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छत्तीसगढ़ के कुछ प्रमुख लोकगीत

छत्तीसगढ़ के कुछ प्रमुख लोकगीत

छत्तीसगढ़ के कुछ प्रमुख लोकगीत – छत्तीसगढ़ के नृत्य समस्त भारत में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं। यहाँ के नृत्य और लोक कथाएँआदि इसकी संस्कृति को महत्त्वपूर्ण बनाती हैं। छत्तीसगढ़ का लोक नृत्य कथाओं की दृष्टि से बहुत समृद्ध है। मानव की प्राचीनतम संस्कृति यहाँ भित्ति चित्रों, नाट्यशालाओं, मंदिरों और लोक नृत्यों के रूप में आज भी विद्यमान है।

छत्तीसगढ़ की लोक रचनाओं में नदी-नाले, झरने, पर्वत और घाटियाँ तथा शस्य यामला धरती की कल्पना होती है।  मध्य काल में यहाँ अनेक जातियाँ आयीं और अपने साथ आर्य संस्कृति भी ले आयीं।

छत्तीसगढ़ के लोक नृत्यों में बहुत कुछ समानता होती है। ये नृत्य मात्र मनोरंजन के साधन नहीं हैं, बल्कि जातीय नृत्य, धार्मिक अनुष्ठान ओर ग्रामीण उल्लास के अंग भी हैं।

देव- पितरों की पूजा-अर्चना के बाद लोक जीवन प्रकृति के सहचर्य के साथ घुल मिल जाता है। यहाँ प्रकृति के अनुरूप ही ऋतु परिवर्तन के साथ लोक नृत्य अलग-अलग शैलियों में विकसित हुआ।

यहाँ के लोक नृत्यों मे मांदर, झांझ , मंजीरा और डंडा प्रमुख रूप से प्रयुक्त होता है।
छत्तीसगढ़ के निवासी नृत्य करते समय मयूर के पंख, सुअर के सिर्से, शेर के नाखून, गूज, कौड़ी और गुरियों की माला आदि आभूषण धारण करते हैं।

छत्तीसगढ़ के प्रमुख लोक नृत्य इस प्रकार हैं

1. पंथी नृत्य
2. ककसार नृत्य
3. मुरिया नृत्य
4. रावत नृत्य
5. सुआ नृत्य
6. डंडा नृत्य
7. डोमकच नृत्य
8. गैड़ी नृत्य
9. कर्मा नृत्य
10. सरहुल नृत्य
11. गौर माड़िया नृत्य
12. पण्डवानी नृत्य

कुछ प्रमुख लोक-गीत इस प्रकार हैं
1. सुआ गीत 

छत्तीसगढ़ में सुआ गीत प्रमुख लोकप्रिय गीतों में से है। सुआ गीत का अर्थ है सुआ याने मिट्ठु के माध्यम से स्रियां सन्देश भेज रही हैं। सुआ ही है एक पक्षी जो रटी हुई चीज बोलता रहता है। इसीलिए सुआ को स्रियां अपने मन की बात बताती है इस विश्वास के साथ कि वह उनकी व्यथा को उनके प्रिय तक जरुर पहुंचायेगा। सुआ गीत इसीलिये वियोग गीत है। प्रेमिका बड़े सहज रुप से अपनी व्यथा को व्यक्त करती है। इसीलिये ये गीत मार्मिक होते हैं। छत्तीसगढ़ की प्रेमिकायें कितने बड़े कवि हैं, ये गीत सुनने से पता चलता है। न जाने कितने सालों से ये गीत चले आ रहे हैं। ये गीत भी मौखिक ही चले आ रहे हैं।
सुआ गीत हमेशा एक ही बोल से शुरु होता है और वह बोल हैं –
“”तरी नरी नहा नरी नहा नरी ना ना रे सुअना”
और गीत के बीच-बीच में ये दुहराई जाती हैं। गीत की गति तालियों के साथ आगे बढ़ती है।

2. भोजली गीत 

भोजली गीत छत्तीसगढ़ की और एक पहचान है। छत्तीसगढ़ के बधुओं ये गीत सावन के महीने में गाती रहती है। सावन का महीना, जब चारों ओर हरियाली दिखाई पड़ती है। कभी अकेली गाती है कोई बहु – तो कभी सब के साथ मिलकर। छत्तीसगढ़ के नन्हें बच्चे पलते हैं इस सुरीले माहौल में और इसीलिये वे उस सुर को ले चलते हैं अपने साथ, जिन्दगी जीते है उसी सुर के बल पर।

बचपन से देखते है वे अपनी माँ को, दादी को, मौसी को। जब नानी धान कूटती है, तो गीत गाती हुई कुटती रहती है। बुआ जब रसोई में खाना बनाती है, तो उसके गीत पूरे माहौल में गुजंते रहते हैं। खेत के बीच से जब बच्चे गुजरते है स्कूल की ओर, खेतों में महिलाये धान निराती है और गाती है भोजली गीत। उसी गीत को अपने भीतर समेटते हुये वहाँ से गुजरते है नन्हें नन्हें बच्चे।

भोजली याने भो-जली। इसका अर्थ है भूमि में जल हो। यहीं कामना करती है महिलायें इस गीत के माध्यम से। इसीलिये भोजली देवी को अर्थात प्रकृति के पूजा करती है।

3. गौरा गीत 

छत्तीसगढ़ में गऊरा गऊरी उत्सव बड़े धूमधाम के साथ मनाया जाता है। गऊरा है शिव तथा गऊरी है पार्वती। यह लोक उत्सव हर साल दीवाली और लक्ष्मी पूजा के बाद मनाया जाता है। कार्तिक महीने की कृष्ण पक्ष अमावस्या के वक्त यह उत्सव मनाया जाता है। इस पूजा में सभी जाति समुदाय के लोग शामिल होते हैं।

शुरुहुत्ति त्यौहार इस अंचल में दीपावली पूजा के दिन को कहते हैं। अर्थात् त्यौहार की शुरुआत। शाम चार बजे उस दिन लोग झुंड में गांव के बाहर जाते हैं और एक स्थान पर पूजा करते हैं। उसके बाद उसी स्थान से मिट्टी लेकर गांव वापस आते हैं। गांव वापस आने के बाद मिट्टी को गीला करते हैं और उस गीली मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्ति बनाते हैं। शिव है गऊरा – गऊरा है बैल सवारी और पार्वती याने गऊरी है सवारी कछुए की।

ये मूर्तियां बनाने के बाद लकड़ी के पिड़हे पर उन्हें रखकर बड़े सुन्दरता के साथ सजाया जाता है। लकड़ी की एक पिड़हे पर बैल पर गऊरा और दूसरे पिड़हे पर कछुए पर गऊरी। पिड़हे के चारों कोनों में चार खम्बे लगाकर उसमें दिया तेल बत्ती लगाया जाता हैं। बड़े सुन्दर दृश्य है। रात को लक्ष्मी पूजा के बाद रात बारह बजे से गऊरा गऊरी झांकी पूरे गांव में घूमती रहती है। घूमते वक्त दो कुंवारे लड़के या लड़की गऊरा गऊरी के पिड़हे सर पर रखकर चलते हैं। और आसपास गऊरा गऊरी गीत आरम्भ हो जाते हैं, नाच-गाना दोनों ही आरम्भ हो जाते हैं। गाते हुए नाचते हुए लोग झांकी के आसपास मंडराते हुए गांव की परिक्रमा करते हैं।

कुछ पुरुष एवं महिलाए इतने जोश के साथ नाचते हैं कि वे अलग न आते हैं। लोगों का विश्वास है उस वक्त देव देवी उन पर सवार होते हैं। गऊरा लोक गीत सिर्फ महिलाए ही गाती हैं । महिलायें गाती हैं और पुरुष बजाते हैं दमऊ, सींग बाजा, ठोल, गुदुम, मोहरी, मंजीरा, झुमका, दफड़ा, ट्रासक, इसे गंडवा बाजा कहते हैं क्योंकि इन वाद्यों को गांडा जाति के लोग ही बजाते हैं।
इस उत्सव के पहले जो पूजा होती है, वह बैगा जाति के लोग करते हैं। इस पूजा को कहते हैं चावल चढ़ाना, क्योंकि गीत गाते हुये गऊरा गऊरी को चावल चढ़ाया जाता है ।

4. पंथी गीत 

सतनामी संप्रदाय द्वारा गाय जाने वाले इस नृत्य-गीत में अध्यात्म की महिमा का वर्णन होता है।

5. सोहरा गीत 

जन्म संस्कार विषयक गीत को “सोहर गीत’ कहा जाता है। किंतु यह गीत गर्भावस्था की सुनिश्चितता के साथ ही जन्मोत्सव तक गाए जाते हैं। इस प्रकार के गीत पुत्र जन्म की अपेक्षा में अधिक गाए जाते हैं।

6. बरुआ गीत 

उपनयन संस्कार के समय गाए जाने वाले गीत को “बरुआ गीत’ कहा जाता है।

7. विवाह गीत 

विवाह समारोह के विभिन्न अवसरों पर इन्हें गाया जाता है। वर पक्ष तता वधू पक्ष द्वारा गाए जाने वाले विवाह गीतों में भिन्नता होती है।

8. मृत्यु संस्कार गीत 

इस प्रकार के गीत राज्य के कबीर-पंथी समाज में प्रचलित हैं, जो “आत्मा’ को गुरु के बोल सुनाने हेतु गाए जाते हैं।

9. भजन गीत 

इन गीतों में संतों की निर्गुण एवं सगुण उपासना का भावनापूर्ण वर्णन होता है।

10. करमा गीत 

करमा गीत एंव करमा नृत्य मनोरंजन के गीत है नृत्य है। करमा गीत, अगर देखा जाये तो बारिश शुरु होने के साथ गाये जाने लगते है और फसल के कट जाने तक गाये जाते हैं। इस गीत को करमा गीत क्यों कहा गया है, इस नृत्य को करमा नृत्य क्यों कहा गया है – इसके बारे में अनेक कहानियाँ प्रचलित है।

इसके संदर्भ में करम देवता की बात कही जाती है कि करम अर्थात् कर्म देवता की पूजा के बाद गीत गाये जाते है और नृत्य किये जाते है। इसीलिए इसे करमा गीत नृत्य कहते है। कुछ लोगों का कहना है कि बहुत साल पहले एक राजा हुआ करता था जिनका नाम था करमसेन। राजा करमसेन के जिन्दगी में अचानक विपत्ति आ गई। राजा ने हिम्मत नहीं हारी। उसने भगवान से मन्नोति मानी और भगवान के सामने नृत्य किया गया, गीत गाया गया। धीरे धीरे उनकी सारी समस्यायें दूर हो गई। उसी समय से उस नृत्य और गीत को उसी राजा के नाम से जाना गया।

11. राउत गीत 

प्रत्येक वर्ष कार्तिक शुक्ल एकादशी से प्रारंभ होकर लगभग 10 दिन तक चलने वाले उत्सव में यह नृत्य-गीत “राऊत’ समाज में गाया जाता है।

12. होली गीत 

होलिका दहन के पश्चात् इन गीतों को सामूहिक रुप से गाया जाता है। इस गीत को “फाग गीत’ कहते हैं।

13. बारहमासी गीत 

इस गीत को गाने का कार्यक्रम जेठ माह से प्रारंभ होता है और इसमें ॠतुओं का वर्णन एवं महिमा व्यक्त की जाती है।

14. मांझी गीत 

राज्य के जशपुर क्षेत्र की पहाड़ियों में बसे लोगों द्वारा गाए जाने वाला यह नृत्य-गीत अत्यंत कर्ण-प्रिय होता है।

15. बांस गीत 

बाँस गीत के गायक मुख्यत: रावत या अहीर जाति के लोग हैं। छत्तीसगढ़ में राउतों की संख्या बहुत है। राउत जाति यदूवंशी माना जाता है। अर्थात इनका पूर्वज कृष्ण को माना जाता है। ऐसा लगता है कि गाय को जब जगंलों में ले जाते थे चखने के लिए, उसी वक्त वे बाँस को धीरे धीरे वाद्य के रुप में इस्तमाल करने लगे थे। शुरुआत शायद इस प्रकार हुई थी – गाय घास खाने में मस्त रहती थी और राउत युवक या शायद लड़का बाँस के टुकड़े को उठा कर कोशिश करता कि उसमें से कोई धुन निकले, और फिर अचानक एक दिन वह सृजनशील लड़का बजाने लग गया उस बाँस को बड़ी मस्ती से।

छत्तीसगढ़ी लोक गीतों में बाँस गीत बहुत महत्वपुर्ण एक शैली है। यह बाँस का टुकड़ा करीब चार फुट लम्बा होता है। यह बाँस अपनी विशेष धुन से लोगों को मोहित कर देता है।

बाँस गीत में एक गायक होता है। उनके साथ दो बाँस बजाने वाले होते है। गायक के साथ और दो व्यक्ति होते है जिसे कहते है “रागी” और “डेही”।

सबसे पहले वादक बाँस को बजाता है, और जँहा पर वह रुकता है अपनी साँस छोड़ता है, वही से दूसरा वादक उस स्वर को आगे बड़ाता है। और इसके बाद ही गायक का स्वर हम सुनते है। गायक लोक कथाओं को गीत के माध्यम से प्रस्तुत करता है। सिर्फ गायक को ही उस लोक कथा की शब्दावली आती है। “रागी” वह व्यक्ति है जिसे शब्दावली नहीं मालूम है शायद पूरी तरह पर जो गायक के स्वर में साथ देता है। “डेही” है वह व्यक्ति जो गायक को तथा रागी को प्रोत्साहित करता है। जैसे “धन्य हो” “अच्छा” “वाह वाह”। उस गीत के राग को जानने वाला है “रागी”।

छत्तीसगढ़ में मालिन जाति का बाँस को सबसे अच्छा माना जाता है। इस बाँस में स्वर भंग नहीं होता है। बीच से बाँस को पोला कर के उस में चार सुराख बनाया जाता है, जैसे बाँसुरी वादक की उंगलिया सुराखों पर नाचती है, उसी तरह बाँस वादक को उंगलिया भी सुराखों पर नाचती है और वह विशेष धुन निकलने लगती है।

रावत लोग बहुत मेहनती होते है। सुबह 4 बजे से पहले उठकर जानवरों को लेकर निकल जाते है चराने के लिए। संध्या के पहले कभी भी घर वापस नहीं लौटते। और घर लौटकर भी बकरी, भे, गाय को देखभाल करते है, करनी पड़ती है। पति को निरन्तर व्यस्त देखकर रवताईन कभी कभी नाराज़ हो जाती है और अपने पति से जानवरों को बेच देने को कहती है।

16. ढोला मारु गीत 

राजस्थान के इस अत्यंत चर्चित प्रेम-गीत को छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों में भी बड़ी ही सरसता से गाया जाता है।

17. लोरिक चन्देनी गीत 

लोक कथा पर आधारित यह गीत राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में बड़ी ही उन्मुक्तता से गाया जाता है।

18. पंडवानी गीत

छत्तीसगढ़ का वह एकल नाट्य है, जिसके बारे में दूसरे देश के लोग भी जानकारी रखते हैं। तीजन बाई ने पंडवानी को आज के संदर्भ में ख्याति दिलाई, न सिर्फ हमारे देश में, बल्कि विदेशों में।
पंडवानी का अर्थ है पांडववाणी – अर्थात पांडवकथा, महाभारत की कथा। ये कथा “परधान” तथा “देवार” जातियों की गायन परंपरा है। परधान है गोडों की एक उपजाति और देवार है धुमन्तू जाति। इन दोनों जातियों की बोली, वाद्यों में अन्तर है। परधान जाति के कथा वाचक या वाचिका के हाथ में होता है “किंकनी” और देवारों के हाथों में “र्रूंझू”। परधानों ने और देवारों ने पंडवानी लोक महाकाव्य को पूरे छत्तीसगढ़ में फैलाया।

गोंड जनजाति के लोग पूरे छत्तीसगढ़ में वास करते हैं। परधान गायक अपने जजमानों के घर में जाकर पंडवानी सुनाया करते थे। इसी तरह पंडवानी धीरे धीरे छत्तीसगढ़ निवासी के अवचेतन में अपनी जगह बना ली। देवार जाति, ऐसा कहा जाता है कि गोंड बैगा भूमिया जातियों से बनी है। बैगा है एक जाति। इसके अलावा गांव में देवता के पुजारी को भी बैगा कहा जाता है। ये बैगा झाड़ फूँक में माहिर होते हैं तथा जड़ी बूटियों के बारे में उनका ज्ञान गहरा होता है। मण्डला क्षेत्र में जो ग्राम पुजारी होते हैं, वे अपने आपको बैगा नहीं कहते हैं। वे अपने आप को देवार कहते हैं। देवार गायक भी पंडवानी रामायणी महाकाव्य गाते हैं।

देवार लोग कैसे घुमन्तु जीवन अपना लिया, इसके बारे में अलग अलग मत है। परधान गायक हमेशा गोंड राजाओं की प्रशंसा करते हुए गीत गाया करते थे। उनके गीतों के माध्यम से गोंडो के अतीत जीवित रही है। कुछ लोग परधान को गोंडो के चारण कवि कहते हैं। उनके गोंडवानी और करम सैनी गोंड जनजाति के अतीत के बारे में है जिसमें इतिहास एवं मिथकों की झलके हैं।

परधान पण्डवानी महाभारत पर आधारित होने के साथ-साथ गोंड मिथकों का सम्मिश्रण है। अगर महाभारत का नायक अर्जुन है तो पण्डवानी का नायक है भीम। भीम ही है जो पाण्डवों की सभी विपत्तियों से रक्षा करता है। पण्डवानी में माता कोतमा कुन्ती को कहा गया है। गान्धारी को गन्धारिन। गन्धारिन के इक्कीस बेटे दिखलाए गए हैं। पण्डवानी में जिस क्षेत्र को दिखाया गया है, वह छत्तीसगढ़ ही है। पाण्डव जहाँ रहते थे उसे जैतनगरी कहा गया है। कौरवों के निवास स्थान को हसना नगरी कहा गया है। पण्डवानी में पाण्डव तथा कौरव – दोनों पशुपालक है। पाण्डव और कौरव पशुओं को लेकर चराने जाते थे। पशुओं में थे गाय, बकरियाँ और हाथी। कौरव हमेशा अर्जुन को तंग किया करते थे और भीम ही थे जो कौरवों को सबक सिखलाते थे।

पण्डवानी में कौरवों ने एक बार भीम को भोजन के साथ विष खिलाकर समुद्र में डुबा दिया। भीम जब पाताल लोक में पहुँचता है, सनजोगना उसे अमृत खिलाकर पुनर्जीवित करती है। सनजोगना थी नाग कन्या, पाताल लोक में भीम और सनजोगना का विवाह होता है। कुछ दिन के बाद भीम छटपटाने लगता है, अपना माँ और भाईयों को देखना चाहता है। तब सनजोगना भीम को पाताल लोक से समुद्र तट पर ले आती है।

भीम अपनी माता कोतमा और चार भाईयों के पास पहुँचकर बहुथ खुश हो जाता है। जब कौरवों ने लख महल में पाण्डवो को मारना चाहा, भीम ही था जो पाताल लोक तक एक पथ का निर्माण करता है और सबकी सुरक्षा करता है। इस घटना के बाद भीम अपनी माँ और भाईयों को लेकर बैराट नगर पहुँचता है। बैराट नगर के राजा का नाम संगराम सिंह है। उसी बैराट नगर में कोचक का भीम वध करता है।

पण्डवानी में महाभारत के युद्ध को महाधान की लड़ाई बताया गया है। और इस युद्ध के संदर्भ में द्रौपदी की सोच बहुत ही अलग दिखाई गई है। जैसे द्रौपदी सोचती है कि कौरवों के खिलाफ इस युद्ध में पान्डव कभी जीत नहीं पायेंगे। क्यों न मैं कौरवों से विवाह करु? ये सोचकर द्रौपदी पांडवों को भोजन के साथ विष देती है, और पांडवों की मृत्यु के बाद एक घड़े में हल्दी घोलकर हसनापुर की ओर चल देती है। घड़ा अपने सिर पर रख द्रौपदी चलती रहती है और जब हसनापुर पहुँचती है, तब वह हल्दी पानी कौरव भाईयों पर डाल कर उन इक्कीस भाईयों की पत्नी बन जाती है।

उधर पांडवों को मृत देख माँ कोतमा अयोध्या जाती है और अपने भाई रामचन्द्र को सब बात बताती है। यहाँ महाभारत और रामायण एक हो जाता है। रामचन्द्र पहले अमृत छिड़कते हैं पांडवों पर और उसके बाद बेल का डंडा लाकर उन भाईयों को सुंघाते हैं। पांडव पुनर्जीवित हो जाते हैं। इसके बाद जब भीम द्रौपदी को लेने जाते हैं, द्रौपदी देवी बनकर चारों तरफ आग फैलाती है। उनकी जीभ बाहर निकल आती है और नौ कोस तक फैल जाती है।

द्रौपदी भीम को मारने के लिए अग्रसर होती है। उसके एक हाथ में खप्पर और दूसरे हाथ में कृपाण होता है। उस वक्त भीम अपनी छिंगुली अंगुली काटकर द्रौपदी के खप्पर में रख देता है। इसके बाद द्रौपदी शान्त हो जाती है। जैसे ही द्रौपदी शान्त हो जाती है, वह कहने लगती है – “अब मैं पंडवन को बचाऊँगी कँवरन को खाऊँगी”।

पंडवानी करने के लिए किसी त्यौहार या पर्व की जरुरत नहीं होती है। कभी बी कहीं भी पंडवानी प्रस्तुत कर सकते हैं। कभी-कभी कई रातों तक पंडवानी लगातार चलती रहती है। वर्तमान में पंडवानी गायिका गायक तंबूरे को हाथ में लेकर स्टेज में घूमते हुए कहानी प्रस्तुत करते हैं। तंबूरे कभी भीम की गदा तो कभी अर्जुन का धनुष बन जाता है। संगत के कलाकार पीछे अर्ध चन्द्राकर में बैठते हैं। उनमें से एक “रागी” है जो हुंकारु भरते जाता है और साथ-साथ गाता है, रोचक प्रश्नों के द्वारा कथा को आगे बढ़ाने में मदद करता है।

पंडवानी की दो शैलियाँ हैं – एक है कापालिक शैली जो गायक गायिका के स्मृति में या “कपाल”में विद्यमान है। दूसरी है वेदमती शैली जिसका आधार है शास्र, कापालिक शैली है वाचक परम्परा पर आधारित और वेदमती शैली का आधार है खड़ी भाषा में सबलसिंह चौहान के महाभारत, जो पद्यरुप में हैं।

निरंजन महावर का कहना है “वास्तव में सबलसिंह चौहान ग्रन्थ पर आधारित शैली को पंडवानी न कहकर महाभारत की एक शैली कहा जाना चाहिए चूँकि पंडवानी का छत्तीसगढ़ में प्रचार प्रसार ब्राह्मणेत्तर परधान एवं देवार गायकों के पूर्व में ही स्थापित कर दिया था, इसलिये बाद में विकसित हुई वेदमती शैली के ब्राह्मणेत्तर जाति के कलाकारों ने उसी रुढ़ नाम को अपनी शैली के लिये अपना लिया। उसके कारण वे ब्राह्मण एवं अन्य द्विज जाति के लोगों के इस आरोप से भी बचे रहे कि वे अनधिकृत रुप से महाभारत का प्रवचन करते हैं और दूसरी ओर इन्हें पंडवानी नाम की लोकप्रियता का भी लाभ प्राप्त हुआ।”

वेदमती शैली के गायक गायिक वीरासन पर बैठकर पंडवानी गायन करते है। श्री झाडूराम देवांगन, जिसके बारे में निरंजन महावर का वक्तव्य है “महाभारत के शांति पर्व को प्रस्तुत करनेवाले निसंदेह

वे सर्वश्रेष्ठ कलाकार है।” एवं पुनाराम निषाद तथा पंचूराम रेवाराम पुरुष कलाकारों में है जो वेदमती शैली के अपनाये है। महिला कलाकारों में है लक्ष्मी बाई एवं अन्य कलाकर।

कापालिक शैली की विख्यात गायिक है तीजन बाई, शांतिबाई चेलकने, उषा बाई बारले।

पंडवानी गायक गायिकाओं की लम्बी श्रृंखला है – जैसे ॠतु वर्मा, खुबलाल यादव, रामाधार सिन्हा, फूल सिंह साहू, लक्ष्मी साहू, प्रभा यादव, सोमे शास्री, पुनिया बाई, जेना बाई।

19. देवार गीत 

देवार गीत देवार जाति के लोग गाते है। देवार है छत्तीसगढ़ की भ्रमण शील जाति या धुमन्तु जाति। कभी इधर तो कभी उधर, इसीलिये शायद इनके गीतों में इतनी रोचकता है, इनके आवाज़ में इतनी जादू है।

देवार लोगों के बारे में अनेकों कहनियाँ प्रचलित है जैसे एक कहानी में कहा जाता है कि देवार जाति के लोग गोंड राजाओ के दरबार में गाया करते थे। किसी कारण वश इन्हें राजदरबार से निकाल दिया गया था और तबसे धुमन्तु जीवन अपनाकर कभी इधर तो कभी उधर दुमते रहते है। जिन्दगी को और नज़दीक से देखते हुये गीत रचते है, नृत्य करते है। उनके गीतों में संधर्ष है, आनन्द है, मस्ती है।

देवार गीत रुजू, ठुंगरु, मांदर के साथ गाये जाते है। देवार गीत मौखिक परम्परा पर आधारित है।

गीतों के विषय अनेक है कभी वीर चरित्रों के बारे में है तो कभी अत्याचार के बारे में है। कभी हास्यरस से भरपूर है तो कभी करुणा रसे से। कहीं पाण्डवगाथा में युद्ध के बारे में है – जैसे – दूनों के फेर रगड़ी गा रगड़ा गा बेली गा बेला गा धाड़ी गा धाड़ा गा रटा रि ए, धड़ाधिड़”।

20. भरथरी गीत

भरथरी गीत कथा में दो पात्र है – भरथरी और गोपीचन्द, जिनसे ये कथा शुरु होती है। राजा भरथरी और भान्जा गोपीचन्द। भरथरी की कथा बिहार में, उत्तरप्रदेश में, बंगाल में प्रचलित है। छत्तीसगढ़ में भरथरी की कथा कैसे आई – इसके सम्बन्ध में विद्वानों का अलग अलग मत है। नन्दकिशोर तिवारी जी का कहना है कि बंगाल के जोगी जब उज्जैन जाते थे, उस यात्रा के वक्त छत्तीसगढ़ में भी भरथरी की कथा प्रचलित हो गई थी – भरथरी और गोपीचन्द दोनों नाथ-पंथी थे।

नाथ-पंथी योगियों का जो सम्प्रदाय हैं, वह सम्प्रदाय नवीं दसवीं शताब्दी में आरम्भ हुआ। बंगाल बिहार और उसके आसपास योगी नाम की एक जाति रहती थी। ये लोग छुआछुत नहीं मानते थे, जात पात नहीं मानते थे। बहुत ही उन्नत मानसिकता के थे वे लोग। वे लोग नाथ पंथी योगियों जैसे थे।

नाथ पंथी योगियों का समप्रदाय नेपाल में बौद्ध और शैव साधनों के मिश्रण से हुई थी। और इसके बाद यह सम्प्रदाय पूरे हिन्दी प्रदेश में फैल गई। इस सम्प्रदाय के लोग पढ़े लिखे नहीं होने के कारण अशिक्षित माना जाता था। पर इनसे जो शिक्षा मिलती थी, वह बहुत से शिक्षित लोग नहीं दे पाये थे। ये लोग अपने को जोगी कहते थे। लोग उन्हें नकारते थे ये कहके कि ये लोग शास्र विहीन है। ये लोग लोक-गीतों के माध्यम से लोगों का दिल जीत लेते थे।

छत्तीसगढ़ में भरथरी को योगी कहते है। छत्तीसगढ़ी भरथरी किसी जाति विशेष का गीत नहीं है। जो भरथरी का गीत का गीत गातें है वे योगी कहलाते है।

21. जस गीत 

छत्तीसगढ़ के लोक जीवन गीतों के बिना अधुरा है। छत्तीसगढ़ के लोग गीतों में जस गीत का प्रभाव बहुत ही महत्वपूर्ण है। जसगीत है देवी की स्तुति गीत, देवी से विनती, प्रार्थना।

छत्तीसगढ़ में देवी का स्थान बहुत ऊँचा है। अनेक जगह में महामाया देवी का मंदिर हमें देखने को मिलता है जैसे रतनपुर, आरंग, रायपुर, पाटन, दन्तेवाड़ा, अम्बागढ़ चौकी, डोंगरगढ़, कांकेर और अनेक जगहों में देवी का मन्दिर है। न जाने कितने सालों से देवी के भक्तजन जसगीत लिखते चले आये हैं। गीतकार खो गये हैं, उनके लिखे गीत लोकजीवन का अंश बन गया है।

नवरात्रि का पर्व साल में दो बार आता है। एक शरद नवरात्रि, दूसरा है बसन्त नवरात्रि। शरद में दुर्गापूजा होती है। उस वक्त पूरे छत्तीसगढ़ में जसगीत गाये जाते हैं। नवरात्रि में पहला दिन जवारा बोया जाता है और नवमीं के दिन उसका विसर्जन होता है। जब विसर्जन करने जाते हैं, महिलाये जसगीत गाती हुई जाती हैं।

जँवारा के जसगीत में देवी धनैया और देवी कौदैया का जिक्र बार बार होता है।

दोनों देवियों का नाम लोकगीतों में हमेशा साथ साथ ज़िक्र होता है। छत्तीसगढ़ विख्यात है धान के लिये और कोदो की फसलों के लिए। दोनों देवियों को फसलों की देवी के रुप में लोग मानते थे एवं इसीलिये लोक गीतों में उनका नाम आदर के साथ लिये जाते है।

दोनों देवियों की इसीलिये कही मूर्ति नहीं मिलती है। और न ही कहीं मन्दिर दिखाई देता है इन देवियों का। जसगीतों के माध्यम से ये दोनों देवियाँ लोगों के मन के भीतर अपनी जगह बना ली है।

पंडवानी के जन्मदाता किसे कहां जाता है?

पंडवानी के जन्मदाता झाडूराम देवांगन जी को कहां जाता है. पंडवानी छत्तीसगढ़ी लोक गीत गायन की शुरुयात सबसे पहले झाडूराम देवांगन जी ने ही किया था. इसलिए उन्हें पंडवानी के जन्मदाता कहां जाता है.

लोकगीत कितने प्रकार के होते हैं?

चैता, कजरी, बारहमासा, सावन आदि मिर्ज़ापुर, बनारस और उत्तर प्रदेश के पूरबी और बिहार के पश्चिमी जिलों में गाए जाते हैं। बाउल और भतियाली बंगाल के लोकगीत हैं। पंजाब में माहिया आदि इसी प्रकार के हैं। हीर राँझा, सोहनी - महीवाल संबंधी गीत पंजाबी में और ढोला-मारू आदि के गीत राजस्थानी में बड़े चाव से गाए जाते हैं।

छत्तीसगढ़ का लोक गीत कौन सा है?

ददरिया गीत छत्तीसगढ़ में प्रसिद्ध एक प्रणय लोकगीत है जो शृंगार-प्रधान युक्त तथा सवाल-जवाब शैली पर आधारित होती है। ददरिया गीत को छत्तीसगढ़ के लोक गीतों का राजा भी कहा जाता है। प्रायः यह गीत ग्रामीण अंचलों में धान रोपाई के समय गाये जाते हैं |

छत्तीसगढ़ का फेमस डांस कौन सा है?

डंडा नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य का लोकनृत्य है। इस नृत्य को 'सैला नृत्य' भी कहा जाता है।

लोकगीत किसकी गीत है?

लोकगीत सीधे जनता के संगीत हैं। घर, गाँव और नगर की जनता के गीत हैं ये । इनके लिए साधना की ज़रूरत नहीं होती। त्योहारों और विशेष अवसरों पर ये गाए जाते हैं।

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