छत्तीसगढ़ के प्रमुख राजवंश
छत्तीसगढ़ में क्षेत्रीय राजनातिक सत्ता स्थापित करने में विभिन राजवंश को सफलता प्राप्त हुआ. इन राजवंशों ने छत्तीसगढ़ के अलग अलग जगह पर राज किया लेकिन अधिकतर क्षेत्र केवल प्रदेश के सीमाओं तक होने के कारण यह क्षेत्रीय राजवंशो की श्रेणी में आते है. प्रदेश का पहला क्षेत्रीय राजवंश होने का गौरव राज्तुल्यकुल वंश को प्राप्त है.
छत्तीसगढ़ के प्रमुख क्षेत्रीय राजवंश
राजवंश और उनके संस्थापक
1. राज्तुल्यकुल वंश – शूरा
2. नलवंश – वराहराज
3. शरभपुरिय वंश – शरभराज
4. पांडुवंश – उदयन
5. सोमवंश – सिंहराज
6. फनिनागवंश – अहिराज
7. छिंदक नागवंश – नृपति भूषण
8. काकतीय वंश – अन्नम देव
छत्तीसगढ़ के प्रमुख राजवंश
1. राजर्षितुल्यकुल वंश
- इस वंश ने दक्षिण कोशल पर 5 वीं 6 वीं शताब्दी तक शासन किया था.
- इस वंश की राजधानी आरंग थी.
- आरंग में भीमसेन द्वितीय के ताम्रपत्र प्राप्त हुए है जिसके अनुसार सुर शासको के छह शासको ने 5 वीं 6 वीं शाताब्दी में दक्षिण कोशल में राज किया था.
- ये 6 शासक थे – सुरा, दायित प्रथम, विभिषण, भीमसेन प्रथम, भीमसेन द्वितीय, दायित द्वितीय.
- इन्हें सनद में ऐसे परिवार से बताया गया है जो राजर्षि तुल्य कुल वंश से कम नही थे, इनकी इस उपाधि की तुलना चन्द्रगुप्त द्वितीय के उदयगिरी गुफा शिलालेख की राजाधिराज श्री उपाधि से की जाती है.
- ताम्रपत्र से यह ज्ञात होता है की इस वंश ने गुप्त सम्वंत का प्रयोग किया था, अतः इन्होने गुप्त शासको की अधिसत्ता स्वीकार की थी.
2. नल वंश
- भारत के इतिहास के आधार पर वायु पुराण और ब्राह्मण पुराण के आधार पर नाल शासकों को पौराणिक वंश है जिनकी शासन कोसल प्रदेश में था ।पुरातात्विक आधार पर दक्षिण कोशल का इतिहास चौथी शताब्दी से सुरु हो जाती है जिसमे सबसे पहले सूत्रपात इलाहाबाद की समुद्रगुप्त की प्रस्सति से प्रारम्भ होता है। शिलालेखों ,ताम्रपत्रों ,सोने के मुद्रासे पता चालता है की बस्तर में सबसे पहले नलवंश के शासकों का राज प्रारम्भ हुआ।
- इसके शासन काल कब प्रारम्भ हुआ कब तक रहा राज्य की सीमा कहा से कहा तक था इसपर विद्वानों का मतैक्य नही है ।
- 305 ईसवी में महाकान्तर पर व्याघ्रराज के शासन होने के प्रमाण मिले है । बस्तर में भी इनके शासन का प्रारंभ माना जा सकता है । इनकी राजधानी पुस्करी है । वर्तमान बस्तर की सीमा से लगे पुस्कर नगर था ।
- बस्तर में इस वंश का शासन 5 वीं – 12 वीं सदी तक था
- नल वंश का प्रारम्भ नल नामक राजा से माना जाता है,
- नल वंश का संस्थापक वरघराज को माना जाता है, इस वंश की राजधानी पुष्करी (भोपलपटनम थी)
नलवंशी प्रमुख शासक
वराहराज
- शासन काल – 400 – 440 ई.
- नलवंश के संस्थापक मने जाते है
- कोंडागांव तहसील के एंडेगा ग्राम में वराह राज के 29 सिक्के प्राप्त हुए है
- मिराषि के लिपि शास्त्र के अनुसार वराह राज को भावदत्त का पूर्वज मन गया है ।
भवदत्त वर्मा
- शासन काल – 440-465 ई.
- नलवंश की सबसे प्रतिभाशाली शासक भवदत्त वर्मन था। इसकी जानकारी इतिहासकारों को इसके द्वारा जारी किये गये सिक्कों से प्राप्त होता है।
- इन्होने वाकाटकों से युद्ध कर उन्हें कोसल से राज्य से खदेड़ दिया और इनकी साम्राज्य का विस्तार किया और बरार से कोरापुट तक अपना अधिकार कर लिया।
- भवदत्त का ताम्रपत्र अमरावती जिले के मोरशि अंचल से प्राप्त हुआ जिसमे उसके साम्राज्य की जानकारी और उसके पत्नी(अकाली भट्टारिका ) की जानकारी मिलती है।
- भवदत्त ने महाराजा की उपाधि धारण किया था।
- ये शंकर के उपाशक थे।
- इस वंश के प्रसिद्ध शासक भवदत्त वर्मा थे, जिसने बस्तर और कौसल क्षेत्र में राज्य करते हुए अपने साम्राज्य का विस्तार किया,
- भवदत्त वर्मा का ताम्रपत्र का नाम -रिद्धि पूर्व ताम्रपत्र है,
विलासतुंग
- विलासतुंग इस वंश के महत्वपूर्ण शासक थे,
- शासक विलासतुंग ने राजिम के राजिव लोचन मंदिर को बनवाया था, जिसका वर्णन राजिम शिलालेख से मिलता है,
- राजिव लोचन मंदिर भगवान् विष्णु का मंदिर है,
- इनका शासन काल 8 वीं शताब्दी का है
- विलासतुंग, पांडू वंशीय महाशिवगुप्त बालार्जुन के समकालीन थे,
अर्थपति
- शासन काल – 460 -475 ई तक
- इसकी जानकारी केसरीबेड़ा ताम्रपत्र से मिलती है।
- इसे वाकाटक शासक पृथ्वी सेन द्वितीय ने हराया था। और अर्थपति वीरतापूर्वक लड़ते हुए मारागया।
- अर्थपति ने भट्टारक की उपाधि धारण की थी। जो की पल्लव वंश की उपाधि है।
स्कन्द वर्मन
- शासन काल – 475 से 500 ई.
- इनका मुख्य शासन बस्तर में था.
- ये अर्थपति का भाई था उसके मृत्यु के पश्चात् पुस्कारि की राजगद्दी पर बैठा।
- इसने वाकाटक नरेश के द्वारा पुष्करी को नष्ट कर देने के बाद पुनः निर्माण कर राजधानी का नाम पुस्कारगढ़ पोड़ागढ़ में परिवर्तित हो गया।
- स्कन्दवर्मा ने पोड़ागढ़ में विष्णु मंदिर का निर्माण कराया।
- पोड़ागढ़ शिलालेख नलों का पहला शिलालेख है।
- इस वंश का सबसे शाक्ति शाली शासक थे,
- नल वंशी शासको ने बस्तर एवं दक्षिण कोसल में अधिकांश समय तक शासन किया था,
- इस वंश के कुछ प्रमाण – कोंडागांव तहसील के ग्राम एर्डेगा में नल राजाओं के सिक्के मिले है,
- नल वंश के राजाओं के चार उत्कीर्ण लेख मिले है जिसमे से दो ओड़िसा में, एक अमरावती में, और एक रायपुर में मिला है
- वाकाटक राजा पृथ्वीसेन द्वितीय ने नल राजा को परास्त कर नल वाडी नल पर कब्जा किया था,
- नल वंश का शासन सोमवंशियो द्वारा पराजित होने पर समाप्त हो गया,
परावर्तित नल नरेश
- स्कन्द वर्मा के बाद उसके पुत्र नंदराज राजा बना जिसकी शिक्षा -दीक्षा नालंदा में हुई थी।
- नंदराज के बाद उसके पुत्र फिर उसके पौत्र पृथ्वीराज राजा बने।
- पृथ्वीराज का शासन काल 605 से 630 ई. मानागया है।
- इसके पश्चात् विरुपाक्ष राजा बना इसके पश्चात् इसके पुत्र विलासतुंग राजा हुआ
- विलासतुंग ने राजिम में विष्णु मंदिर का निर्माण कराया।
- विलासतुंग ने 7 वी ही राजीव लोचन मंदिर का निर्माण कराया।
- राजिम अभिलेख में विरुपाक्ष और पृथ्वीराज के बारे में जानकारी मिलती है।
नलवंशी ताम्रपत्र
- रिद्धपुर ताम्रपत्र -भवदत्त
- केश्रीबेड़ा ताम्रपत्र – अर्थपति
- राजिम अभिलेख – विलासतुंग
- पोड़ागढ़ शिलालेख – स्कंदगुप्त
3. शरभपुरीय वंश
- इस वंश को अमरार्या या अमराज भी कहा जाता है।
- संस्थापक -शरभराज
- शासनकाल – 6 वीं शताब्दी
- साक्ष्य -भानुगुप्त का एरण अभिलेख
- राजधानी – शरभपुर
- उपराजधानी – श्रीपुर (सिरपुर )
शरभपुरीय वंश प्रमुख शासक
शरभ राज
- इनका शासन काल ईसा के 6 वीं शताब्दी में था,
- इनकी राजधानी शरभपुर के नाम पर ही इस वंश का नाम शरभ पूरी पड़ा,
- इस वंश के संस्थापक शरभराज थे,
- उत्तर कालीन गुप्त शासक भानुगुप्त के “एरण स्तंभलेख “ (गुप्त संवत 510 ई.) में शरभराज का उल्लेख मिलता है,
नरेन्द्र
- शरभराज का उत्तराधिकारी नरेंद्र था
- नरेन्द्र के दो ताम्रपत्र लेख कुरूद व् पिपरुदुला में मिला है,
प्रसन्नमात्र
- इस वंश का तीसरा शासक था,
- इसने सोने का पानी चढ़े पतले सिक्के व चंडी के सिक्के जिन पर गरुड़ शंख तथा चक्र के निशान अंकित है,
- इसने अपने नाम का सिक्का चलाया,
- इसने निडिला नदी के किनारे अपने नाम का प्रसन्नपुर नगर बसाया था,
- वर्तमान में निडिला नदी का नाम लीलागर नदी है, और प्रसन्नपुर का नाम मल्हार है,
जयराज
- जयराज ने शासन किया किन्तु जल्द ही इनकी मृत्यु हो गई.
- इसके बाद इनके भाई दुर्गराज मानमात्र ने शासन किया.
प्रवरराज
- दुर्गराज का उत्तराधिकारी था, जिसने शासन किया,
- इसने अपनी नई राजधानी सिरपुर को बनाया,
- प्रवरराज प्रथम ने अपनी राजधानी श्रीपुर में स्थापित किया।
सुदेवराज
- प्रवरराज का उत्तराधिकारी था,
- कौवाताल अभिलेख (महासमुद) में इसके सामंत इंद्रबल का वर्णन है,
- इस शासक के ताम्रपत्र मिले है जो की रायपुर के संग्रहालय में विधमान है,
- प्रवरराज – इसके लेख हमें ठाकुरदिया (सारमगढ़ और मल्हार से प्राप्त हुए है)
महाप्रवरराज द्वितीय
- इस वंश का अंतिम और अयोग्य शासक था,
- इसके समय में पांडूवंश और सोमवंश ने आक्रमन किया था, और शरभ पुरिय वंश को समाप्त कर दिया था,
- प्रवरराज को भांडक के सोमवंशीय शासक तीवरदेव ने हराया था, और इसी से इस वंश की समाप्ति हो गई,
- प्रवरराज द्वितीय को हराकर सुदेवराज के सामंत इन्द्रबल ने पाण्डुवंश की नीव राखी।
4. पांडूवंश
- संस्थापक – उदयिन
- राजधानी – सिरपुर
- राज्य में इनकी दो शाखाएं थी।
- प्रथम – मैकल श्रेणी में स्थित पाण्डुवंश जो की मूल शाखा थी
- द्वितीय – दक्षिण कोसल के सोमवंशी जो की लिंगाधिपति की उपाधि धारण करते थे।
- शासन काल – छठवीं शताब्दी में
- आदिपुरुष -उदयन (इसका उल्लेख कालंजर शिलालेख mp झाँसी)
- वैष्णवधर्म के अनुयायी थे।
- इस वंश का प्रथम राजा उदयन था.
- इसकी राजधानी सिरपुर थी.
महाशिव तीवर देव
- तीवरदेव इस वंश का पराक्रमी शासक था, जिसने कोसल और उत्कल को जीतकर- सकल कोसलाधिपति की उपाधि धारण की थी,
- पाण्डु वंश का उत्कर्ष काल मन जाता है।
- उपाधि – सकलकोसलाधिपति
चन्द्रगुप्त
- साक्ष्य – लक्ष्मण मंदिर के गर्भगृह के शिलालेख से (सिरपुर)
महान्नन
- उर्फ़ ननंद देव द्वितीय, इसके ताम्रपत्र सक्की तहसील से प्राप्त हुए है.
- ताम्रपत्र में एक अष्टद्वार में एक ग्राम दान में छिप जाने का उल्लेख है.
हर्ष गुप्त
- विवाह – मगध के राजा सूर्य वर्मा की पुत्री से (मौखरि वंश )
- पत्नी – वासटा देवी
- प्रमुख निर्माण – सिरपुर की लक्ष्मण मंदिर लाल ईंटों से
- निर्माणकर्ता – वासटा देवी हर्षगुप्त की पत्नी
- इस वंश का एक शासक है, जिसने वासटा देवी से विवाह किया था,
- इनके पुत्र महाशिवगुप्त बालार्जुन थे,
महाशिवगुप्त बालार्जुन
- समय – 595 से 655 ई.
- साक्ष्य – 27 ताम्रपत्र सिरपुर
- छत्तीसगढ़ का सवर्ण युग इस काल को कहा जाता है।
- इसकाल की अद्भुत धातु प्रतीमा – तारादेवी
- प्रमुख बौद्ध धर्म केंद्र – सिरपुर
- परम महेश्वर की उपाधिधारण की।
- महाशिवगुप्त बालार्जुन बाल्यावस्था में ही धनुर्विद्या में पारंगत थे जिसके कारण इन्हें बालार्जुन कहा जाने लगा,
- इसने लम्बे समय तक शासन किया, महाशिव गुप्त के 27 ताम्रपत्र सिरपुर में मिले है, इतने प्राचीन ताम्रपत्र अब त्क किसी भी शासक के नही मिले है,
- अभिलेखों के अनुसार इसने पृथ्वी को जित लिया था,
- हर्षगुप्त की मृत्यु के बाद महाशिवगुप्त के शासन काल में इनकी माता वासटा देवी ने अपने पति की स्मृति में सिरपुर में प्रख्यात लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया, लक्ष्मण मंदिर (भगवान् विष्णु का मंदिर है)
- सिरपुर बौद्ध धर्म का प्रसिद्ध केंद्र था, यह मंदिर इटो से निर्मित गुप्तकालीन कला का सर्वश्रेष्ठ मंदिर है.
- महाशिवगुप्त ने 60 साल तक शासन किया,
- ये शैव धर्म के अनुयायी थे,
- इसी के समय प्रसिद्ध चीनी यात्री व्हेनसांग 639 ई. में सिरपुर की यात्रा में आया था,
- व्हेनसांग ने इस क्षेत्र का वर्णन “किया –सो-लो” के नाम से यात्रा वर्णन किया है,
- इसके समय में दो बौद्ध विहार बने थे – आनंदप्रभू कुटी विहार, स्वास्तिक विहार
- महाशिवगुप्त वर्धन वंश के शासक हर्षवर्धन के समकालीन थे,
5. सोमवंश
- छत्तीसगढ़ में दो सोमवंश हुए
1. दक्षिण कोसल के सोमवंश
- पांडू वंश की समाप्ति के बाद दसवीं शताब्दी ई. के लगभग दक्षिण कोसल पर सोमवंशी शासको का राज्य स्थापित हुआ,
- ये अपने आपको कोसल,कलिंग और उत्कल का स्वामी मानते थे,
- कुछ इतिहासकार सोमवंश को पांडूवंश की ही एक शाखा मानते है,
- इस वंश का पहला शासक शिवगुप्त था, जो एक प्रातापी शासक था,
- इसके बाद जन्मेजय महाभवगुप्त प्रथम, कौशल के राजा बने जिसने ओड़िसा को जित कर “ त्रिकलिंग का अधिपति” की उपाधि धारण की
- दक्षिण के राजा राजेन्द्र चोल ने कोसल तथा उत्कल को जित कर अपने अधिपत्य में ले लिया, बाद में परवर्ती सोमवंशी शासक महाशिव गुप्त ने अपने राज्य क्षेत्र को पुनः प्राप्त कर लिया.
- इस वंश का अंतिम शासक उद्योग केसरी था.
- उद्योग केसरी के राजस्व काल 11 वीं सदी में दक्षिण कोसल पर त्रिपुरी के कलचुरीवंश की लहुरिशाखा ने अधिकार स्थापित कर लिया.
2. कांकेर के सोमवंश
- कांकेर (बस्तर ) क्षेत्र पर शासन करने वाला एक प्राचीन वंश सोमवंश था,
- कांकेर और उसके आस-पास के स्थानों से प्राप्त अभिलेखों से इस वंश के बारे में जानकारी प्राप्त होती है,
- ये अभिलेख शक् संवत 1242 का है,
- सोमवंश का प्रथम राजा- सिंहराज था
- सिंहराज के बाद – व्याघ्रराज, बोपदेव,कृष्ण,जैतराज, सोमचंद्र, व् भानुदेव गद्दी पर आसीन हुए.
- तहलकापर में पम्पाराज के दो ताम्रपात्र लेख मिले है, जिसमे पम्पराज के पिता सोमदेव और सोमदेव के पिता बोपदेव का उल्लेख है,
- कांकेर के सोमवंशीय शासक रतनपुर के कलचुरी केअधीन (मांडलिक) शासन कर रहे थे.
नागवंश
- छ.ग. में नागवंश की दो शाखाओ ने शासन किया था,
- बस्तर का छिंदक नागवंश
- कवर्धा के फणिनाग वंश
6. बस्तर का छिंदक नागवंश
- इस समय बस्तर का प्राचीन नाम चक्रकूट या भ्रमरकूट था,
- बस्तर में छिंदकनागवंशी का शासन था, इन्हें छिंदक या सिदवंशी भी कहते थे,
- दक्षिण कोसल में कलचुरी राजवंश का शासन था, इसी समय बस्तर में छिंदक नागवंश का शासन था,
- चक्रकोट में छिंदक नागवंशो ने 400 वर्षो तक शासन किया, ये दसवीं सदी के आरम्भ से सन् 1313 ई. तक शासन करते रहे,
- चक्रकोट का प्रथम शासक नृपतिभूषण थे,इनका काल 1060 ई. था, ( इसका उल्लेख ऐरिकोट से प्राप्त शक संवत 445 ( 1023 ई. ) के शिलालेख में मिलता है,
- इस वंश का दूसरा शिलालेख- बारसूर से प्राप्त हुआ है,
- इस वंश की राजधानी – भोगवतिपुरी थी,
- बस्तर को कुम्भावती भी कहते थे,
- बस्तर के नागवंशी भोगवती पुरेश्वर की उपाधि धारण करते थे,
- इस वंश का तीसरा शासक – मधुरान्तक देव था,
प्रमुख शासक
सोमेश्वर देव प्रथम
- ये सभी शासको में सबसे योग्य शासक थे, इसने अपने पराक्रम के बल पर एक विशाल राज्य की स्थापना का प्रयास किया,
- सोमेश्वर प्रथम – का संघर्ष रतनपुर के कलचुरी शासक जाजल्यदेव से हुआ था,
- जाजल्यदेव ने सोमेश्वर को पराजित कर बंदी बना लिया था,
- सोमेश्वर देव ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया था,
- छिंदक नागवंशो का महत्वपूर्ण केंद्र बारसूर था,
- इस काल में बारसूर में अनेक मंदिरों एवं तालाबो का निर्माण कराया गया, – मामा-भांजा मंदिर, बत्तीसा मंदिर, चंद्रादित्येश्वर मंदिर, आदि इस काल की ही देन है
कन्हर देव
- सोमेश्वर की मृत्यु के बाद ये सिंहासान पर बैठे, इनका कार्यकाल 1111-1122 ई. तक था,
- कन्हार्देव के बाद – जयसिंह देव, नरसिंह देव, कन्हरदेव द्वितीय, शासक बने,
हरीशचंद्रदेव
- इस वंश का अंतिम शासक था,
- इसे वारंगल के चालुक्य अन्नमदेव ने परास्त किया था, और छिंदक नागवंश को समाप्त कर दिया,
7. कवर्धा के फणिनाग वंश
- नागवंशियो की एक शाखा फणिनाग वंश ने 9 वीं – 15 वीं सदी तक कवर्धा में शासन किया था,
- यह वंश कलचुरीवंश की प्रभुसत्ता स्वीकार करता था,
- इस वंश का विवरण – चौरागांव के समीप स्थित भग्नावशेष मड़वा महल के शिलालेख एवं भोरमदेव मंदिर के अभिलेख से मिलता है,
- मड़वा महल शिलालेख में फणिनाग वंश की उत्पत्ति से लेकर राजा राम चन्द्र तक के राजाओं की वन्शावली दी गई है,
- फणिनाग वंश के संस्थापक – राजा अहिराज है,
- इसके क्रमशः शासक है – राजल्ल, धरनीधर,महिलदेव,सर्ववादन, गोपालदेव,नालदेव, भुवनपाल , कीर्तिपाल, जयपाल, महिपाल, आदि है
- गोपालदेव – इन्होने 11 वीं शताब्दी (1089 ई.) में भोरमदेव का मंदिर स्थापित किया है,
- रामचंद्र देव – 14 वीं शताब्दी (1349 ई.) में मड़वा महल का निर्माण करवाया
- इनका विवाह कलचुरी वंश की राजकुमारी अम्बिकादेवी से हुआ था,
8. काकतीय वंश
- वारंगल के चालुक्य अन्नमदेव (काकतीय) ने बस्तर के छिंदकनाग वंश के शासक हरिशचंद्र देव को 1313 ई. में परास्त किया.
- अन्नमदेव 1324 ई. में सत्तासीन हुआ, उसने दंतेवाड़ा में प्रसिद्ध दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण कराया
- इनकी राजधानी मंधोता थी,
- 1948 ई. तक काकतीय वंश का शासन चलता रहा,
इस वंश के प्रमुख शासक
अन्नमदेव
- इस वंश के प्रमुख शासक थे, इनका समय (1324-1369 ई.) तक था,
- इन्होने ने चंदेली राजकुमारी “सोन्कुंवार” से विवाह किया,
- दंतेवाडा का दंतेश्वरी देवी के मंदिर का निर्माण ग्राम -तराला मा करवाया,
- लोक गीतों में इन्हें “चालकी बंस” कहा जाता था,
- इसने अपनी राजधानी, चक्रकोट (बारसूर) से मंधोता में स्थापित की,
हमीर देव
- शासन (1369 – 1410 ई.) था
- ओड़िसा के इतिहास में भी इनका वर्णन है,
भैरव देव
- शासन (1410-1470 ई.)
- इनकी पत्नी मेघावती आखेट विद्या में निपुण थी,
- मेघावती की स्मृति में आज बी मेघी साड़ी बस्तर में प्रचलित है,
पुरुषोत्तम देव
- शासन (1468 -1534 ई.)
- इसने मंधोता से अपनी राजधानी स्थानांतरित कर बस्तर को राजधानी बनाया गया,
- बस्तर का दशहरा, गोंचा पर्व, बस्तर की रथयात्रा का प्रारम्भ करवाया,
- ओड़िसा के राजा ने इन्हें रथपति की उपाधि दी,
प्रतापराज देव
- शासन (1602 -1625 ई.)
- नरसिंह देव के बाद अत्यंत प्रातापी राजा थे,
- इसी के समय में गोलकुंड के कुलिकुतुब शाह की सेना, बस्तर की सेना से पराजित हुई थी,
जगदीश राज देव
- शासन (1625-1639 ई.)
- गोलकुंडा के अब्दुल्ला क़ुतुब शाह के द्वारा अनेक धर्मान्धतापूर्ण असफल आक्रमण किया था,
वीरसिंह देव
- शासन (1654 -1680 ई.)
- इसने अपने शासन काल में राजपुर का दुर्ग बनवाया,
राजपाल देव
- शासन ( 1709 -1721 ई. )
- बस्तर के पुराणों में इनका नाम रक्षपाल देव लिखा हुआ है,
- इन्होने प्रौढ़ प्रताप चक्रवाती की उपाधि धारण की
- ये दंतेश्वरी देवी ( मनिकेश्वरी देवी) के उपासाक थे,
चंदेल मामा
- शासन ( 1721 – 1731 ई. )
- ये चंदेल वंश के थे, और राजकुमार के मामा थे,
- इन्हें दलपत देव ने मारा था,
दलपत देव
- शासन ( 1731-1734 ई.)
- इसके शासन काल में रतनपुर राज्य भोंसले के अधीन हो गया था,
- इसके काल में बस्तर में भोंसले वंश के सेनापति निलुपंत ने पहली बार आक्रमण किया, और वह आसफल रहा,
- इसने 1770 में अपनी राजधानी बस्तर से जगदलपुर स्थानांतरित कर ली,
- इसके शासन काल में ही बंजारों द्वारा वस्तु विनिमय (गुड़,नमक) का व्यापर आरम्भ हुआ,
अजमेर सिंह
- शासन (1774-1777 ई.)
- बस्तर क्रांति का मसीहा अजमेर सिंह को माना जाता है,
- दरियादेव व अजमेर सिंह के मध्य युद्ध हुआ था जिसमे अजमेरसिंह की विजय हुई थी,
- इसके समय में कंपनी सरकार, के प्रमुख जानसन व जपर की सेना ने पूर्व से और भोंसले के अधीन नागपुर की सेना ने पश्चिम से आक्रमण किया, जिसमे अजमेर सिंह पराजित हो गया,
दरियादेव
- शासन (1777-1800 ई.)
- इसने अजमेर सिंह के खिलाफ षडयंत्र कर मराठो की सहायता की थी,
- 6 अप्रल 1778 ई. में दरियादेव ने कोटपाड़ संधि की, जिसके परिणामस्वरूप बस्तर नागपुर की रियासत के अंतर्गत रतनपुर के अधीन आ गया,
- इसने मराठो की अधीनता स्वीकार कर लिया था,और प्रतिवर्ष मराठो को 59000 तकोली देना स्वीकार किया,
- इसी के समय में बस्तर छ.ग. का अंग बना, 1795 ई. में भोपालपट्टनम का संघर्ष हुआ था,
- कैप्टन ब्लंट पहले अंग्रेज यात्री थे जो 1795 ई. में इन्ही के काल में बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रो की यात्रा की थी, ये बस्तर में प्रवेश नही कर पाए परन्तु कंकर की यात्रा की,
महिपाल देव
- शासन (1800 -1842 ई.)
- ये दरियादेव के बड़े पुत्र थे, इन्होने भोसले वंश को तकोली देने से मन कर दिया था,
- जिसके कारण व्यान्कोजी भोंसले के सेनापति रामचंद्र बाघ के नेत्रित्व में बस्तर पर आक्रमण कर दिया,
- महिपाल देव की हार के बाद 1830 ई. में सिहावा परगना मराठो को देना पड़ा,
- महिपाल देव अंग्रेजो के अप्रत्यक्ष शासन काल में बस्तर का पहला शासक था,
- इसी के समय में परलकोट का विद्रोह हुआ था,
भूपालदेव
- शासन (1842 -1853 ई.)
- इसके शासन काल में मेरिया विद्रोह और तारापुर का विद्रोह हुआ था,
- दलगंजन सिंह इसका सौतेला भाई था, जिसे तारापुर परगना का जमींदार बनाया गया,
भैरमदेव
- शासन ( 1853-1891 ई.)
- ये अंग्रेजो के अधीन पहला शासक था,
- इसके काल में 1856 ई. में छ.ग. संभाग का कमिश्नर चार्ल्स इलियट ( पहला यूरोपीय) बस्तर आया था,
रानी चोरिस
- शासन (1878 -1886 ई.)
- छ.ग. की पहली विद्रोहिणी महिला थी,
रूद्रप्रताप देव
- शासन ( 1891-1921 ई. )
- इन्होने रायपुर के राजकुमार कॉलेज से शिक्षा प्राप्त की थी,
- इनकी माता प्रफुल्ल कुमारी देवी थी, इनका राज्यभिषेक 1908 ई. में हुआ,
- इसने रुद्र्प्रताप देव पुस्तकालय की स्थापना करवाई,
- सडको का निर्माण कराया, और जगदलपुर को चौराहों का शहर बनवाया,
- यूरोपीय युद्ध में अंग्रेजो की सहायता करने के कारन इन्हें सेंत ऑफ़ जेरुसलम की उपाधि दी गई,
- 1910 ई. में इसके शासन काल में भूमकाल का विद्रोह हुआ था,
- इसके शासन काल में घैटीपोनी प्रथा प्रचलित थी, जो स्त्री विक्रय से सम्बंधित थी,
प्रफुल्ल कुमार देवी
- शासन (1922 -1936 ई.)
- छ.ग. की पहली व एकमात्र शासिका थी,
- इनके पति प्रफुल्लचंद भंजदेव था, जो की मयुरभंज के राजकुमार थे,
- 1936 में इनकी मृत्यु लन्दन में हुई, ये अपेंडी साईंटिस नामक रोग से ग्रसित थी,
- इनके पुत्र का नाम प्रविरचंद भंजदेव था,
प्रविरचंद भंज देव
- शासन (1936-1961 ई.)
- ये अंतिम काकतीय शासक थे, जिनका 12 वर्ष की उम्र में राज्याभिषेक हुआ,
- सबसे कम उम्र के प्रसिद्ध विधायक थे, 1966 ई. में गोलीकांड में इनकी मृत्यु हो गई,
- 1948 में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया.
इन्हें भी देखे
- छत्तीसगढ़ का इतिहास
- छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
- छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास
- छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास
- छत्तीसगढ़ के प्रमुख राजवंश
- छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की शासन व्यवस्था
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