ही होते हैं। इस तरह, जैविक रूप से दोनों समान हैं। परन्तु दोनों प्रकार के समाजों में अनेक मूलभूत अन्तर पाए जाते हैं। मानव तथा पशु समाज में पाए जाने वाले अन्तर को अग्र दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है

(अ) जैविक या प्राणिशास्त्रीय अन्तर

प्राणिशास्त्रीय आधार पर मनुष्य व पशु के मध्य अधिक अन्तर नहीं है। डार्विन ने इस सन्दर्भ में कहा था कि मानव रूप पशु की विकसित अवस्था है। फिर भी दोनों में निम्नांकित दृष्टियों से अन्तर किया जा सकता है

1. शारीरिक बनावट

मानव के अस्थि-पंजर में एकरूपता पाई जाती है। शरीर पर बाल छोटे-छोटे होते हैं जिससे स्वरक्षा के लिए कृत्रिम साधनों का सहारा लेना पड़ता है। पशुओं के बाल अधिक लम्बे होते हैं व प्रायः बाल कड़े होते हैं। उन्हें रक्षा के लिए कृत्रिम उपायों का सहारा नहीं लेना पड़ता है। मानव के दाँत छोटे, व्यवस्थित व अपेक्षाकृत कम शक्तिशाली होते हैं, पशुओं के दाँत तीखे एवं अधिक शक्तिशाली होते हैं। पशु अपने दाँतों से भी अपनी रक्षा करते हैं।

2. सीधे खड़े होने की क्षमता

मानव में सीधे खड़े होने की क्षमता होती है। परन्तु पशुओं में इसका पूर्ण अभाव पाया जाता है। मनुष्य अपने दोनों हाथों से कार्य कर सकता है। इसके विपरीत, पशु दोनों हाथ व पैरों के बल चलता है। पशु सीधे खड़े नहीं हो सकते। इसलिए पशु मानव से एकदम भिन्न होते हैं। मानव के हाथों में लचीलापन अधिक पाया जाता है।

3. बोलने की क्षमता

मानव विकसित भाषा द्वारा अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है। किन्तु पशुओं में इसका अभाव पाया जाता है। वे अपनी भावनाओं को दूसरों तक संचारित नहीं कर सकते हैं। विकसित मस्तिष्क के अभाव में पशुओं के पास बुद्धि का भी प्राय: अभाव पाया जाता है। बुद्धि विकसित न होने के कारण पशु भाषा का आदान-प्रदान नहीं कर सकते हैं।

4. मानव के पास विकसित मस्तिष्क का होना

मानव के पास अत्यन्त विकसित मस्तिष्क है जो उसे पशुओं से सर्वाधिक पृथक् करता है। इसकी सहायता से मानव ने इस पृथ्वी पर बड़े-बड़े कार्य और अनुसन्धान किए हैं। ऐसा विकसित और जटिल मस्तिष्क पशुओं में उपलब्ध नहीं है।

5. घूम सकने वाले हाथ

मानव की एक अन्य विशेषता उसके चारों ओर घुमाये जा सकने वाले स्वतन्त्र हाथ, अंगुलियाँ तथा अंगूठा है। इनकी सहायता से वह किसी भी कार्य का सम्पादन आसानी से कर सकता है। पशुओं में इस सुविधा का अभाव होता है।

(ब) सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर

समाजशास्त्र के छात्र होने के नाते हमारी मानव तथा पशु समाज के अध्ययन में रुचि, इन दोनों में पाए जाने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तरों के कारण है। इनमें पाए जाने वाले प्रमुख सामाजिक-सांस्कृतिक अन्तर निम्नलिखित हैं-

1. नियमित यौन व्यवहार

मानव समाज में नियमित यौन व्यवहार पाया जाता है। इसका नियमन, प्रथाओं, परम्पराओं, कानून आदि के द्वारा होता है। यौन व्यवहार को नियन्त्रित करने के लिए मानव समाज में विवाह की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। मानव समाज में यौन क्रियाओं के लिए निश्चित समय या ऋतु नहीं होती। पशु समाज में इन विशेषताओं का पूर्ण अभाव पाया जाता है। उनमें यौन सम्बन्ध स्थापित करने के कोई निश्चित नियम नहीं होते। पशु अपनी जाति (Species) के अन्य पशुओं से प्रभुता के आधार पर यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकता है। पशुओं में यौन उत्तेजना की एक निश्चित ऋतु होती है।

2. सांस्कृतिक विरासत

संस्कृति का अर्थ होता है भाषा, प्रथा, ज्ञान, परम्पराएँ, धर्म, कानून आदि। संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार है। मानव समाज में संस्कृति पाई जाती है। यह संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है। इसी कारण संस्कृति सदैव जीवित रहती है। परन्तु पशु समाज में संस्कृति नहीं पाई जाती है।

3. जागरूकता

मानव जीवन का एक निश्चित लक्ष्य होता है। उसे ज्ञात होता है कि उसे क्या करना है, उसके कर्त्तव्य क्या हैं, उसे कब किस प्रकार के अधिकार का प्रयोग करना है? पशुओं में कर्त्तव्यों व अधिकारों का कोई महत्त्व नहीं होता। मानव के विपरीत पशु न तो भविष्य की चिन्ता करते हैं और न वर्तमान के बारे में सोचते हैं।

4. श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण

मानव की आवश्यकताओं की कोई सीमा नहीं है तथा वह इन आवश्यकताओं को अकेले पूरा नहीं कर सकता। इन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए श्रम-विभाजन एवं विशेषीकरण का होना आवश्यक है। पशु समाज में आवश्यकताएँ कम होती हैं तथा ज्ञान का अभाव होता है। अत: उनमें न तो विकसित श्नम-विभाजन होता है और न ही विशेषीकरण।

5. जीवन में जटिलता तथा परिवर्तनशीलता

प्रत्येक मानव एक ही समय में अनेक प्रकार के सम्बन्धों द्वारा अन्य व्यक्तियों से बँधा हुआ होता है। ये सम्बन्ध पारिवारिक, आर्थिक या व्यावसायिक हो सकते हैं। परन्तु पशु समाज में समान सम्बन्ध होते हैं। उनमें जटिलता और परिवर्तनशीलता का अभाव पाया जाता है। किसी भी पशु की भोज्य आदत में परिवर्तन नहीं होता है।

6. सामूहिक निर्णय

मानव समाज में संगठन हेतु एवं सामाजिक व्यवस्था की निरन्तरता के लिए सामूहिक निर्णय पाया जाता है। सामूहिक निर्णय के लिए विचारों का आदान-प्रदान किया जाता है। इसमें सदस्यों के मध्य अन्तक्रिया एवं अन्तर्निर्भरता बढ़ती है। पशु समाज में संघर्ष के समय कुछ सीमा तक सामूहिक निर्णय होता है। परन्तु वे सर्वदा ही सामूहिक निर्णय लें, ऐसा कभी नहीं होता।

7. स्मरण शक्ति

मनुष्य के पास स्मरण शक्ति है। इससे वह अपनी त्रुटियों को सुधार सकता है। परन्तु अधिकांश पशुओं में स्मरण शक्ति का अभाव होता है जिस कारण वे अपनी गलती नहीं सुधार सकते हैं।

8. मानव का विविधतापूर्ण सामाजिक जीवन

मानव का जीवन विविधताओं से इस प्रकार परिपूर्ण है जो पशुओं में देखने को नहीं मिल सकता। इन विविधताओं का आधार जाति, रंग व उसके पृथक् रीति-रिवाज हैं। संसार के प्रत्येक भाग में एक ही तरह के मानव पाए जाने पर भी उनका रहन-सहन, आचार-विचार, प्रथाएँ और संस्कृति विभिन्नता लिए हुए हैं। किन्तु पशुओं के समूह विश्व के सभी भागों में एक ही प्रकार का आचरण करते है।

9. आदर्शात्मक नियन्त्रण

मानव अपने जीवन में उचित व अनुचित में भेद करने के लिए कुछ आदर्शों को अपने सामने रखता है। इन्हीं के अनुसार वह अपने जीवन की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखता है। यह आदर्शात्मक नियन्त्रण उसे अपनी सांस्कृतिक विरासत के रूप में प्राप्त होता है। पशुओं में ऐसी कोई आदर्शात्मक नियन्त्रण की व्यवस्था नहीं होती।

10. मानव समाज में पारस्परिक चेतना

मानव समाज में मानव की मानव के प्रति पारस्परिक चेतना पाई जाती है। इससे वह अपने बारे में ही न सोच कर अपने परिवार, जाति, जनजाति, प्रजाति, प्रदेश तथा देश के बारे में भी चेतना रखता है। ऐसी विशिष्ट चेतना पशु समाज में नहीं पाई जाती है।

उपर्युक्त विवेचना से पशु और मानव समाज में अन्तर स्पष्ट हो जाता है। किन्तु कितना भी और कैसा भी अन्तर दोनों समाजों में क्यों न हो, यह बात नितान्त सत्य है कि दोनों समाजों में चार बातें अवश्य समान होती हैं। ये हैं-भूख, निद्रा, भय और मैथुन। पशु समाज इनकी पूर्ति के लिए आनुवंशिकता द्वारा प्राप्त उपायों का सहारा लेता है, जबकि मानव अपनी संस्कृति द्वारा निर्धारित उपायों द्वारा ही इनकी पूर्ति के लिए अग्रसर होता है।

FAQs

समाज कैसे बनता है?

समाज उन लोगों के समूहों द्वारा बनाए जाते हैं जो अपने सामान्य हितों को बढ़ावा देने के लिए शामिल होना चाहते हैं । ये हित मनोरंजन, सांस्कृतिक या धर्मार्थ हो सकते हैं। समाज किसी भी उपयोगी उद्देश्य के लिए गठित किए जा सकते हैं लेकिन उन्हें व्यापार या व्यवसाय करने के लिए नहीं बनाया जा सकता है।

समाज की परिभाषा क्या है?

एक समाज निरंतर सामाजिक संपर्क में भाग लेने वाले लोगों का एक समूह है, या एक ही सामाजिक या स्थानिक क्षेत्र पर कब्जा करने वाला एक व्यापक सामाजिक समूह है, जो आम तौर पर एक ही राजनीतिक शक्ति और सांस्कृतिक मानकों से प्रभावित होता है।

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