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समुदाय क्या है? समुदाय का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, विशेषताएँ

समुदाय सामान्यतः एक सामान्य, निश्चित और सीमांकित भू-भाग में रहने वाले परिवारों के संग्रह को कहते हैं जो एक साथ रहने के कारण सामाजिक सम्बन्ध विकसित कर लेते हैं। समुदाय, निवास की इकाई ,सामुदायिक संगठन की प्रक्रिया समुदाय के पर्यावरण तथा वहां के लोगों के विभिन्न चरणों तथा निपुणताओं के द्वारा विकास की ओर ले जाने में कार्य करते हैं।

समुदाय का अर्थ एवं परिभाषा

समुदाय शब्द लैटिन भाषा के com और munis शब्दों से बना है। com का अर्थ है together अर्थात् एक साथ या साथ-साथ तथा munis का अर्थ है service अर्थात् सेवा करना।

इस प्रकार समदाय का अर्थ है एक साथ मिल कर सेवा करना । एक साथ मिलकर सेवा करने की प्रवृत्ति का विकास एक निश्चित भू-भाग में रहने से ही सम्भावित होने लगता है। इतने बड़े समाज के प्रत्येक व्यक्ति के साथ रहना अर्थात सबके साथ मिल कर सेवा करना असम्भव है। इसलिये व्यक्ति एक निश्चित भू-क्षेत्र में जब निवास करता है तो धीरे-धीरे अन्य व्यक्तियों से उसके संबंध विकसित होने लगते है।

समुदाय samudai के विस्तृत अर्थ को विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यक्त परिभाषाओं द्वारा समझा जा सकता है-

मैकाइवर के अनुसार

“समुदाय सामाजिक जीवन के उस क्षेत्र को कहते हैं, जिसे सामाजिक सम्बन्धता अथवा सामंजस्य की कुछ मात्रा द्वारा पहचाना जा सके।”

आगबर्न एवं न्यूमेयर के अनुसार

“समुदाय व्यक्तियों का एक समूह है जो एक सामान्य भौगोलिक क्षेत्र में रहना हो, जिसकी गतिविधियों एवं हितों के समान केन्द्र हों तथा जो जीवन के प्रमुख कार्यों में इकट्ठे मिलकर कार्य करते हों।”

बोगार्डस के अनुसार

“समुदाय एक सामाजिक समूह है जिसमें कुछ मात्रा में हम की भावना हो तथा जो एक निश्चित क्षेत्र में रहता हो।”

ऑगबर्न और निमकोंफ के अनुसार

“समुदाय किसी सीमित क्षेत्र के भीतर सामाजिक जीवन का पूर्ण संगठन है।”

एच. टी. मजूमदार के अनुसार

“समुदाय किसी निश्चित भू-क्षेत्र, क्षेत्र की सीमा कुछ भी हो पर रहने वाले व्यक्तियों का समूह है जो सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं।”

डेविस के अनुसार

‘‘समुदाय लघुत्तम प्रादेशिक समूह है जो सामाजिक जीवन के सभी पक्षों को सम्मिलित करता है।”

ग्रीन के अनुसार

“समुदाय व्यक्तियों का समूह है जो समीपस्थ छोटे क्षेत्र में निवास करते हैं तथा सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं।”

जिन्सबर्ग के अनुसार

“समुदाय सामाजिक प्राणियों का एक समूह है जो सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं, जिसमें अनन्त प्रकार के एवं जटिल सम्बनध सम्बन्धित हैं, जो उस सामान्य जीवन के कारण उत्पन्न होते हैं अथवा जो इसका निर्माण करते हैं।”

सदरलैण्ड के अनुसार

“समुदाय एक सामाजिक क्षेत्र है जिस पर रहने वाले लोग समान भाषा का प्रयोग करते हैं, समान रूढ़ियों का पालन करते हैं, न्यूनाधिक समान भावनाएं रखते हैं तथा समान प्रवृत्तियों के अनुसार कार्य करते हैं।”

जी. डी. एच. कोल के अनुसार

“समुदाय से मेरा अभिप्राय सामाजिक जीवन के एक जटिल स्वरुप से है, ऐसे स्वरुप से जिसमें अनेक मानव प्राणी सम्मिलित है, जो सामाजिक सम्बन्धों की परिस्थितियों के अन्तर्गत रहते हैं, जो सामान्य यद्यपि परिवर्तनशील रीतियों, प्रथाओं एवं प्रचलनों द्वारा परस्पर सम्बद्ध हैं तथा कुछ सीमा तक सामान्य सामाजिक उद्देश्यों एवं हितों के प्रति जागरूक हैं।”

विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यक्त उपर्युक्त परिभाषाओं को सरल एवं समझने योग्य बनाने के लिए इन विद्वानों के मतों को दो भागों में बांटकर रख सकते हैं। प्रथम भाग में मैकाइवर ऑगबर्न एवं बोगार्डस जैसे विद्वानों के विचार को सम्मिलित किया जा सकता है जो समुदाय को एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र एवं उस क्षेत्र के सदस्यों के आपसी तालमेल, लगाव एवं हम की भावना से जोड़ते हैं।

दूसरे भाग में आगबर्न और निमकाफ, मजूमदार, ग्रीन, बिन्सबर्ग एवं जी. डी. एस. कोल जैसे विद्वानों के विचारों को सम्मिलित किया जा सकता है जो समुदाय को एक विशेष क्षेत्र के व्यक्तियों के सामाजिक जीवन निर्वाहों, उनकी समान भावनाओं, प्रवत्तियों, प्रथाओं, रीति-रिवाजों एवं प्रचलनों से जोड़ते हैं।

इस प्रकार उपर्युक्त विद्वानों द्वारा व्यक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि समुदाय एक ऐसे क्षेत्र का नाम है जहां के मानव प्राणियों के कार्य, व्यवसाय, संस्कृति एवं सभ्यता में समानता के साथ-साथ उनमें आपसी जिम्मेदारियों को महसूस करने तथा वहन करने की सामूहिक चेतना होती है।

समुदाय की विशेषताएँ

समुदाय की उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर उसकी कुछ मूल विशेषतायें बताई जा सकती हैं जो निम्नलिखित हैं-

1. निश्चित भू-भाग

निश्चित का तात्पर्य यहां उस सीमा एवं घेरे से है जो किसी विशेष सामाजिक-आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं वाले नागरिकों को अपनी परिधि में सम्मिलित करता है। मानव जाति की एक परम्परागत विशेषता रही है कि जब मानव परिवार किसी एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान पर बसने के लिए प्रस्थान करता है तो वह उस स्थान को प्राथमिकता देता है जहां उसके समान सामाजिक-आर्थिक एवं धार्मिक विचारों वाले लोग निवास करते हैं।

इस प्रकार धीरे-धीरे काफी परिवार उस समान विशेषता वाले परिवार के समीप आकर बस जाते हैं। इन सभी एक क्षेत्र में बसे परिवारों की समानता एवं समीपता के आधार पर इसे एक नाम दिया जाता है जो इस पूरे समुदाय क्षेत्र का परिचायक होता है। समुदाय के इस निश्चित भू-भाग में बसने के आधार पर ही उसके प्रशासन एवं सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना निर्धारित की जाती है।

2. व्यक्तियों का समूह

समुदाय व्यक्तियों का ऐसा समूह है जो अपनी सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक समरूपताओं के आधार पर एक निश्चित सीमा में निवास करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि समुदाय में हम मानवीय सदस्यों को सम्मिलित करते है न कि पशु-पक्षियों को।

3. सामुदायिक भावना

सामुदायिक भावना का तात्पर्य यहां सदस्यों के आपसी मेल – मिलाप, पारस्परिक सम्बन्ध से हैं। वैसे तो सम्बन्ध कई प्रकार के होते हैं, लेकिन यहां सदस्यों में एक दसरे की जिम्मेदारी महसूस करने तथा सार्वजनिक व सामुदायिक जिम्मेदारी को महसूस करने तथा निभाने से है। आज बदलते परिवेश में मानव अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं एवं समस्याओं से अधिक जुड़ा हुआ है न कि सामुदायिक से।

प्रारम्भिक काल में व्यक्तियो में एक दूसरे के विकास एवं कल्याण के प्रति अटूट श्रद्धा थी। लोग व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जिम्मेदारियों की अपेक्षा सामुदायिक जिम्मेदारियों को अधिक महत्व देते थे और सामुदायिक जिम्मेदारियों को महसूस करने में अपना सम्मान समझते थे। इस प्रकार समुदाय में हम की भावना व्यापक थी। आज भी ग्रामीण समुदाय के पुराने सदस्य सामुदायिक जिम्मेदारियों को प्राथमिकता देते हैं।

समुदाय में हम’ भावना की व्यापकता का मुख्य कारण उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक समीपता से है। सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक रूप से समीप सदस्यों की समस्याओं एवं आवश्यकताओं में भी एकरूपता होने के कारण लोग एक दूसरे के काफी निकट रहते हैं तथा एक दूसरे पर निर्भर रहते हैं। एक समुदाय का प्रशासन उस समुदाय के सम्पूर्ण सदस्यों द्वारा होता है न कि व्यक्ति विशेष द्वारा।

4. सर्वमान्य नियम

जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है कि प्राथमिक रूप से समुदाय का प्रशासन समुदाय के सदस्यों द्वारा बनाये गये नियमों पर निर्भर होता है। औपचारिक नियमों के अतिरिक्त समुदाय को एक सूत्र में बांधने, समुदाय में नियंत्रण स्थापित करने, सदस्यों को न्याय दिलाने, कमजोर सदस्यों को शोषण से बचाने तथा शोषितों पर नियंत्रण रखने या सामुदायिक व्यवहारों को नियमित करने के लिए प्रत्येक समुदाय अपनी सामुदायिक परिस्थितियों के अनुसार अनौपचारिक नियमों को जन्म देता है। इन निर्धारित नियमों (मूल्यों) का पालन प्रत्येक सामुदायिक सदस्य के लिए आवश्यक होता है। इनका उल्लंघन करने वालों को दण्डित किया जाता है।

5. स्वत: उत्पत्ति

वर्तमान समय में कार्यरत विभिन्न शहरीय आवासीय योजनायें आवास की सुविधा प्रदान कर समुदाय के निर्माण में अवश्य ही सहायक साबित हो रही हैं, लेकिन प्रारम्भिक काल में समुदाय की स्थापना एवं विकास में स्वतः उत्पत्ति की प्रक्रिया अधिक महत्वपूर्ण थी।

मानव अपने समरूप समुदाय की स्थापना स्वयं करता है जैसे-जैसे लोग एक स्थान से दूसरे स्थान पर बसने की आवश्यकता महसूस करते है उनके सामने कुछ प्रश्न जा जाते है जैसे ऐसे समुदाय या स्थान पर अपना निवास स्थान बनाना जो अपनी परिस्थितियों के अनुरूप एवं सुविधाजनक हो। इसलिए सदस्यगण अपनी सुविधानुसार उपयुक्त स्थान का चयन करते हैं। धीरे-धीरे अधिकाधिक सदस्य उस स्थान को प्राथमिकता देने लगते है और वह स्थान समुदाय के रूप में परिवर्तित हो जाता है।

6. विशिष्ट नाम

प्रत्येक समुदाय के स्वतः विकास के पश्चात् उसे एक नाम मिलता है। लुम्ले के अनुसार यह समरूपता का परिचायक है, यह वास्तविकता का बोध कराता है, यह अलग व्यक्तित्व को इंगित करता है, यह बहुधा व्यक्तित्व का वर्णन करता है। कानून की दृष्टि में इसके कोई अधिकार एवं कर्तव्य नहीं होते। इस प्रकार एक समुदाय अपने विशिष्ट नाम से पहचाना जाता है।

7. स्थायित्व

बहुधा एक बार स्थापित समुदाय का संगठन स्थिर होता है। एक स्थिर समुदाय का उजड़ना आसान नहीं होता है। कोई विशेष समुदाय किसी विशेष समस्या के कारण उजड़ता है, अन्यथा स्थापित समुदाय सदा के लिए स्थिर होता

है।

8. समानता

एक समुदाय के सदस्यों के जीवन में समानता पाई जाती है। उनकी भाषा, रीति-रिवाज, रूढ़ियों आदि में भी समानता होती है। सभी सामुदायिक परम्पराएं एवं नियम सदस्यों द्वारा सामुदायिक कल्याण एवं विकास के लिए बनाये जाते है। इसलिए समुदाय में समानता पाया जाना स्वाभाविक है।

समुदाय का आकार

समुदाय के आकार का निर्धारण करना अत्यंत कठिन कार्य है। समुदाय का आकार बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा दोनों प्रकार का भी हो सकता है। बड़े से बड़े समुदाय में एक राष्ट्र को समुदाय की श्रेणी में रखा जा सकता है क्योंकि एक विशेष राष्ट्र के लोगों की एक भाषा एवं संस्कृति होती है जो उस राष्ट्र की विशेषता के अनुसार निर्धारित होती है। एक विशेष राष्ट्र की संस्कृति एवं सभ्यता दूसरे देश की सभ्यता एवं संस्कृति से भिन्न होती है।

समुदाय के और बढ़ते आकार में हम विश्व को भी रख सकते हैं यदि एक दूसरे देश की सामाजिक-आर्थिक दूरी को कम किया जाए। विश्व का भी एक निश्चित भू-भाग है और उनका आपस में ताल-मेल है तथा विश्व का सामाजिक – आर्थिक दूरी को कम किया जाए। तथा विश्व का सामाजिक-आर्थिक विकास विश्व के सदस्यों पर निर्भर है।

छोटे समुदाय के भी अनेक उदाहरण है। राष्ट्र से छोटा यदि एक प्रान्त को देखें तो उसका भी एक निश्चित क्षेत्र है, निवासियों की सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं में एकता हे, सभी नागरिक परस्पर एक दूसरे पर निर्भर होते हैं तथा प्रान्तीय जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों के प्रति जागरूक भी होते हैं। इसी प्रकार एक प्रान्त के अन्तर्गत हम ग्रामीण और शहरीय समुदाय देख सकते हैं।सामान्यतः गांव को समुदाय का एक उपयुक्त उदाहरण माना जाता है।

समुदाय तथा समाज की इकाइयों में अन्तर

समुदाय समाज एक अभिन्न अंग है। स्पष्ट है कि समुदाय समाज का वह विशिष्ट पक्ष है जिसमें समाज के सदस्य विभिन्न समूहों में निवास करते है तथा जीवन निर्वाह करते हैं। अतः कहा जा सकता है कि समुदाय समाज का वह प्राथमिक आधार है। जहां के निवासियों का सम्बन्ध सामाजिक सम्बन्ध की पहचान कराने में सहायक होता है।

समुदाय और समाज में अन्तर

  1. समुदाय और समाज में समानता होते हुए भी उनमें अन्तर पाया जाता है। दोनों में सर्वप्रथम भेद यह है कि समुदाय का एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है, जबकि समाज का कोई निश्चित भौगोलिक क्षेत्र नहीं है जिसके आधार पर समाज की पहचान की जा सके।
  2. प्रत्येक समुदाय को उसकी प्रशासन की सुविधा एवं वहां के निवासियों की सामाजिक-आर्थिक विशेषताओं के कारण एक विशेष नाम दिया जाता है। कभी-कभी यह भी पाया गया है कि किसी समुदाय विशेष का नाम उस भू-क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों के व्यवसाय के आधार पर निर्भर होता है। समाज में ऐसी विशेषता का अभाव पाया जाता है।
  3. समुदाय एक समान सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशेषता वाले हम समूह का नाम है, किन्तु समाज में ऐसी बात नहीं है। समाज का तात्पर्य औपचारिक एवं अनौपचारिक रूप से सम्बन्धित विभिन्न सदस्यों द्वारा अपने जीवन निर्वाह एवं पारस्परिक विकास के लिए स्थापित सम्बन्धों से है।
  4. एक समुदाय विशेष में रहने वाले सदस्यों में सामाजिक दूरी कम होने की सम्भावनायें होती हैं क्योंकि एक समुदाय में सदस्यों के मध्य हम की भावना होती है।
  5. लोग एक दूसरे के समीप आपस में मिलकर विचार-विमर्श करते हैं तथा निर्णय लेते हैं जबकि समाज का आकार बड़ा होने के कारण इन सदस्यों का सम्बन्ध दर का और औपचारिक हो सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि समुदाय में व्यक्तिगत भावना की अपेक्षा हम भावना पायी जाती है जबकि समाज में ऐसा सम्भावित नहीं है।
  6. समुदाय के सदस्यों में सामुदायिक भावना पाई जाती है। इसलिए वहां के लोग अन्य सामुदायिक सदस्यों की जिम्मेदारियों एवं समस्याओं को अपने समस्या मानकर एक दुसरे के साथ सहयोग करते हैं तथा सहायक होते हैं। समाज में ऐसी सम्भावनायें नहीं होती है।
  7. एक समुदाय के सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक विशेषताओं तथा सामुदायिक भू-क्षेत्र का अवलोकन सरल है किन्त पर्ण समाज के सदस्यों के सम्बन्धों का अवलोकन कठिन हैं।

समुदाय और समिति में अंतर

विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाए गए संगठन को समिति कहते हैं। एक समुदाय में कई समितियां हो सकती हैं जैसे – महिला समिति, वृद्ध नागरिक समिति इत्यादि। स्पष्ट है कि समिति इत्यादि। स्पष्ट है कि समिति समुदाय का एक छोटा भाग है।

  1. समुदाय और समिति की अपनी समताओं के अतिरिक्त इनमें अनके विषमतायें भी है। उदाहरणार्थ समुदाय किसी एक निश्चित भू-भाग से संबंधित है जबकि समिति के लिए निश्चित भू-भाग आवश्यक नहीं।
  2. एक समुदाय में रहने वाले सभी सदस्य उस समुदाय के अनौपचारिक सदस्य होते हैं। समिति में सदस्यों का सम्बन्ध औपचारिक होता है। एक समुदाय के सभी सदस्य समिति के सदस्य नहीं हो सकते हैं। केवल ऐच्छिक एवं चयनित सदस्य ही किसी समिति के सदस्य हो सकते हैं।
  3. समुदाय का जन्म स्वतः होता है अर्थात् अपनी इच्छा और मेल-मिलाप को सुविधानुसार लोग एक स्थान पर आकर बसने लगते हैं और वह समुदाय का रूप धारण कर लेता है। समिति सोच विचार कर बनायी जाती हैं। समुदाय के सदस्यगण समुदाय की पुरानी परम्पराओं और सामाजिक मूल्यों के माध्यम से कार्य करते हैं, जबकि समिति के सदस्य समिति के लिये बनाये गये लिखित कानून के अनुसार कार्य करते हैं।
  4. समुदाय में स्थिरता पायी जाती है। इसलिये एक समुदाय अनिश्चित वर्षों तक स्थिर रहता है। समिति किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये बनायी जाती है। उद्देश्य की पूर्ति के पश्चात् इसे भंग कर दिया जाता है।
  5. समुदाय के सदस्यों में अनौपचारिक सम्बन्ध होने के कारण उनका आपस में मेल-मिलाप होता है और किसी प्रकार के निर्णय लेते समय लोग एक-दूसरे के आमने-सामने बैठ निर्णय लेते हैं, जबकि समिति में औपचारिक सम्बन्धों के कारण समिति का निर्णय औपचारिक नियमों के अनुसार ही हो पाता है।

समुदाय और संस्था में अन्तर

जिस प्रकार व्यक्तियों को समाज के साथ तालमेल स्थापित करने, उनके पारस्परिक सामाजिक विकास एवं उनके व्यवहारों को नियमित करने के लिये नियमों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार समुदाय के सदस्यों का आपस में तालमेल स्थापित करने, उनके व्यवहारों को समुदाय के अनुरूप बनाने तथा उनके पारस्परिक सामुदायिक विकास के लिए संस्था नियम बनाती है जिससे सदस्यों का व्यवहार नियंत्रित होता है।

इस प्रकार स्पष्ट हे कि समुदाय के व्यवहारों को नियमित रूप देने के लिये सामुदायिक नियम की आवश्यकता होती है जिसकी रचना संस्था करती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि समुदाय और समिति में घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। लेकिन इसके बावजूद समुदाय और संस्था भी एक दूसरे से भिन्न हैं।

  1. यदि संस्था को नियमों एवं मूल्यों की व्यवस्था कहा जाये तो समुदाय व्यक्तियों का समूह है। अतः समुदाय व्यक्तियों पर आधारित है जबकि संस्था नियमों पर।
  2. संस्था उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए स्वीकृत एक कार्य-विधि का नाम है, जबकि समुदाय एक निश्चित क्षेत्र में रहने वाले सदस्यों के अनौपचारिक सम्बन्धों का नाम है।
  3. संस्था नियम, कानून एवं रीतियों पर आधारित है जबकि समुदाय सदस्यों की हम भावना पर।
  4. इस प्रकार स्पष्ट है कि समुदाय,समाज,समिति,और संस्था में अंतर होने के बावजूद भी ये सभी इकाईयां एक दूसरे से सह-सम्बंधित है।

समुदाय के प्रकार

विभिन्न पहलुओं जैसे आयाम, गतिशीलता, सदस्यों की संख्या एवं जीवन को प्रभावित करने वाले तरीकों इत्यादि के आधार पर विभिन्न विद्वानों ने समुदाय को दो प्रमुख संरचनाओं के अन्तर्गत विभाजित किया है जो इस प्रकार है-

  1. ग्रामीण समुदाय
  2. नगरीय समुदाय

ग्रामीण समुदाय

प्रारम्भिक काल से ही मानव जीवन का निवास स्थान ग्रामीण समुदाय रहा है। धीरे-धीरे एक ऐसा समय आया जब हमारी ग्रामीण जनसंख्या चरमोत्कर्ष पर पहुंच गयी। आज औद्योगिकीकरण, शहरीकरण का प्रभाव मानव को शहर की तरफ प्रोत्साहित तो कर रहा है लेकिन आज भी शहरीय दूषित वातावरण से प्रभावित लोग ग्रामीण पवित्रता एवं शुद्धता को देख ग्रामीण समुदाय में बसने के लिए प्रोत्साहित हो रहे है।

आज ग्रामीण समुदाय के बदलते परिवेश में ग्रामीण समुदाय की परिभाषित करना कठिन है। ग्रामीण समुदाय की कुछ प्राचीन प्रचलित विशेषतायें जैसे कृषि का मुख्य व्यवसाय होना, हम भावना, साधारण जीवन स्तर आदि सार्वभौमिक थीं, लेकिन आज औद्योगिकीकरण, बढ़ती हुई जनसंख्या एवं ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का प्रभाव ग्रामीण समुदायों में कुछ आश्चर्यजनक परिवर्तन ले आया है। इसलिये ग्रामीण जीवन शहरी जीवन के समीप आता दिखाई दे रहा है। अतः शहरी समुदाय से भिन्न ग्रामीण समुदाय को परिभाषित करना कठिन है।

ग्रामीण समुदाय का अर्थ

विभिन्न विद्वानों द्वारा ग्रामीण समुदाय की कुछ परिभाषायें निम्नलिखित है-

एन. एल. सिम्स के अनुसार

“समाजशास्त्रियों में ग्रामीण समुदाय शब्द की कुछ ऐसे विस्तृत क्षेत्रों तक सीमित कर देने की बढ़ती हुई प्रवृत्ति है जिनमें कि सब या अधिकतर मानवीय स्वार्थों की पूर्ति होती है।”

स्पष्ट है कि आप ग्रामीण समुदाय को अधिकाधिक मानवीय स्वार्थों की पूर्ति का विस्तृत क्षेत्र मानते हैं।

मेरिल और एलरिज के अनुसार

“ग्रामीण समुदाय के अन्तर्गत संस्थाओं और ऐसे व्यक्तियों का संकलन होता है, जो छोटे से केन्द्र के चारों और संगठित होते हैं तथा सामान्य प्राकृतिक हितों में भाग लते हैं।”

आप ने अपनी परिभाषा में ग्रामीण समुदाय को संस्थाओं और व्यक्तियों का संकलन माना है जो प्राकृतिक हितों में भाग लेते हैं।

इन उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि ग्रामीण समुदाय एक ऐसे भू-क्षेत्र का नाम है, जहाँ के व्यक्तियों का जीवन कृषि एवं सम्बन्धित कार्य पर निर्भर है और उनमें एक-दूसरे के प्रति कुछ अधिक लगाव, नजदीक का सम्बन्ध तथा उन का जीवन सामाजिक मूल्यों एवं संस्थाओं में प्रभावित होता है।

ग्रामीण समुदाय की विशेषतायें

ग्रामीण समुदाय की कुछ ऐसी विशेषतायें होती है जो अन्य समुदायों में नहीं पयी जाती हैं। ग्रामीण समुदाय में पाये जाने वाला प्रतिमान एक विशेष प्रकार का होता है जो आज भी कुछ सीमा तक नगर समुदाय से भिन्न है। ग्रामीण समुदाय की विशेषताओं में निम्नलिखित प्रमुख हैं –

1. कृषि व्यवसाय

ग्रामीण अंचल में रहने वाले अधिकाधिक ग्रामवासियों का खेती योग्य जमीन पर स्वामित्व होता है, खेती करना और कराना उन्हें उनके परिवार के वयोवृद्ध सदस्यों द्वारा प्राप्त होता है। धीरे-धीरे आज सरकार के बढ़ते कृषि विकास कार्यक्रम एवं उपलब्ध आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों के फलस्वरूप उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। यद्यपि एक ग्रामीण क्षेत्र में कुछ ऐसे भी परिवार होते हैं जिनके पास खेती योग्य जमीन नहीं होती।

वे लोहारी, सोनारी जैसे छोटे-छोटे उद्योग धन्धों में लगे रहते हैं। लेकिन उनके भी दिल में कृषि के प्रति लगाव होता है। कृषकों को वे बराबर सम्मानित करते हैं तथ महससू करते है कि काश उनके पास भी खेती योग्य जमीन होती। इस प्रकार स्पष्ट है कि उनमें भूमि के प्रति अटूट श्रद्धा होती है। कुछ गरीब और कृषि योग्य जमीन न रखने वाले ग्रामीण वासियों का भी जीवन कृषि कार्य से जुड़ा होता है अर्थात् उनका जीवन भी कृषि कार्य पर निर्भर होता है।

2. प्राकृतिक निकटता

जैसा कि हम पहले ही चर्चा कर चुके है कि ग्रामवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि एवं उससे सम्बन्धित कार्य होता है। सभी जानते हैं कि खेती का सीधा सम्बन्ध प्रकृति से है। स्पष्ट है कि ग्रामीण जीवन प्रकृति पर आश्रित रहता है।

इसीलिए मैक्समूलन ने लिखा है – यही कारण है कि भारत वर्ष में, जो कि गांवों का देश है, सूर्य, चन्द्र वरूण, गंगा आदि भी देवी-देवताओं के रूप में पूजे जाते हैं। स्पष्ट है कि ग्रामीण नागरिक प्रकृति के भयंकर एवं कोमल रूप से पूर्ण परिचित होता है और उसके रमणीक रूप की आकांक्षा करता है।

3. जातिवाद एवं धर्म का अधिक महत्व

रूढ़िवादिता एवं परम्परावाद ग्रामीण जीवन के मूल समाजशास्त्रीय लक्ष्य है। फलस्वरूप आज भी हमारे ग्रामीण समुदाय में अधिकाधिक लोगों की जाति वाद, धर्मवाद में अटूट श्रद्धा है। देखा जाता है कि ग्रामीण निवासी अपने-अपने धर्म एवं जाति के बड़प्पन में ही अपना सम्मान समझते हैं। ग्रामीण समुदाय में जातीयता पर ही पंचायतों का निर्माण होता है। ग्रामीण समाज में छुआ-छूत व संकीर्णता पर विशेष बल दिया जाता है। इसी प्रकार उनको विश्वास होता है कि पण्य कार्यों के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति होती है और स्वर्ग की उपलब्धि भी उसी पर निर्भर है। स्वर्ग व नरक की भावना से ही व्यक्ति पापों से दूर रहता है।

4. सरल और सादा जीवन

ग्रामीण समुदाय के अधिकाधिक सदस्यों का जीवन सरल एवं सामान्य होता है। इनके ऊपर शहरीय चमक-दमक का प्रभाव कम होता है। उनका जीवन कृत्रिमता से दूर सादगी में रमा होता है। उनका भोजन, खान-पान एवं रहन-सहन सादा एवं शुद्ध होता है। गांव का शिष्टाचार, आचार-विचार एवं व्यवहार सरल एवं वास्तविक होता है तथा

अतिथि के प्रति अटूट श्रद्धा एवं लगाव होती है।

5. संयुक्त परिवार

ग्रामीण समुदाय में संयुक्त परिवार का अपना विशेष महत्व है। इसीलिए ग्रामीण लोग पारिवारिक सम्मान के विषय में सर्वदा सजग रहते हैं। परिवार को टूटने से बचाना तथा पारिवारिक समस्याओं को अन्य परिवारों से गोपनीय रख निपटाने का वे भरसक प्रयास करते हैं।

पारिवारिक विघटन का सम्बन्ध उनकी सामाजिक परिस्थिति एवं सम्मान से जुड़ा होता है। इसलिये परिवार का मुखिया एवं बड़े-बूढ़े सदस्य इसे अपना सम्मान समझ कर परिवार की एकता को बनाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं।

6. सामाजिक जीवन में समीपता

वास्तव में ग्रामीण जीवन में अत्यधिक समीपता पाई जाती है। अधिकाधिक ग्रामीण समुदायों में केवल व्यवसायिक समीपता ही नहीं, अपितु उनके सामाजिक आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन में अत्यधिक समीपता पाई जाती है। इस समीपता का मुख्य कारण कृषि एवं उससे सम्बन्धित व्यवसाय है।

यदि कृषि को ग्रामीण समुदाय की धुरी माना जाय तो गलत न होगा जो कि सम्पूर्ण ग्रामीण परिवार को एक दूसरे के समीप लाता है। इस समीपता का दूसरा प्रमुख कारण ग्रामीण समुदाय में समान धर्म के लोगों की बाहुल्यता का होना है।

7. सामुदायिक भावना

ग्रामीण समुदाय की एक महत्वपूर्ण विशेषता उनमें व्याप्त सामुदायिक भावना है। ग्रामीण समुदाय के सदस्यों में व्यक्तिगत निर्भरता के स्थान पर सामुदायिक निर्भरता अधिक पायी जाती है। इसलिये लोग एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। सामुदायिक विकास एवं विघटन के लिए न केवल समुदाय का व्यक्ति विशेष जिम्मेदार होता है बल्कि सम्पूर्ण सदस्यों को जिम्मेदार समझा जाता है।

सामुदायिक नियंत्रण एवं सदस्यों के व्यवहारों का नियमन भी वहां के सदस्यों पर निर्भर होता है। सामुदायिक सदस्य बुराइयों के जिम्मेदार सदस्यों को दण्ड देने, आपसी ताल-मेल को बनाये रखने तथा पारस्परिक विकास के लिये नियम भी बनाते हैं। ग्रामीण समुदाय के एक सीमित क्षेत्र में बसने के कारण सदस्यों की आपसी समीपता बड़ जाती है, उनमें स्वभावता, हम भावना का विकास हो जाता है जिसे सामुदायिक भावना का नाम दिया जाता है।

8. स्त्रियों की निम्न स्थिति

ग्रामीण समुदाय की अशिक्षा, अज्ञानता एवं रूढ़िवादिता का सीधा प्रभाव ग्रामीण स्त्रियों की स्थिति पर पड़ता है। भारतीय ग्रामीण समुदाय में अभी भी अशिक्षा काफी अधिक है, परिणामस्वरूप ग्रामीण सदस्यों का व्यवहार रूढ़ियों एवं पुराने सामाजिक मूल्यों से प्रभावित होता है।

कुछ भारतीय ग्रामीण बस्तियों में शिक्षा का प्रभाव ग्रामीण महिलाओं के जीवन में ऐच्छिक परिवर्तन लाने में सहायक ही रहा है लेकिन आज भी अधिकाधिक ग्रामीण समुदाय में बाल-विवाह, दहेज-प्रथा, पर्दा-प्रथा, लड़कियों की शिक्षा एवं नौकरी पर रोक लगाना, विधवाओं को पुनर्विवाह से वंचित करना आदि तथ्य सार्वभौमिक रूप से दिखाई देते हैं जो स्त्रियों की दयनीय दशा के लिये उत्तरदायी है।

9. धर्म एवं परम्परागत बातों में अधिक विश्वास

ग्रामीण लोग धर्म, परानी परम्पराओं एवं रूढ़ियों में विश्वास करते हैं। तथा उनका जीवन सामुदायिक व्यवहार, धार्मिक नियमों एवं परम्पराओं से प्रभावित होता है। ग्रामीण समुदाय का सीमित क्षेत्र उसे बाहरी दुनिया के प्रभावों से मुक्त रखता है और इसी कारण उसमें विस्तृत दृष्टिकोण भी, आसानी से नहीं पनप पाता। अतः ग्रामीण लोग नयी चीजों से दूर अपनी पुरानी परम्पराओं में लुप्त रहते हैं तथा धर्मपरायण बने रहते हैं।

10. भाग्यवादिता एवं अशिक्षा का बाहुल्य

ग्रामीण समुदाय में शिक्षा का प्रचार-प्रसार अभी भी कम है। शिक्षा के अभाव में ग्रामवासी अनेक अन्धविश्वासों

और कुसंस्कारों का शिकार बने रहते हैं तथा भाग्यवादिता पर अधिक विश्वास करते हैं।

इन उपर्युक्त ग्रामीण विशेषताओं से स्पष्ट है कि परम्परावादिता उनकी सर्वप्रमुख विशेषता है। जैसे-जैसे सरकार एवं स्वयं सेवी संगठनों के प्रयास से ग्रामीण विकास कार्यक्रमों का कार्यन्वयन बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे उनके जीवन में परिवर्तन आता जा रहा है।

आज कुछ गांवों में हो रहे ऐच्छिक परिवर्तनों एवं विकासात्मक विशेषताओं से स्पष्ट होता है कि ग्रामीण समुदाय शहरी समुदाय की विशेषताओं के नजदीक आता जा रहा है। कुछ ग्रामीण समुदाय आज भी ऐसे विकसित दिखाई देते हैं जिनकी देखने से ज्ञात होता है कि इनमें और शहरी समुदाय में बहुत कम दूरी रह गयी है।

ग्रामीण समुदाय का बदलता स्वरूप

परिवर्तन समाज का परम्परागत नियम है। इसलिये समय के साथ-साथ समाज बदलता रहता है भले ही बदलाव की गति मन्द हो या तीव्र। भारतीय समाज का जो वर्तमान रूप है वह शताब्दी पूर्व के भारतीय समाज से पूर्णतया भिन्न है। आज सामाजिक औद्योगिकी अर्थतन्त्र, सामाजिक संस्थाएं, विचार दर्शन, कला तथा धर्म आदि में निरन्तर परिवर्तन आ रहा है।

इन परिवर्तनों के फलस्वरूप ग्रामीण समाज में दर्शनीय परिवर्तन आये हैं। यह परिवर्तन विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त होते हैं। इन सभी परिवर्तनों का सम्बन्ध ग्रामीण समाज के बाह्य और आन्तरिक दोनों पक्षों से है। पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली, यातायात और संचार की सुविधायें, औद्योगिकीकरण, प्रौद्योगिकी, राजनैतिक तथा समाज सुधार आन्दोलन, सामाजिक अधिनियम तथा सामाजिक विकास कार्यक्रम इत्यादि कुछ ऐसे कारक हैं जिनके परिणामस्वरूप ग्रामीण समुदाय में परिवर्तन की गति तीव्र हुई है।

इन सब कारकों ने ग्रामीण संस्कृति एवं सभ्यता को प्रभावित किया है, जिससे ग्रामीण समाज बदलने लगा है। ग्रामीण समाज के विभिन्न पक्षों में यह परिवर्तन दिखाई देने लगा है। कुछ प्रमुख परिवर्तनों का उल्लेख निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है।

1. कार्य और पद में परिवर्तन

भारतीय समुदाय में व्यक्तियों के कार्य एवं पद का बंटवारा उनके जन्मे परिवार एवं उनके कर्म के साथ निर्धारित था इसलिए व्यक्ति की सामाजिक परिस्थिति का निर्धारण जन्म से माना गया है। भारतीय ग्रामीण समुदाय जातिगत है। प्रत्येक जाति की परिस्थिति पहले से ही निर्धारित होती थी उदाहरणार्थ लुहार को लोहे का कार्य, सुनार को सोने का कार्य, वैश्य को व्यापार का, ब्राह्मण को पठन-पाठन का कार्य इत्यादि। लेकिन विगत वर्षों में इस परम्परात्मक कार्य में काफी परिवर्तन आया है। आज ग्रामीण समुदाय में भी व्यक्ति के जन्मगत स्तर के साथ-साथ उसके अर्जित स्तर को भी मान्यता दी जाने लगी है। आज अधिकाधिक व्यक्तियों के कार्य एवं पद के निर्धारण में उनकी योग्यता,

प्रशिक्षण एवं रूचियों पर ध्यान दिया जाता है न कि जन्म पर।

2. जाति विशेष की प्रभुता में कमी

प्राचीन काल में ग्रामीण सामाजिक संगठन के अन्तर्गत प्रारम्भ में कुछ जातियां अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक प्रभुत्वपूर्ण थीं। आर्थिक सम्पन्नता के कारण वे निम्न जातियों पर नियंत्रण कायम करने में पूर्ण सक्षम थी। इसलिये उन्हें अन्य जातियों की अपेक्षा श्रेष्ठ माना जाता था। लेकिन आज इन जातियों की प्रभुत्ता में कमी आयी है। इसके साथ-साथ पंचायतें जो पहले उच्च जाति द्वारा नियंत्रित होती थीं, अब उनकी संरचना में भी परिवर्तन आ रहा है। अतः ग्रामीण क्षेत्रों में सामूहिकता के स्थान पर अब व्यक्तिवाद को बढ़ावा मिल रहा है।

3. आत्मनिर्भरता का हास

आरम्भ में भारतीय गांव एक क्षेत्रीय इकाई होने के साथ-साथ आत्मनिर्भर भी होते थे। ग्रामीण जनसंख्या कृषि पर निर्भर थी। लेकिन आज बढ़ती हुई महंगाई, जनसंख्या वृद्धि, औद्योगिकीकरण एवं नगरीकरण के परिणामस्वरूप कृषि मुख्य व्यवसाय होते हुये भी ग्रामीण अंचल में आत्मनिर्भरता नहीं के बराबर है।

4. सामुदायिक भावना में कमी

पहले ग्रामीण सदस्यों का दृष्टिकोण सामुदायिक था। वे व्यक्तिगत हितों की अपेक्षा पूरे गांव के हितों को विशेष महत्व देते थे। लेकिन कुछ विगत वर्षों से इस दृष्टिकोण में बदलाव आया है। परिणामस्वरूप अब गोत्र की अपेक्षा व्यक्तिगत हितों पर विशेष बल दिया जाने लगा है।

5. नेतृत्व में परिवर्तन

ग्रामीण क्षेत्रों में नवीन पंचायत राज्य की स्थापना, मताधिकारों की स्वतन्त्रता तथा आर्थिक परिवर्तन नवीन नेतृत्व प्रणाली को जन्म दे रहा है। इसके पहले गांवों में परम्परागत नेतृत्व का बोलबाला था, जो व्यक्ति के सम्मान, आयु एवं उसकी जाति पर आधारित था। गांव के कुछ व्यक्तियों को गांव के अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक कुशल एवं दरदर्शी माना जाता था जिन्हें लोग नेता मान लेते थे। समयानुसार ऐसे परिवार के बच्चों को भी उसी प्रकार का नेतृत्व एवं प्रशिक्षण प्रदान कर नेता के योग्य बनाया जाता था जिससे भविष्य में वे सामुदायिक नेतृत्व सम्भाल सकें। लेकिन आज सभी नागरिकों को सवैधानिक अधिकार प्राप्त है कि वे अपने विश्वसनीय व्यक्ति को नेता बतायें। अतः आज कोई भी नेता बन सकता है। यहां तक कि अब पिछड़ी जातियों एवं महिलाओं के प्रोत्साहन के लिये कुछ नेतृत्व की सीटे आरक्षित रखी जा रही हैं।

6. संयुक्त परिवार का विघटन

प्रारम्भ में गांव में संयुक्त परिवार का बाहुल्य था। परिवार का आकार बहुत बड़ा होता था और सब लोग मिल जुल कर रहते थे लेकिन विगत वर्षों में आर्थिक संरचना में आये परिवर्तन संयुक्त परिवार के सदस्यों को स्वतंत्रता एवं व्यक्तिवादिता की तरफ ले जा रहे हैं। परिणामस्वरूप लोग संयुक्त परिवार के स्थान पर एकांकी परिवार को अपनाने लगे हैं।

7. अपराधों में वृद्धि

ग्रामीण समुदाय में बढ़ रही जनसंख्या, बेरोजगारी तथा गरीबी उन्हें चारों तरफ से जकड़ रही है। यहां तक कि ग्रामीण जीवन को राजनीति भी बुरी तरह से प्रभावित कर रही है। इन सबके कारण ग्रामीण समुदाय में अपराधों की संख्या भी बढ़ रही है। यद्यपि सरकारी सुधारात्मक एवं विकासात्मक प्रयास जारी हैं लेकिन उनके साथ-साथ अनेक प्रकार के अपराध भी बढ़ रहे हैं। परिणामस्वरूप आज कुछ ग्रामीण जनसंख्या शहरी निवास को प्राथमिकता दे रही है।

उन उपर्युक्त परिवर्तित परिस्थितियों एवं बढ़ रही समस्याओं से स्पष्ट है कि आज कार्यरत सरकारी एवं गैर-सरकारी कल्याणकारी सेवायें एवं साधन सीमिति है या इनका उचित लाभ लोगों को नहीं मिल पा रहा है। अतः प्रशिक्षित समाज कार्यकर्ता एवं स्वयं सेवी संगठनों को चाहिये कि वे ग्रामीण समुदाय में परिवर्तनशील कारकों एवं वर्तमान स्थितियों का अध्ययन कर वहां के निवासियों की आवश्यकताओं एवं समस्याओं के अनुसार जरूरतमन्द योजना बनाने में सदस्यों की सहायता करें और सामुदायिक कल्याण, परिवर्तन, सुधार एवं विकास को साकार बनाने का प्रयास करें।

नगरीय समुदाय

नगर के विकास के इतिहास से पता चलता है कि कुछ नगर तो नियोजित ढंग से बसाये गये हैं, लेकिन कुछ ग्रामीण समुदाय के आकार के बढ़ने से नगर का रूप धारण कर गये हैं। आज भी स्पष्ट है कि नियोजित ढंग से बसाये जा रहे शहरी समुदायों के अतिरिक्त, स्थान विशेष में निवास करने वाले सदस्यों के उच्च जीवन-स्तर एवं विकसित संस्कृति, सभ्यता तथा बढ़ती हुयी जनसंख्या को देख उसको उचित श्रेणी के शहर का दर्जा दिया जाता है।

नगरीय समुदाय का अर्थ

नगरीय शब्द नगर’ से बना है जिसका अर्थ शहर से सम्बन्धित है। वैसे शहरी समुदाय को एक सूत्र में बांधना अत्यन्त कठिन है। यद्यपि हम नगरीय समुदाय को देखते हैं, वहां के विचारों से पूर्ण अवगत हैं लेकिन उसे पारिभाषित करना आसान नहीं हैं। कुछ समाजशास्त्रियों ने नगरीय समुदाय को पारिभाषित किया है जिनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं

मैकाइवर के अनुसार

“ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय के मध्य कोई ऐसी सुस्पष्ट विभाजन रेखा नहीं हैं, जो यह निश्चित कर सके कि नगर का अमुक बिन्दु पर अन्त होता है तथा देहात का अमुक बिन्दु पर प्रारम्भ होता है।”

विलकावस के अनुसार

“नगरों के अन्तर्गत उन समस्त क्षेत्रों को लिया जा सकता है जिनमें जनसंख्या का घनत्व प्रति वर्ग मील एक हजार से अधिक हो और जहां वास्तव में कोई कृषि नहीं होती हो।”

सोमवार्ट के अनुसार

“नगर वह स्थान है जो इतना बड़ा है कि उसके निवासी परस्पर एक दूसरे को नहीं पहचानते हैं।”

ई. ई. बर्गेल के अनुसार

“इस प्रकार हम उस बस्ती को एक नगर कहेंगे जहां के अधिकांश निवासी कृषि कार्यों के अतिरिक्त उद्योगों में व्यस्त हों।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि नगरीय समुदाय उस समुदाय का नाम है जहां की जनसंख्या तुलनात्मक दृष्टि से ग्रामीण समुदाय से अधिक हो, निवासियों का जीवन-स्तर उच्च हो, उनका जीवन कृषि से अलग अन्य व्यवसायों पर निर्भर हो तथा वहां की संस्कृति एवं सभ्यता में आधुनिकता की छाप हो। इस परिभाषा में अत्यधिक पक्षों को सम्मिलित किया गया है लेकिन फिर भी यह देखा जाता है कि नगरीय समुदाय में ही झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले भी लोग आते हैं जिनका जीवन-स्तर ग्रामीण समुदाय से भी निम्न कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

नगरीय समुदाय की विशेषताएं

विभिन्न विद्वानों द्वारा व्यक्त परिभाषाओं के अतिरिक्त, नगरीय समुदाय की स्पष्टता के लिये आवश्यक है कि इसकी कुछ प्रमुख विशेषताओं की चर्चा की जाय जिससे सम्बन्धित प्रत्येक पक्ष नगरीय समुदाय को चित्रित कर सके। इसकी कुछ प्रमुख विशेषतायें निम्नलिखित हैं –

जनसंख्या का अधिक घनत्व

रोजगार की तलाश में गांवों से शिक्षित एवं अशिक्षित बेरोजगार व्यक्ति शहर में आते हैं। जनसंख्या वृद्धि के कारण आज सीमित जमीन में लोगों को जीवन निर्वाह करना कठिन पड़ रहा है। फलस्वरूप लोग रोजगार की तलाश में शहरों को प्राथमिकता देते हैं। इसके अतिरिक्त ग्रामीण पिछड़ापन एवं विकसित सुविधा एवं साधनों के कारण कुछ लोग बच्चों को उचित शिक्षा देने तथा आवश्यक वातावरण देने के लिये शहर की तरफ प्रस्थान करते हैं। इन सब कारणों से नगरीय जनसंख्या का घनत्व ग्रामीण समुदाय से अधिक पाया जाता है।

विभिन्न संस्कृति का केन्द्र

कोई नगर किसी एक विशेष संस्कृति के जन समुदाय के लिये आरक्षित नहीं होता। इसलिये देश के विभिन्न गांवों से लोग नगर में आते हैं और वहीं बस जाते हैं। ये लोग विभिन्न रीति-रिवाजों में विश्वास करते हैं तथा उन्हें मानते हैं। इसलिए नगर एक भारतीय संस्कृति का केन्द्र होते हुये भी विभिन्न संस्कृतियों का केन्द्र है।

औपचारिक सम्बन्ध

नगरीय समुदाय में औपचारिक सम्बन्धों का बाहुल्य होता है। देखा जाता है कि सदस्यों का व्यक्तिगत जीवन एवं उनकी व्यक्तिगत निर्भरता के कारण उनका आपसी सम्बन्ध औपचारिक होता है। उनके पारस्परिक सम्बन्धों का कानून से नियमन होता है। अतएवं नगरीय समुदाय में सदस्यों के सम्बन्धों में घनिष्टता नहीं पाई जाती है और वे औपचारिक होते हैं।

अंध-विश्वासों में कमी

नगरीय समुदाय में विकास के साधन एवं सुविधाओं की उपलब्धता के साथ-साथ यहां शिक्षा और सामाजिक गतिशीलता का स्तर ग्रामीण समुदाय से अधिक पाया जाता है। अतएवं स्पष्ट है कि यहां के लोगों का पुराने अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों में कम विश्वास होगा। इसके अतिरिक्त नगरीय सामुदायिक जीवन व्यस्त होने के कारण उनको समय नहीं मिल पाता है कि वे पुराने रीति-रिवाजों एवं अन्ध विश्वासों का पालन कर सकें।

अपरिचितता

नगरीय समुदाय की विशालता एवं उसके व्यस्त जीवन के कारण लोगों को पता नहीं होता कि पड़ोस में कौन रहता है और क्या करता है। बहुधा देखा गया है कि लोग एक दूसरे के विषय में जानने तथा उनके साथ ताल-मेल रखने में कम रूचि रखते है अनेक नगरवासी सामाजिक रिक्तता में निवास करते हैं। उनके सामाजिक व्यवहार को नियमित अथवा नियंत्रित करने वाले संस्थात्मक आदर्श नियम प्रभावी नहीं होते। यद्यपि वे अपने चारों ओर अनेक संस्थागत संगठनों से परिचित होते हैं, लेकिन अपने आस-पास के लोगों से तथापि वे किसी समूह अथवा समुदाय के प्रति अपनापन अनुभव नहीं करते। सामाजिक रूप में वे प्रचुरता के मध्य निर्धन होते हैं।

आवास की समस्या

आज विभिन्न कार्यकारी आवासीय योजनाओं के बावजूद भी बड़े-बड़े नगरों में आवास की समस्या अति गम्भीर होती जा रही है। अनके गरीब एवं कमजोर लोग अपनी रातें सड़क,बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर व्यतीत करते हैं। अधिकाधिक मध्यवर्गीय व्यक्तियों के पास औसतन केवल एक या दो कमरों के मकान होते हैं। कारखानों वाले नगरों में नौकरी की तलाश में श्रमिकों की संख्या बढ़ जाती है जिसके कारण उनके रहने के लिए उपयुक्त स्थान नहीं मिल पाता है और झुग्गी-झोपड़ी जैसी बस्तियां बढ़ने लगती हैं।

वर्ग-अतिवाद

नगरीय समुदाय में धनियों में धनी और गरीबों में गरीब वर्ग के लोग पाये जाते हैं अर्थात् यहां भव्य कोठियों में रहने वाले, ऐश्वर्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने वाले तथा दसरे तरफ मकानों के अभाव में गरीब एवं कमजोर सड़क पर सोने वाले, भर पेट भोजन न नसीब होने वाले लोग भी निवास करते हैं। इसी प्रकार अच्छे से अच्छे पढ़े-लिखे व्यवहार कुशल लोग भी मिलेंगे, दूसरे तरफ निम्न स्तर के धोखा-धड़ी करने वाले भी नगर में ही पाये जाते हैं।

श्रम-विभाजन

नगरीय समुदाय में अनेक व्यवसाय वाले लोग होते हैं। जहां ग्रामीण समुदाय में अधिकाधिक लोगों का जीवन कृषि एवं उससे सम्बन्धित कार्यों पर निर्भर होता है वहीं दूसरी तरफ नगरीय समुदाय में व्यापार-व्यवसाय, नौकरी, अध्ययन आदि पर लोगों का जीवन निर्भर होता है। नगरीय समुदाय में स्त्रियों को भी बाहर निकलने तथा पारिवारिक आर्थिक भार में हाथ बंटाने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। वे भी पुरूषों के समान विभिन्न व्यवसायों में पुरूषों का हाथ बंटा रही हैं।

एकाकी परिवार की महत्ता

नगरीय समुदाय में उच्च जीवन-सतर की आकांक्षा के फलस्वरूप संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियां वहन करना कठिनतम साबित होता है। अतएवं शहरी समुदाय में एकाकी परिवार का बाहुल्य होता है। इन परिवारों में लगभग स्त्री एवं पुरूषों की स्थिति में समानता पायी जाती है। इन परिवारों में नियंत्रण के अभाव के कारण पारिवारिक विघटन की प्रक्रिया तीव्र रहती है।

धार्मिक लगाव की कमी

शहरी जीवन में व्याप्त शिक्षा एवं भौतिकवाद उन्हें धार्मिक पूजा-पाठ एवं अन्य सम्बन्धित कर्मकाण्डों से दर कर हैं। इसलिए यहां धर्म को कम महत्व दिया जाता है।

सामाजिक गतिशीलता

शहरी जीवन में अत्यधिक गतिशीलता पायी जाती है। जहां गांव का जीवन शांत और सरल होता है वहीं शहर का जीवन अत्यधिक व्यस्तम होता है।

राजनैतिक लगाव

नगरीय जीवन में बढ़ती शिक्षा, गतिशीलता एवं परिवर्तित सभ्यता राजनैतिक क्षेत्र में लोगों की रूचि बढ़ा देती है। इनको अपने अधिकारों, कर्तव्यों एवं राजनैतिक गतिविधियों का ज्ञान होने लगता है और इससे राजनैतिक क्षेत्र में झुकाव बढ़ जाता है।

इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध समाजशास्त्री किग्सलैं डैविस ने नगरीय समुदाय की निम्नलिखित विशेषतायें बतायी हैं-

  • सामाजिक विविधता
  • द्वैतीयक समितियां
  • द्वैतीयक नियंत्रण
  • ऐच्छिक समितियां
  • व्यक्तिवाद
  • सामाजिक गतिशीलता
  • सामाजिक सहिष्णुता
  • क्षेत्रीय पृथकता
  • सामुदायिक भावना का अभाव
  • गतिशील जीवन

ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय में अन्तर

ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय की विभिन्न परिभाषाओं एवं विशेषताओं से स्पष्ट है कि दोनों में व्याप्त समानताओं के बावजूद दोनों में काफी भिन्नता है जिसे निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है-

  1. ग्रामीण समुदाय में संयुक्त परिवार का बाहुल्य होता है और परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होती है जबकि नगरीय समुदाय में एकाकी परिवार का बाहुल्य होता है और परिवार में सदस्यों की संख्या कम होती है
  2. ग्रामीण समुदाय में सदस्यों का जीवन संयमित एवं नियंत्रित होता है। जबकि नगरीय समुदाय में व्यक्तियों के पथभ्रष्ट होने की सम्भावना अधिक रहती है।
  3. ग्रामीण समुदाय में परिवारिक प्रथाओं, रीति-रिवाजों व मूल्यों एवं परम्पराओं द्वारा सामाजिक नियंत्रण स्थापित होता है। जबकि नगरीय समुदायों में सामाजिक नियंत्रण कानूनों द्वारा होता है।
  4. ग्रामीण समुदाय में प्राथमिक समूहों का महत्व होता है और सदस्यों में आपसी सम्बन्ध अनौपचारिक होते है। जबकि नगरीय समुदाय में द्वैतीयक समूहों का महत्व होता है और सदस्यों के बीच औपचारिक सम्बन्धों का प्राधान्य होता है।
  5. ग्रामीण समुदाय में सामान्यतया रूढ़िवादिता का जोर होता है  जबकि नगरीय समुदाय में लोग रूढ़ियों एवं सामाजिक परम्पराओं से अपेक्षाकृत कम प्रभावित होते हैं।
  6. ग्रामीण समुदायों में घनिष्ठता, स्थायित्व, सहयोग तथा अपरिवर्तनशीलता पायी जाती है। जबकि नगरीय समुदाय में जटिलता,व्यस्तता, औपचारिकता तथा परिवर्तनशीलता पायी जाती है।
  7. ग्रामीण समुदाय में कृषि एकमात्र प्रमुख व्यवसाय है। जबकि नगरीय समुदाय में विभिन्न व्यवसाय होते हैं।
  8. ग्रामीण समुदाय में सांस्कृतिक एकरूपता पायी जाती है। जबकि नगरीय समुदाय में कई संस्कृतियां पायी जाती है अर्थात् सांस्कृतिक भिन्नता पायी जाती है।
  9. ग्रामीण सदस्यों का जीवन सरल, निष्कपट एवं सादा होता है। जबकि नगरीय समुदाय में बनावट, जटिलता और चालाकी अधिक पायी जाती है।
  10. ग्रामीण समुदाय के सदस्यों में सामुदायिक भावना पायी जाती है। जबकि नगरीय समुदाय में व्यक्तिगत भावना का बोलबाला होता है।
  11. ग्रामीण समुदाय में भाग्यवादिता, सहिष्णुता एवं अन्धविश्वास अधिक पाया जाता है। जबकि नगरीय समुदाय में अपने परिश्रम एवं कर्तव्यों पर ज्यादा विश्वास किया जाता है।

FAQs

समुदाय क्या है और समुदाय की विशेषताएं?

व्यक्तियों का समूह-समुदाय से यहाँ तात्पर्य मानव जाति के समुदाय से है, जो अपनी सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक समरूपताओं के आधार पर एक निश्चित सीमा में निवास करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि समुदाय में हम मानवीय सदस्यों को सम्मिलित करते हैं न कि पशु पक्षियों को।

मुदाय का महत्व क्या है?

समुदाय में प्रत्‍येक परिवार अपनी आवश्‍यकताएँ पूरी करने की कोशिश करता है तथा दूसरे परिवारों की सहायता भी करता है । समुदाय इस प्रकार पारस्‍परिक आर्थिक निर्भरता को बढ़ावा देता है । यह परिवार के सदस्‍यों को सामाजिक भलाई के लिए सहयोग देता है । समुदाय अपने सदस्‍यों में सामाजिक समरसता और एकजुटता की भावना को बढ़ावा देता है ।

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