छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की शासन व्यवस्था
कलचुरी वंश – (990 – 1740 ई.)
- 6 वीं शताब्दी के आस- पास मध्य भारत मा कलचुरियो का अभ्युदय हुआ,
- प्रारम्भ में कलचुरियो ने आरम्भ में महिष्मति (महेश्वर जिला, खरगौन, म.प्र.) को सत्ता का केंद्र बनाया.
- कालान्तर में कलचुरियो की शाखा जबलपुर के निकट त्रिपुरी नामक क्षेत्र में कोकल्ल द्वारा स्थापित किया गया था,
- छ.ग. में कलचुरियो का प्रादुर्भाव 9वीं सदी में हुआ,
- प्रारम्भ में इनका केंद्र रतनपुर था, बाद में रायपुर को अपना नया केंद्र बनाया
- मराठो के आगमन से पहले तक छ.ग. में कलचुरियो का शासन था,
- इसे हैहयवंश के नाम से जाना जाता था,
- इस वंश के आदि पुरुष – कृष्ण राज को कहा जाता है इसका काल (500 – 575 ई.
- इनकी प्राचीन राजधानी त्रिपुरी थी,
- त्रिपुरी के कलचुरी राजवंश की एक शाखा “लहुरी शाखा” ने छ.ग. में अपना राज्य स्थापित किया था,
रतनपुर के कलचुरीवंश –
- 9 वीं सदी के उत्तरार्द्ध में कोकल्ल के पुत्र शंकरगण ने बाण वंशीय शासक विक्रमादित्य प्रथम को परास्त कर कोरबा के पाली क्षेत्र में कब्ज़ा किया था,
- इन्होने छ.ग. में कलचुरी वंश की नीव रखी,
- इनकी प्रारम्भिक राजधानी तुम्मान थी,
- कोकल्देव – (875 -900 ई.) तक शासन किया था, इनका बिल्हरी अभिलेख है,
रतनपुर का पुराना नाम –
(महाभारत काल में)
सतयुग में – मणिपुर
त्रेतायुग में – मणिकपुर
द्वापर युग में – हीरकपुर
कलयुग में – रतनपुर
रतनपुर में कलचुरी राजवंश की लहुरी शाखा ने 10 वीं शताब्दी में राज्य किया जो 18 वीं शताब्दी के मध्य तक कायम रहा,
रतनपुर के शासक –
- कलिंगराज का शासन (990 -1020 ई.)
- छ.ग. में कलचुरी वंश को स्थापित किया,
- इसने तुम्मन को 1000 ई. में जीतकर राजधानी बनाई,
- इतिहास लेखक कलिंगराज को दक्षिण कोसल विजेता “निरूपति” कहते है,
- आमोद ताम्रपत्र – में कलिंग राज द्वारा तुम्मान विजय का उल्लेख है,
कमलराज का शासन (1020 – 1045 ई.)
- यह कलिंग राज का पुत्र था, जो की 1020 ई. में गद्दी पर बैठा,
- इसके शासन काल में लगभग 11 वीं सदी तक सम्पूर्ण दक्षिण कोसल में कलचुरियो का प्रभुत्व स्थापित हो गया,
- इसके राज्यकाल में त्रिपुरी के गंग्देव ने उत्कल पर आक्रमण किया,
राजा रत्न देव प्रथम – (1045 – 1065 ई.)
- 11 वीं शताब्दी में रतनपुर का महामाया मंदिर बनवाया,
- 1050ई. में रतन पुर जिसे कुबेरपुर की उपमा दी गई है, को बसाया, अपनी समृद्धि के कारन इसे कुबेर नगर की उपमा दी गई,
- रतनपुर के संस्थापक है,
- इसने अपनी राजधानी तुम्मान से स्थानांतरित कर रतनपुर को अपनी राजधानी बनाया,
पृथ्वी देव प्रथम – (1065 – 1095 ई.)
- इसने सकल कोसलाधिपति की उपाधि धारण की,
- रतनपुर में विशाल तलाब को निर्मित करने का श्रेय पृथ्वी देव को है,
- तुम्मान में पृथ्वी देवेश्वर नामक मंदिर बनवाया था,
पृथ्वी देव प्रथम – (1065 – 1095 ई.)
- इसने सकल कोसलाधिपति की उपाधि धारण की,
- रतनपुर में विशाल तलाब को निर्मित करने का श्रेय पृथ्वी देव को है,
- तुम्मान में पृथ्वी देवेश्वर नामक मंदिर बनवाया था,
जाजल्य देव प्रथम – (1090 – 1120 ई.)
- इसने उड़ीसा के शासक को परस्त कर स्वयं को त्रिपुरी की अधीनता से स्वतंत्र घोषित किया,
- जाजल्यदेव ने जाज्वाल्य्पुर ( जांजगीर ) नगर की स्थापना की,
- इसने अपने नाम के सोने के सिक्के चलाये, इन सिक्को पर गजसार्दुल की उपाधि धारण की, और उसका अंकन करवाया,
रत्नदेव द्वितीय – (1120 – 1135 ई.)
- रत्नदेव द्वितीय के ताम्र पत्र अभिलेख, अकलतरा, खरौद, पारगांव, शिवरीनारायण, एवं सरखो से प्राप्त हुए है,
- इन्होने त्रिपुरी के राजा गयाकर्ण एवं गंगवाड़ी के राजा अनंतवर्मा को परास्त किया था, रत्नदेव द्वितीय + अनंतवर्मा का युद्ध शिवरीनारायण के पास हुआ था,
- इनके काल में कला को राजाश्रय प्राप्त हुआ
पृथ्वीदेव द्वितीय – (1135-1165 ई.)
- इसके सेनापति जगतपाल देव थे, जगतपाल देव ने राजिव लोचन मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था, जिसका उल्लेख राजिम के शिलालेख में मिलता है,
- पृथ्वीदेव द्वितीय ने चक्रकोट पर आक्रमणकार उसे नष्ट कर दिया था, जिससे अनंत वर्मा चोडगंग भयभीत होकर समुद्र तट भाग गया था,
जाज्वल्यदेव द्वितीय –(1165- 1168 ई.)
- इनका राज्यकाल अल्पकालीन था,
- इसके समय में शिवरीनारायण से प्राप्त अभिलेख से त्रिपुरी के कलचुरी शासक जयसिंह के आक्रमण का पता चलता है,
- दोनों राजघरानों में शिवरीनारायण के समीप भीषण संघर्ष हुआ,
जगदेव का शासन – (1168 – 1178 ई.)
- जाज्वल्यदेव की मृत्यु के बाद रतनपुर में शान्ति व सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए उनके बड़े भाई गद्दी पर बैठे,
- इन्होने 10 वर्षो तक रतनपुर में शासन किया
रत्नदेव तृतीय –(1178 – 1198 ई.)
- इनके काल में भीषण दुर्भिक्ष से अव्यवस्था फ़ैल गई थी, जिसकी जानकारी हमें खरौद के लखनेश्वर मंदिर की दिवार पर जड़े शिलालेख से मिलती है, इसे व्यवस्थित करने के लिए,रत्नदेव ने गंगाधर ब्राम्हण को अपना प्रधानमंत्री बनाया,
- गंगाधर ने खरौद के लखनेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था,
- गंगाधर ने अराजकता को कंट्रोल किया,
प्रताप मल्ल का शासन –
- इनके राज्यकाल के तीन अभिलेख, पेंड्राबांध, कोनारी,और पवनी में मिले है
- प्रतापमल्ल ने अल्पायु में राज- काज प्राप्त किया
- इसके बाद 300 वर्षो तक के काल का पता नही चलता है, इसलिए इसके बाद के काल को अन्धकार युग कहते है,
बाहरेंद्र या बाहरसाय -(1480-1525 ई.)
- इसने अपनी राजधानी रतनपुर से कोसंगा( वर्तमान छुरी ), या कोशाईगढ़ या कोशगई को किया.
- इसके काल में मुसलमानों का आक्रमण हुआ था,
कल्याणसाय –(1544-1581 ई.)
- ये अपनी जामाबंदी प्रणाली के लिए प्रसिद्ध है,यह प्राणाली भू-राजस्व से सम्बंधित है,
- कल्याणसाय ने 8 साल अकबर के दरबार में कार्य किया था,
- इसके समय में छ.ग. 18-18 गढ़ों में बंट गया,
तखत सिंह – (1581-1689 ई.)
- इसने 17 वीं शताब्दी में तखतपुर नगर की स्थापना की,
राजसिंह –(1689 – 1712 ई.)
- ये औरंगजेब के समकालीन थे,
- इनके दरबारी कवी गोपाल मिश्र थे, जिनकी किताब खूब तमाशा है, इसमें छ.ग. भाषा का पहली बार प्रयोग किया गया था,
- इस किताब में औरंगजेब की नीतियों की कटु आलोचना की गई है,
- सरदारसिंह – इसने लगभग 20 वर्षो तक राज किया,
रघुनाथ सिंह –
- सरदारसिंह का भाई था, यह कल्छुरिवंश का अंतिम शासक था, जो की 60 साल में शासक बना,
- इसके काल में मारठो का आक्रमण हुआ,
- मराठा सेनापति भास्कर पन्त ने इसके समय में आक्रमण किया था,
- भास्कर पन्त के आक्रमण के बाद छ.ग में कलचुरी वंश का अंत हो गया,
रायपुर के कलचुरी वंश (लहुरी शाखा)
- इनका समय 14 वीं शताब्दी का माना जाता है,
- रायपुर में इस शाखा का संस्थापक संभवतः केशवदेव को माना जाता है,
इस वंश के शासको का क्रम –
- लक्ष्मी देव
- सिंघन देव
- रामचंद्र देव
सिंघन देव –
- इसने 18 गढ़ों को जीता था,
रामचंद्र देव –
- इसने रायपुर सहर की स्थापना की, रायपुर का नामकरण इसने अपने पुत्र “ब्रम्हदेव राय ” के नाम पर रखा,
ब्रम्हदेव –
- इस वंश के शासक ब्रम्हदेव के रायपुर तथा खल्लारी से दो शिलालेख क्रमशः 1409 व 1369 वर्णित है मिला है,
- इस शिलालेख के अनुसार इनकी प्रारम्भिक राजधानी खाल्ल्वाटिका ( खल्लारी) को माना जाता है,
- बाद में ब्रम्हदेव राय ने 1409 में अपनी राजधानी रायपुर को बनाया,
- ब्राम्ह्देव ने रायपुर में दूधाधारी मठ का निर्माण करवाया,
- ब्रम्हदेव के समय में, खल्लारी (खल्लवाटिका, महासमुंद ) शिलालेख में देवपाल नामक एक मोची के द्वारा नारायण मंदिर (खल्लारी देवी माँ का मंदिर ) निर्माण की जानकारी मिलती है,
इस वंश की कुछ मुख्य जानकारी –
- इनकी कुल देवी – गजलक्ष्मी थी,
- ये शिव के उपासक थे,
- इनका प्रमुख दीवान होता था,
- सम्पूर्ण राज्य प्राशासनिक सुविधा के लिए गढ़ में विभाजित था,
- गढ़ बारहों में विभाजित था जिसका प्रमुख – दाऊ होता था,
- बारहों गाँव में विभाजित था जिसका प्रमुख – गौटिया होता था,
- ग्राम – शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी,
- 1 गढ़ में, 7 बारहों, 84 गाँव होते थे,
काल्चुरी शासन प्रबंध –
- प्रशासनिक व्यावस्था – राज्य अनेक प्रशासनिक इकइयो राष्ट्र (संभाग), विषय (जिला), देश या जनपद (तहसील), मंडल (खण्ड) में विभक्त था,
- मंडलाधिकारी – मांडलिक तथा उससे बड़ा महामंडलेश्वर कहलाता था,
- गढ़ाधिपति को दीवान, तालुकाधिपति को दाऊ तथा ग्राम प्रमुख को गौटिया कहा जाता था,
- मंत्री मंडल – इसमें यूवराज महामंत्री, महामात्य, महासंधीविग्राहक (विदेश मंत्री), माहापुरोहित ( राजगुरु), जमाबंदी का मंत्री ( राजस्व मंत्री), महाप्रतिहार, महासामंत और महाप्रमातृ आदि,
- अधिकारी – महाध्यक्ष – सचिवालय का मुख्य अधिकारी – महासेनापति
- दण्डपाशिक – पुलिस विभाग का प्रमुख, महाभंदारिक,महाकोटटपाल ( दुर्ग या किले की रक्षा करने वाला) आदि विभाध्यक्ष थे,
स्थानीय प्रशासन –
- नगरो एवं गाँव में पांच सदस्यों वाली संस्था होती थी जिसे – पंचकुल कहा जाता था,
- पंचकुल के सदस्य महत्तर एवं प्रमुख महत्तर कहलाते थे,
- नगर के प्रमुख अधिकारी को पुरप्रधान, ग्राम प्रमुख को ग्राम कूट या ग्राम भौगिक,
- कर वसूलने वाले को – शौल्किक,
- जुरमाना दंद्पाशिक के द्वारा वसूला जाता था,
सामाजिक व्यावस्था –
- नागरिको का जीवन उच्च कोटि का था,
- समाज में वर्ण व्यावस्था स्थापित हो गई थी,
- कलचुरी लेखो में ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य का उल्लेख है, किन्तु शुद्र का उल्लेख नही मिलता,
- कलचुरी में कायस्थ जाती लेखक का कार्य कर्ता था,
- सूत्रधार जाती – शिल्पकला में सिध्दस्त थे,
- प्रथा – बहुपत्ति व सती प्रथा की प्रथाए प्रचलित थी,
शिक्षा एवं साहित्य भाषा –
- ये साहित्य में समृद्ध थे
- बाबूरेवाराम द्वारा लिखित ग्रन्थ है – तवारीख ए हैहयवंशी राजा”
- पं. शिवदत्त शास्त्री की “ रतनपुर आख्यान” ( छ.ग. के जमींदारों का इतिहास, एवं रतनपुर के इतिहास के विषय में जानकारी मिलती है)
आर्थिक स्तिथि –
- इनकी आर्थिक स्तिथि काफी समृद्ध थी,
- सिक्को का प्रचालन व वास्तु विनिमय का कार्य था,
- राज्य की आय का प्रामुख स्रोत “भूमि कर” था,
धार्मिक स्तिथि-
- ये धर्मनिरपेक्ष शासक थे, एवं शैव उपासक थे, किन्तु इन्होने वैष्णव, जैन, एवं बौद्ध धर्मो को भी संरक्षक प्रदान किया,
- इनके राज्यकाल में वैष्णव मंदिर, जांजगीर का विष्णुमन्दिर, खाल्ल्वाटिका का नारायण मंदिर, रतनपुर में प्राप्त लक्ष्मी मंदिर की मूर्ति, शिवरीनारायण का विष्णु मंदिर आदि का निर्माण करवाया,
- इसी काल में राजिम के समीप चम्परान्य में 1593 ई. में महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म हुआ था,
- वल्लभाचार्य शुद्धाद्वैतवाद अथवा पुष्टिमार्ग के संस्थापक थे,
- रामानंदी माथो की स्थापना हुई, इसके अंतर्गत कालान्तर में रायपुर में दूधाधारी मठ स्थापित हुई,
स्थापत्य एवं शिल्प –
- कलचुरी शिल्प में द्वारो पर गजलक्ष्मी अथवा शिव की मूर्ति पायी जाती थी,
- सिक्को पर लक्ष्मी देवी का चित्र अंकित होता था, ताम्र पत्र लेख का आरम्भ ॐ नमः शिवाय से होता था