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छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातिया

छत्तीसगढ़ की प्रमुख जनजातिया

बैगा जनजाति

बैगा जनजाति के आजीविका का प्रमुख साधन है शिकार करना एवं वन के कंदमूल इत्यादि इकट्ठे करना एवं बेचना। कंदमूल के अलावा तेन्दूपत्ता, गोंद, लाख, शहद, भेलवा, तीखुर इत्यादि इकट्ठे करते है बेचने के लिए छोटे पशु पक्षियों का शिकार करते है आजीविका के लिये, इनके प्रमुख गोत्रों में से है – मरकाम, परतेती, तेकाम, नेताम, धुर्वे, भलावी। शादियों में बहु पक्ष को चावल, दाल, लकड़ी, तेल, गुड़, मंद बकरा दिया जाता है। विवाह के वक्त रस्मे बुर्जुग व्यक्तियों द्वारा कराया जाता है।

इनके प्रमुख देवी देवता हैं बूढ़ा देव, ठाकूर देव, नागदेव, भीमसेन, धरती माता, खैरमाई, रातमाई, बुढ़ीमाई। प्रमुख त्यौहारों में से है हरेली, नवाखानी, दशहरा, दीवाली, करमा पुजा, होली।

बैगा जनजाति नृत्य और गीत में बड़े माहिर है। प्रमुख लोकनृत्य है करमा, बिमला, लंहगी, झटपट, और लोकगीत है – करमा, ददरिया, सुआ, माता गीत, विवाह गीत।

गोंड जनजाति –

भारत की अति प्राचीन जाति है गोंड। प्राचीन समय से ही इसकी बस्तियाँ छोटे छोटे राज्यों में बँटी हुई थी। सारे गोंडवाना प्रदेश में गोंड जाति के सरदारों का बहुत महत्व था। ऐसा कहा जाता है कि इनके राजा संग्रामसिंह अत्यन्त साहसी राजा थे। उनके 42 गड़ थे। अठारवीं शताब्दी में तीन गोंड राज्यों को नागपुर के भोंसला राजा ने अपने राज्य में मिला लिया था।
गोंड लोग 12 उपशाखाओं में विभाजित है – राजगोंड़, रघुवलि, ददेव, कललिया, पादल, धोली, ओझयाल, थोटयाल, कोयला मूतुप्ले, कोइकोयाल, कोलाम, मुदयाल।

इन लोगों के वंश या तो किसी पेड़ पौधें के नाम पर होते हैं या किसी जानवर के नाम पर – जैसे कच्छवंश, नागवंश, बकुलवंश, तेंदुवंश, प्रकृति के नजदीक रहते है ये लोग और इसी कारण से वे निर्लोभी होते है, निर्मल चरित्र के होते है।
गोंड लोग स्वभाव से कार्यप्रिय होते है। दिनभर किसी न किसी प्रकार के कार्य में लगे रहत् है। पुरुष और स्री, दोनों में शारीरिक शक्ति है।

वे लगातार कुछ न कुछ करते रहते है जैसे जंगली भूमि साफ करना, खेती करना, टोकरी बनाना, शहत और लाख खोजना और फिर जमा करना, शिकार करना, बीज फल इक्ट्टा करना, गोंद इक्ट्टा करना, चटाई बुनना, झोपड़ी बनाना, वाद्य यन्त्र बनाना, मुर्गी, सुअर, गाय, भैंस आदि पालना, पानी भरना, खाना पकाना, उपले बनाना, रंग बनाना आदि। गोंड जाति के लोग बड़े ही सृजनशील होते है। अपनी झोपड़ियों को भिन्न रंग की मिट्टी से लीपती हैं। बड़े आकर्षक दिखते है ये झोपड़ियाँ।

गोंड जाति के बच्चों तक को चिड़ियों और पेड़ो का बहुत ज्ञान होता है। चिड़ियों की बोली को वे समझते है। इनके वैद्य को वनस्पतियों का ज्ञान होने के कारण वे वनस्पतियों की औषधि देते है।
गोंड जाति के लोग प्रकृति के बारे में बहुत जानकारी रखते है। प्रकृति के साथ मिल जूलकर रहने के कारण बादलों को देखकर बता देते है कि पानी कब बरसेगा। तारे देखकर रात्रि के प्रहरों का ज्ञान लगा लेते है।

इनके महीनों के नाम इस प्रकार होते है – पूस, माघ, फागुन, चैत, मूर, नई, हाध, इरन्ज, इयाम, ओरका, पन्दी।

गोंड लोग वन देवी की उपासना करते है। जंगल में इनका ज्यादा समय अतीत होने के कारण वे वन देवी पर प्रगाढ़ आस्था रखते है और इसी कारण वे बिना डर के जीते है।

भिन्न भिन्न स्थानों में भिन्न भिन्न देवों की पूजा होती है। जैसे – इल्दा देव, नराइन देव, सूरज देव, बढ़ा देव, डूँगर देव, भीम देव, ठाकुर देव, 2 बैर।
गोंड जाति में विधवा विवाह की प्रथा है जिससे पता चलता है वे कितने उन्नत मन के है। बहुत बार पति के मर जाने पर पत्नी अपने पति के छोटे भाई से सम्बन्ध कर लेती है। गोंड लोगों में बहु पत्नी की भी प्रथा है।
गोतुल गृह

घोटुल गृह गोंड लोगों के जीवन के लिए बहुत आवश्यक अंग है। घोटुल गृह एक प्रकार के विशेष मकान होते हैं – इस मकान में बस्ती के सारे अविवाहित युवक और युवतियां रात्रि में रहते है। यहां एक बड़ा हाल होता है जहां सभी रहते है और सामने एक बड़ा आँगन होता है जिसमें नाच गाना खेल आदि की व्यवस्था की जाती है। बाँस के बड़े बड़े खम्भों पर घास की छत छाई जाती है। बाँस के बड़े बड़े खम्भों को धारन कहते है। अन्दर जाने का एक दरवाजा होता है। खिड़की नहीं होती है। इन गोतुल गृह में रहने वाले युवकों को “चेलिक” कहते है और युवतियों को कहते है “मोटियारी”। घोटुल का एक नेता होता है। इस नेता को युवक युवतियों सभी मिलकर चुनते है। इस नेता को कहते है “चलाऊ” या “सिल्लेदार”। सिल्लेदार जैसी ही शादी कर लेता है, उसे घोटुल छोडना पड़ता है। घोटुल छोड़कर अलग मकान बनाकर रहता है।

भैना जनजाति 

भैना जनजाति के लोग किसी समय रायपुर के फूलमार जमींदारी में थे। बाद में इनको हराकर इनकी जमींदारी छीन ली थी कंवर और गोंड जनजाति के लोग।

भैना लोगों के आजीविका का साधन था शिकार एवं जंगली कंद मूल इकट्ठे करना।

इनमे अनेक गोत्रों पाये जाते है जैसे नाग, चितवा, बधवा, गिधवा, बेसरा, बेन्दरा, भोधा, मिरचा, बतरिया, दुर्गचिया, मनका, अटेरा, धोबिया आदि।

इनके देवी देवता में है बुढादेव, ठाकुर देव, गोरइंया देव भैसासुर, शीतलमाता।

इनके प्रमुख त्यौहारों में से है दशहरा, दिवाली, होली, कर्मा पुजा नवाखानी।

भैना जनजाति में सभी महिलायें एवं पुरुष लोकगीतों एवं लाकनृत्यों में पारदर्शी है। लोकगीतों जैसे कर्मा, बिहाव, ददरिया, सुआगीत एवं लोकनृत्यों जैसे कर्मा, रीना, बार नृत्य।

विवाह प्रथा में वरपक्ष वधुपक्ष को चावल, दाल, तेल, गुड़, मंद और कुछ नगद रकम देते है। भौना जनजाति में जो विवाही उपजातियाँ पाई जाती है वे है उड़िया लरिया, छलयारा, धटियारा।

परजा जनजाति

छत्तीसगढ़ के जनजातियों में परजा जनजाति है जिनके संख्या बहुत ही कम है। अगर हम उड़ीसा और आन्ध्रप्रदेश में इनकी गिनती करेंगे, तो देखेंगे कि उन दोनो राज्यों में उनकी संख्या ज्यादा है।

परजा जनजाति में अनेक गोत्र पाये जाते है जैसे बाघ, बोकरा, गोही, पड़वी, नाग नेताम, कश्चिम आदि। परजा जनजाति के युवक युवतियां खुद अपने जीवन साथी चुनते है उनकी शादी में युवती को युवक के धर में लाया जाता है एवं वहाँ उनकी शादी होती है। दो मंडप बनाये जाते है शादी के लिये परजा जाति के बुजुर्गो हल्दी लगाने और फेरा लगवाने का कार्य करते है।

परजा जनजाती का मानना है कि सूर्य से उनकी उत्पत्ति हुई थी। उनके प्रमुख देवतायें देवियाँ है – बुढ़ा देव, ठाकुर देव, बुढ़ी माई, दन्तेश्वरी माई।

परजा जनजाति के सभी जन नृत्य में कुशल है एवं संगीत इनके रग रग में बसे हुये है। प्रमुख लोक नृत्यों में है कैकसार,परजी।

 

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