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छत्तीसगढ़ की कला व संस्कृति

छत्तीसगढ़ की कला व संस्कृति

छत्तीसगढ़ की कला व संस्कृति सम्पूर्ण भारत में अपना बहुत ही ख़ास महत्त्व रखती है। छत्तीसगढ़ की कला व संस्कृति भारत के हृदय-स्थल पर स्थित छत्तीसगढ़, जो भगवान श्रीराम की कर्मभूमि रही है, प्राचीन कला,सभ्यता, संस्कृति, इतिहास और पुरातत्त्व की दृष्टि से अत्यंत संपन्न है।

यहाँ ऐसे भी प्रमाण मिले हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि अयोध्या के राजा श्रीराम की माता कौशल्या छत्तीसगढ़ की ही थी। ‘छत्तीसगढ़ की संस्कृति’ के अंतर्गत अंचल के प्रसिद्ध उत्सव, नृत्य, संगीत, मेला-मड़ई तथा लोक शिल्प आदि शामिल हैं।

छत्तीसगढ़ का त्यौहार

बस्तर का ‘दशहरा’, रायगढ़ का ‘गणेशोत्सव’ तथा बिलासपुर का ‘राउत मढ़ई’ ऐसे ही उत्सव हैं, जिनकी अपनी एक बहुत-ही विशिष्ट पहचान है। पंडवानी, भरथरी, पंथी नृत्य, करमा, दादरा, गैड़ी नृत्य, गौरा, धनकुल आदि की स्वर माधुरी भाव-भंगिमा तथा लय में ओज और उल्लास समाया हुआ है।

छत्तीसगढ़ की शिल्पकला में परंपरा और आस्था का अद्भुत समन्वय विद्यमान है। यहाँ की पारंपरिक शिल्पकला में धातु, काष्ठ, बांस अर्चना और अलंकरण के लिए विशेष रुप से लोकप्रिय हैं। संस्कृति विभाग ने कार्यक्रमों में पारंपरिक नृत्य, संगीत तथा शिल्पकला का संरक्षण और संवर्धन के साथ-साथ कलाकारों को अवसर भी प्रदान किये हैं।

छत्तीसगढ़ की कला व संस्कृति का विकास  

यह कहा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में धर्म, कला व इतिहास की त्रिवेणी अविरल रूप से प्रवाहित होती रही है। हिंदुओं के आराध्य भगवान श्रीराम ‘राजिम’ व ‘सिहावा’ में ऋषि-मुनियों के सान्निध्य में लंबे समय तक रहे और यहीं उन्होंने रावण के वध की योजना बनाई थी। उनकी कृपा से ही आज त्रिवेणी संगम पर ‘राजिम कुंभ’ को देश के पाँचवें कुंभ के रूप में मान्यता मिली है।

सिरपुर की ऐतिहासिकता यहाँ बौद्धों के आश्रम, रामगिरी पर्वत, चित्रकूट, भोरमदेव मंदिर, सीताबेंगरा गुफ़ा स्थित जैसी अद्वितीय कलात्मक विरासतें छत्तीसगढ़ को आज अंतर्राष्ट्रीय पहचान प्रदान कर रही हैं। ‘संस्कृति एवं पुरातत्त्व धार्मिक न्यास’ एवं ‘धर्मस्व विभाग’ ने विगत आठ वर्षों के दौरान यहाँ की कला व संस्कृति की उत्कृष्टता को देश व दुनिया के सामने रखकर छत्तीसगढ़ के मस्तक को गर्व से ऊँचा उठा दिया है। 

छत्तीसगढ़ का संस्कृति व पुरातत्त्व विभाग

छत्तीसगढ़ के गौरवशाली अतीत के परिचालक ‘कुलेश्वर मंदिर’ राजिम; ‘शिव मंदिर’ चन्दखुरी; ‘सिद्धेश्वर मंदिर’ पलारी; ‘जगन्नाथ मंदिर’ खल्लारी; ‘भोरमदेव मंदिर’ कवर्धा; ‘बत्तीस मंदिर’ बारसूर और ‘महामाया मंदिर’ रतनपुर सहित पुरातत्त्वीय दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण 58 स्मारक घोषित किए गए हैं।

बीते ग्यारह वर्षों के दौरान पिछले आठ वर्षों में ‘संस्कृति व पुरातत्त्व विभाग’ ने छत्तीसगढ़ भी संस्कृति, कला, साहित्य व पुरा संपदा के संरक्षण और संवर्धन के लिए निरंतर प्रयास किए हैं। अनेक स्वर्णिम उपलब्धियाँ हासिल की हैं। किसी भी देश या प्रदेश का विकास उसकी भाषा के विकास के बिना अपूर्ण होता है।

छत्तीसगढ़ के विकास के साथ ही छत्तीसगढ़ी भाषा के विकास का मार्ग भी प्रशस्त किया गया है। छत्तीसगढ़ी को राजभाषा का दर्जा दिया गया और ‘छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग’ का गठन किया गया, ताकि छत्तीसगढ़ में सरकारी कामकाज हो सकें। विधानसभा में ‘गुरतुर छत्तीसगढ़ी’ की अनगूंज सुनाई देने लगी है।

छत्तीसगढ़ में कुंभ मेला का आयोजन

छत्तीसगढ़ के संस्कृति मंत्री के प्रयासों से ‘छत्तीसगढ़ विधानसभा कुंभ मेला विधेयक-2005’ पारित होने के बाद से ‘छत्तीसगढ़ का प्रयाग राजिम’ में आयोजित विशाल ‘राजिम कुंभ’ मेला पाँचवे कुंभ के रूप में अपनी राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय पहचान बना चुका है।

सिरपुर में 1956 के बाद 2006 में पुनः पुरातात्विक उत्खनन प्रारंभ कराया गया था, जिससे 32 प्राचीन टीलों पर अत्यंत प्राचीन संरचनाएँ प्रकाश में आईं। उत्खनन के दौरान पहली बार मौर्य काल के बौद्ध स्तूप प्राप्त हुए। 79 कांस्य प्रतिमाएँ और सोमवंशी शासक ‘तीवरदेव’ का एक तथा ‘महाशिव गुप्त बालार्जुन’ के तीन ताम्रपत्र मिले।

सिरपुर आज अपनी पुरातात्विक वैभव के कारण दुनिया भर के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। ‘पचराही’, ‘मदकूद्वीप’, ‘महेशपुर’ और ‘तुरतुरिया’ में भी उत्खनन कार्य किया गया है। छत्तीसगढ़ के 8 ज़िलों में पुरातत्त्व संग्रहालयों का निर्माण व विकास कराया गया है।

छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक केन्द्र व कार्यक्रम

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भव्य ‘पुरखौती मुक्तांगन’ का लोकार्पण राष्ट्रपति ‘अब्दुल कलाम’ से कराया गया है। इसके अलावा ‘दक्षिण मध्य सांस्कृतिक केन्द्र’ की सदस्यता प्राप्त की गई है, जिससे छत्तीसगढ़ के कलाकारों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का अवसर मिल सके। कलाकारों की पहचान व सम्मान के लिए ‘चिह्नारी कार्यक्रम’ शुरू किया गया है।

कलाकारों व साहित्यकारों के लिए पेंशन राशि को 700 रुपए से बढ़ाकर 1500 रुपए किया गया है। ‘विवेकानंद प्रबुद्ध संस्थान’ और ‘छत्तीसगढ़ सिंधी साहित्य संस्थान’ का गठन किया गया है। इसके साथ ही उत्सवधर्मी इस प्रदेश में मेला, मंडई और अन्य पारम्परिक उत्सवों को भव्यता प्रदान की गई है।

इस तरह प्राचीन कला, संस्कृति और पुरा संपदा से परिपूर्ण छत्तीसगढ़, भारत व दुनिया के मानचित्र पर अपनी पृथक् व विशिष्ट पहचान बना चुका है, जिससे यहाँ पर्यटन के विकास की संभावना भी असीम हो रही है।

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FAQ

छत्तीसगढ़ के लोक कला क्या है?

भरथरी, छत्तीसगढ़ के पारम्परिक लोकगीत कला, में सुरुजबाई खाण्डे का नाम बहुत ही महत्व रखता है। वे भरथरी गायिकी में पहली दर्जे के गायिका है। छत्तीसगढ़ी भरथरी चंदैनी और ढोला-मारु के गायिकी के छाप देश-विदेश में स्थापित की।

लोक कला का नाम क्या है?

कलमकारी, कांगड़ा, गोंड, चित्तर, तंजावुर, थंगक, पातचित्र, पिछवई, पिथोरा चित्रकला, फड़, बाटिक, मधुबनी, यमुनाघाट तथा वरली आदि भारत की प्रमुख लोक कलाएँ हैं।

लोकगीत से आप क्या समझते हैं?

लोकगीत लोक के गीत हैं। जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा लोक समाज अपनाता है। लोकगीतों का रचनाकार अपने व्यक्तित्व को लोक समर्पित कर देता है। शास्त्रीय नियमों की विशेष परवाह न करके सामान्य लोकव्यवहार के उपयोग में लाने के लिए मानव अपने आनन्द की तरंग में जो छन्दोबद्ध वाणी सहज उद्भूत करता हॅ, वही लोकगीत है।

छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति क्या है?

छत्तीसगढ़ अपनी सांस्कृतिक विरासत में समृद्ध है। उनके लयबद्ध लोक संगीत, नृत्य और नाटक देखना एक आनंददायक अनुभव है जो राज्य की संस्कृति में अंतर्दृष्टि भी प्रदान करता हैं। राज्य का सबसे प्रसिद्ध नृत्य-नाटक पंडवानी है, जो हिंदू महाकाव्य महाभारत का संगीतमय वर्णन है।

लोक कला का हमारे जीवन पर इसका क्या असर पड़ता है?

यह मनुष्य की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम भी हैं। हर किसी के जीवन में लोक कला का महत्व होना चाहिए। लोक कलाओं के बिना मनुष्य का जीवन नीरस है। इनके माध्यम से हम क्या कुछ नहीं सीखते है, इसके बाद भी लोक कलाओं के प्रति उदासीनता का भाव रखा जाता है जो समाज के लिए उचित नहीं है।
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