छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास
छत्तीसगढ़ भारत के राज्य होने के साथ ही इसका अपना ही अलग इतिहास है. छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास के बाद आता है छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय राजवंश जिसके बारे में हमने आपको पहले ही बताया है ,आज छत्तीसगढ़ के मध्यकालीन इतिहास के बारे में पढने जा रहे है , तो चलो फिर शुरू करते है छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास।
छत्तीसगढ़ के मध्यकालीन इतिहास
हमारे इतिहासकारो ने छत्तीसगढ़ के मध्य कालीन इतिहास को 6 भागो में बाटा है, जो की 1000 ई. से 1741 ई. तक है । जिसके प्रमुख राजवंश कुछ इस प्रकार है –
- कल्चुरी वंश ( रतनपुर और रायपुर शाखा)
- फणि नागवंश (कार्वधा)
- सोम वंश (कांकेर)
- छिन्दकनागवंश (बस्तर)
- काकतीय वंश (बस्तर)
- हैहयवंशीय वंश-जांजगीर चांपा
1.कल्चुरी राजवंश
- इसकी दो शाखा थी –
- रतनपुर शाखा
- रायपुर या लहरी शाखा
अ. रतनपुर शाखा
- समय अवधि -1000 ई. से 1741 ई. तक
- संस्थापक- कलिंगराज
- राजधानी-तुम्माण
- चौतुरगढ़ के महामाया मंदिर का निर्माण कराया ।
- क्ल्चुरी वंश ने भारत में 550 से 1741 तक कहीं न कहीं शासन किया था।
- इतने लंबे समय तक शासन करने वाला भारत का पहला वंश है।
- पृथ्वीराज रासो में इसका वर्णन है।
- छ.ग. का कल्चुरी वंश त्रिपुरी (जबलपुर) के कल्चुरियों का ही अंश था।
- कल्चुरियों का मूल पुरूष कृष्णराज थे।
- त्रिपुरी के कल्चुरियों का संस्थापक वामराज देव थे।
- स्थायी रूप से शासन स्थापित किया कोकल्य देव ने कोकल्य देव के 18 बेटों में से एक शंकरगण मुग्यतुंग ने बाण वंश को हराया था।
- लेकिन सोमवंश ने पुनः अधिकार जमा लिया।
- तब लहुरी शाखा के त्रिपुरी नरेश कलिंगराज ने अंतिम रूप से जीता था।
रतनपुर शाखा के प्रमुख राजा
1 . कलिंगराज (1000-1020)
- इसने अपनी राजधानी तुम्माण (कोरबा) को बनाया था।
- इसे कल्चुरियों का वास्तविक संस्थापक कहते हैं।
- अलबरूनी द्वारा वर्णित शासक हैं।
- इसने चैतुरगढ़ के महिषासुर मर्दिनी मंदिर का निर्माण करवाया था।
- चैतुरगढ़ (कोरबा) को अभेद किला कहते है।
- चैतुरगढ़ को छ.ग. का काश्मीर कहते है।
2. कमलराज (1020-1045)
- कमलराज व कलिंगराज ने तुम्माण से शासन किया था।
3. राजा रत्नदेव (1045-1065 )
- 1050 में रतनपुर शहर बसाया और राजधानी बनाया।
- इसने रतनपुर में महामाया मंदिर का निर्माण करवाया था।
- इसने लाफागढ़ (कोरबा) में महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति रखवाया था।
- तब से लाफागढ़ को छ.ग. का चित्तौड़गढ़ कहते है।
- रतनपुर “राज्य” का नामकरण अबुल फजल ने किया था।
- इस समय रतनपुर के वैभव को देखकर कुबेरपुर की उपमा दी गई।
- रतनपुर को तलाबों की नगरी कहते है।
- रतनपुर, हीरापुर, खल्लारी, तीनों शहर को मृतिकागढ़ कहते है।
- रत्नदेव का विवाह नोनल्ला से हुई थी।
4. पृथ्वीदेव प्रथम (1065-1095)
- इसने सकल कौसलाधिपति उपाधि धारण किया था।
- आमोदा ताम्रपत्र के अनुसार 21 हजार गाँवों का स्वामी था।
- रतनपुर के विशाल तालाब का निर्माण करवाया था।
5. जाजल्लदेव प्रथम (1095-1120)
- जाजल्लदेव प्रथम ने कल्चुरियों को त्रिपुरी से अलग किया।
- अपने नाम की स्वर्ण मुद्राएँ चलवायीं।
- सिक्कों में श्रीमद जाजल्ल व गजसार दूल अंकित करवाया।
- गजसार दूल की उपाधि धारण किया (गजसारदूल हाथियों का शिकारी)
- इसने जांजगीर शहर बसाया व विष्णु मंदिर बनवाया।
- पाली के शिव मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।
- इसने छिंदकनाग वंशी राजा सोमेश्वर देव को पराजित किया था।
6. रत्नदेव द्वितीय (1120-1135)
- गंग वंशीय राजा अनंत वर्मन चोडगंग को युद्ध में पराजित किया था।
7. पृथ्वीदेव द्वितीय (1135-1165)
- कल्चुरियों में सर्वाधिक अभिलेख इसी का हैं।
- चांदी के सबसे छोटे सिक्के जारी किये थे।
- इसके सामंत जगतपाल द्वारा राजीव लोचन मंदिर का जीर्णोद्धार किया था।
8. जाजल्लदेव द्वितीय (1165-1168)
- इसके सामंत, उल्हण ने शिवरीनारायण में चंद्रचूड मंदिर का निर्माण करवाया था।
9. जगदेव (1168-1178)
10. रत्नदेव तृतीय (1178-1198)
- इसका मंत्री उड़ीसा का ब्राम्हण गंगाधर राव था।
- गंगाधर राव ने खरौद के लखनेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
- गंगाधर राव ने रतनपुर के एक वीरा देवी का मंदिर बनवाया था।
11. प्रतापमल्ल (1198-1222)
- इसने ताँबे के सिक्के चलाये थे।
- जिसमें सिंह व कटार आकृति अंकित करायी।
- इसके दो शक्तिशाली सामंत थे 1. जसराज 2. यशोराज
अंधकार युग (1222 ई. से 1480 ई. तक)
- इस बीच की कोई लिखित जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए इसे कल्चुरियों का अंधकार युग कहते हैं।
12. बाहरेन्द्र साय (1480-1525)
- राजधानी रतनपुर से छुरी कोसगई ले गया।
- इसने कोसगई माता का मंदिर बनवाया था।
- चैतुरगढ़ व लाफागढ़ का निर्माण किया था।
13. कल्याण साय (1544-1581)
- अकबर के समकालीन था।
- अकबर के दरबार में 8 वर्षो तक रहा।
- राजस्व की जमाबंदी प्रणाली शुरू की थी।
- टोडरमल ने कल्याण साय से जमाबंदी प्रणाली सीखा।
- इसी जमाबंदी प्रणाली के आधार पर ब्रिटिश अधिकारी चिस्म (1868 में छत्तीसगढ़ को 36 गढ़ो में बाँटा।
- अकबर का प्रिय राजा था कल्याण साय।
- जहाँगीर की आत्मकथा में कल्याण साय का उल्लेख है
14. तखत सिंह
- औरंगजेब का समकालीन था।
- तखतपुर शहर बसाया।
15. राजसिंह (1746 ई.)
- दरबारी कवि गोपाल मिश्र, रचना – खूब तमाशा ।
- इस रचना में औरंगजेब के शासन की आलोचना की गई है ।
- रतनपुर में बादल महल का निर्माण करवाया था।
16. सरदार सिंह (1712-1732)
- राजसिंह का चाचा था।
17. रघुनाथ सिंह (1732-1741)
- अंतिम कल्चुरी शासक।
- 1741 में भोंसला सेनापति भास्कर पंत ने छ.ग. में आक्रमण कर (महाराष्ट्र) कल्चुरी वंश को समाप्त कर दिया।
18. रघुनाथ सिंह (1741-1745)
- मराठो के अधीन शासक
19. मोहन सिंह (1745-1758)
- मराठों के अधीन अंतिम कल्चुरी शासक
ब. रायपुर शाखा या लहुरी शाखा
- संस्थापक – केशव देव
- प्रथम राजा – रामचन्द्रदेव
- प्रथम राजधानी – खल्लवाटिका (खल्लारी)
- द्वितीय राजधानी – रायपुर
प्रसिद्ध राजा
- केशव देव
- लक्ष्मीदेव (1300-1340)
- सिंघण देव (1340-1380)
- रामचन्द्र देव (1380-1400)
- ब्रम्हदेव (1400-1420)
- केशव देव-II (1420-1438)
- भुनेश्वर देव (1438-1468)
- मानसिंह देव (1468-1478)
- संतोष सिंह देव (1478-1498)
- सूरत सिंह देव (1498-1518)
- सैनसिंह देव (1518-1528)
- चामुण्डा देव (1528-1563)
- वंशीसिंह देव (1563-1582)
- धनसिंह देव (1582-1604)
- जैतसिंह देव (1604-1615)
- फत्तेसिंह देव (1615-1636)
- याद सिंह देव (1636-1650)
- सोमदत्त देव (1650-1663)
- बलदेव देव (1663-1682)
- उमेद देव (1682-1705)
- बनवीर देव (1705-1741)
- अमरसिंह देव (1741-1753) अंतिम शासक
सिंघन देव
- इसने 18 गढ़ो को जीता था।
रामचन्द्र देव
- इसने रायपुर शहर बसाया था।
- इसे लहुरी शाखा का प्रथम शासक मानते है।
ब्रम्हदेव
- इन्होंने 1409 में रायपुर को राजधानी बनाया था।
- वल्लाभाचार्य के स्मृति में रायपुर में दूधाधारी मठ का निर्माण करवाया था।
- इसके सामंत देवपाल नामक मोची ने 1415 में खल्लारी देवी माँ की मंदिर का निर्माण करवाया था।
- कल्चुरियों ने नारायणपुर में सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
कल्चुरी वंश मुख्य बिंदु
- कुल देवी – गजलक्ष्मी
- उपासक – शिव जी के
- पंचकुल – समुह या समिति का नाम ।
- जिसमें पाँच या दस सदस्य होते थे।
- ताम्रपत्र ॐ नमः शिवाय से प्रारंभ होता था।
कल्चुरियों की प्रशासनिक व्यवस्था
- कल्चुरी प्रशासन का अधिक विस्तार था।
- प्रशासन के विभागों का दायित्व अमात्य मण्डल के हाथों में होता था।
- ग्राम – शासन की न्यूनतम इकाई।
- माण्डलिक – मण्डल का अधिकारी।
- महामण्डलेश्वर – 1 लाख गांवों का स्वामी।
- गौटिया – गाँव का राजस्व प्रमुख ।
- दाऊ – बाहरो का राजस्व प्रमुख । (दाऊ को तालुकाधिपति भी कहते है )
- दीवान – गढ़ का राजस्व प्रमुख एक गढ़ में 84 गाँव होते थे।
- 1 गढ़ = 7 बारहो = 84 गाँव।
- 1 बारहो = 12 गाँव ।
कल्चुरी कालीन मंत्री मण्डल
- मंत्रियों के समुह को अमात्य मण्डल कहा जाता है।
- अमात्य मण्डल में 8 मंत्री होते थे।
- युवराज – होने वाला राजा ।
- महामंत्री – सर्व प्रमुख अधिकारी।
- महामात्य – राजा का सलाहकार ।
- महासंधि विग्रहक – विदेश मंत्री ।
- महापुरोहित – राजगुरू ।
- जमाबंधी मंत्री – राजस्व मंत्री।
- महा प्रतिहार – राजा का अंग रक्षक।
- महा प्रमातृ – राजस्व प्रबंधक।
कल्चुरी कालीन अधिकारी
- दाण्डिक – न्याय अधिकारी
- धर्म लेखी या दशमूली – धर्म संबंधी कार्य
- महा पीलू पति – हस्ति सेना अधिकारी
- महाष्व साधनिक – अश्व सेना अधिकारी
- चोर द्वारणिक या दुष्ट साधनिक – पुलिस
- गनिका गनिक – यातायात अधिकारी
- ग्राम कुट या भोटिक – ग्राम प्रमुख
- शोल्किक – कर वसुली करने वाला
- वात्सल्य – बनिया का काम करने वाला
- महत्तर – पंचकुल का सदस्य (समिति)
- महाकोट्टपाल – किले (दुर्ग) का रक्षक।
- पुर प्रधान – नगर प्रमुख ।
- भट्ट – शांति व्यवस्था अधिकारी।
कल्चुरी कालीन कर व्यवस्था
- युगा – सब्जी मंडी का कर है जो की एक परमिट था
- कलाली – शराब दुकान से लिया जाता है
- आय का साधन – नमक कर, खानकर, नदी घाट कर
- हाथी-घोड़े की बिक्री – रतनपुर पशु बाजार से प्राप्त कर
- घोड़े की बिक्री का – 2 पौर (चांदी का छोटा सिक्का)
- हाथी की बिक्री का – 4 पौर
कल्चुरी काल की मुद्रा
- 4 कौड़ी = 1 गण्डा
- 5 गुण्डा = 1 कोरी (20 रू. को एक कोरी कहते है)
- 16 कोरी = 1 दोगानी
- 11 दोगानी = 1 रूपया
- 20 कौड़ी = 1 कोरी
- 80 गण्डा = 1 दोगानी
- 320 कौड़ी = 1 दोगानी
- 3520 कौड़ी = 1 रूपया
- पौर = चांदी का सिक्का (सिक्का में लक्ष्मी की आकृति होती थी)
- 2 युगा = 1 पौर
कल्चुरी कालीन मापन पद्धति
- 5 सेरी = 1 पसेरी
- 8 पसेरी = 1 मन
- अर्थात 40 सेरी = 1 मन
- इस समाया पैली , काठा , पऊवा भी चलता था
कल्चुरी कालीन सामाज व शिक्षा
- नागरिको का जीवन उच्च कोटि का था।
- स्त्रियों को समाज में उच्च स्थान प्राप्त था।
- लेकिन बहुपत्नी व सती प्रथा प्रचलित थी।
- ब्राम्हण, क्षत्रिय व वैश्य का वर्णन है किन्तु शुद्र का वर्णन नहीं है।
- 1479 ई. में महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म चम्पारण में हुआ।
- पाठशाला के लिए गुरू आश्रम की व्यवस्था थी।
- राजकार्य संस्कृत भाषा में किया जाता था।
- जन सामान्य में छत्तीसगढ़ी भाषा बोली प्रचलित थी।
2. फणिनाग वंश
- समय – 9 वीं से 14 वीं शताब्दी तक
- संस्थापक – अहिराज सिंह
- राजधानी – पचराही
- क्षेत्र – कवर्धा
प्रसिद्ध राजा
गोपाल देव
- इन्होंने 1089 ई. (11 वीं सदी) में भोरमदेव मंदिर बनवाया था।
- यह खजुराहों के मंदिर से प्रेरित है, इसलिए इसे छ.ग. का खजुराहों कहते है।
- यह नागर शैली (चंदेल शैली) में निर्मित है। इसकी ऊंचाई 16m. (53 फीट) है।
- यह चौरा ग्राम में स्थित है तथा शिव मंदिर है। भोरमदेव एक आदिवासी देवता है।
- गोपालदेव इस वंश के 6 वें क्रम के शासक थे।
रामचन्द्र देव
- इन्होंने 1349 (14 वीं सदी) में मड़वा महल व छेरकी महल का निर्माण करवाया था।
- यहाँ एक शिव मंदिर है तथा विवाह का प्रतीक है।
- मड़वा महल को दुल्हादेव भी कहते है।
- यहाँ कल्चुरी राजकुमारी अम्बिका देवी ने विवाह किया था।
- कवर्धा महल की डिजाइन धर्मराज सिंह ने किया था।
- महल के प्रथम गेट को हाथी का गेट कहते है।
मोनिंग देव
- 1414 में कल्चुरी शासक ब्रम्हदेव मोनिंग देव को पराजित किया था।
- इसके बाद फणिनाग वंश, कल्चुरी साम्राज्य में विलय हो गया।
3. सोमवंश
- समय अवधि -1191 से 1320 तक
- संस्थापक – सिंहराज
- राजधानी – कांकेर
प्रसिद्ध शासक
- सिंहराज
- व्याघ्रराज
- वोप देव
- 1.कृष्णराज 2.सोम देव > पम्पा देव
- जैतराज
- सोम चंद्र
- भानु देव
- चन्द्रसेन देव (अंतिक शासक)
नोट -
- कर्णराज (कर्णदेव) का सिहावा अभिलेख प्राप्त हुआ है।
- भानुदेव का कांकेर लेख प्राप्त हुआ है।
- भानुदेव ने संभवतः भानुप्रतापपुर शहर बसाया था।
4. छिंदकनाग वंश
- समय अवधि -1023 से 1324 तक
- संस्थापक – नृपति भूषण
- जगह – बस्तर
- राजधानी – चक्रकोट, अमरकोट, चित्रकोट
प्रसिद्ध शासक
- नृपति भूषण
- धारा वर्ष
- सोमेश्वर प्रथम
- कन्हर देव
- राजभूषण (सोमेश्वर द्वितीय)
- जगदेव भूषण नर सिंह
- जयसिंह
- हरिशचन्द देव (अंतिम शासक)
नृपति भूषण
- एरर्सकोट तेलगु अभिलेख में इस राजा का उल्लेख है।
- जिसमें शक् संवत् 945 अंकित है। अर्थात (1023 A.D.).
धारावर्ष
- इसके सामंत चन्द्रादित्य ने बारसूर में तालाब व शिव मंदिर बनवाया था।
- धारावर्ष का बारसूर अभिलेख प्राप्त हुआ है।
- संभवतः मामा-भांजा मंदिर का निर्माण करवाया था, जिसे गणेश मंदिर व बत्तीसा मंदिर भी कहते है।
मधुरांतक देव
- इसके राजपुर ताम्रपत्र में नरबलि के लिखित साक्ष्य प्राप्त हुए है।
सोमेश्वर देव
- जाजल्ल देव प्रथम ने इसे पराजित कर सारे परिवार को बंदी बना लिया था।
- 1109 ई. तेलगु शिलालेख नारायणपाल से प्राप्त हुआ है।
- गुण्डमहादेवी इसकी माता थी।
सोमेश्वर द्वितीय
- इसकी रानी गंग महादेवी का शिलालेख बारसूर से प्राप्त हुआ है।
जगदेव भूषण नरसिंह देव
- यह मणिक देवी (दंतेश्वरी देवी) का उपासक था।
हरिश चंद्र देव
- 1324 ई. तक शासन किया। काकतीय शासक अन्नमदेव पराजित हुआ।
- इसकी बेटी चमेली देवी ने अन्नमदेव से कड़ा मुकाबला किया था। जो कि चक्रकोट की लोककथा में आज भी जीवित है।
- इस वंश का अंतिम अभिलेख टेमरी से प्राप्त हुआ है।
- जिसे सती स्मारक अभिलेख भी कहते है।
- अन्नमदेव वारंगल के काकतीय वंश के राजा प्रताप रुद्रदेव का छोटा भाई था। जो 1309 में मलिक काफूर कटवे से डर से भागा था।
नोट :- छिंदकनाग वंशी राजा भोगवती पुरेश्वर उपाधि धारण करते थे।
5. काकतीय वंश
- समय अवधि -1324 से 1966 तक
- संस्थापक – अन्नदेव
- राजधानी – मंधोता
- अन्नमदेव (1324-1369)
- 1324 में काकतीय वंश की स्थापना मंधोता में किया।
- चक्रकोट से राजधानी मंधोता ले गया।
- इन्होंने तराला ग्राम व शंकिनी-डंकिनी नदी के संगम पर माँ दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण करवाया।
- इसे बस्तर में चालकी वंश कहते है।
- इसने विवाह चंदेल राजकुमारी सोनकुवंर से किया ।
प्रसिद्ध शासक
हमीर देव (1369-1410 )
- उड़ीसा के इतिहास में इसका वर्णन मिलता है।
भैरमदेव (1410-1468)
- इसकी पत्नी मेघावती आखेट विद्या में निपुण थी।
- मेघावती के नाम पर आज भी मेघी साड़ी बस्तर में प्रचलित है।
पुरुषोत्तम देव (1468-1534)
- मंधोता से राजधानी बस्तर ले गया ।
- इन्होंने प्रसिद्ध जगन्नाथपुरी उड़ीसा का यात्रा किया था।
- उड़ीसा के शासक ने इन्हें 16 पहिये वाला रथ प्रदान कर रथपति की उपाधि दिया था।
- बस्तर आकर गोंचा पर्व या रथयात्रा प्रारंभ किया था।
- इनका विवाह कंचन कुंवर (बघेलिन) से हुआ था।
जयसिंह देव (1534-1558)
नरसिंह देव (1558-1602)
- इसकी पत्नी लक्ष्मी कुंवर ने अनेक तालाब व बगीचे बनवाए थे।
प्रताप राज देव (1602-1625)
- इसे गोलकुण्डा के राजा कुलुकुतुब शाह को पराजित किया था।
जगदीशराज देव (1625-1639)
- इसके शासन काल में गोलकुण्डा के राजा अब्दुल्ला कुतुब शाह ने आक्रमण किया था।
वीरनारायण देव (1639-1654)
वीर सिंह देव (1654-1680)
- अपने शासन काल में राजपुर का दुर्ग (किला) बनवाया।
दिक्पाल देव (1680-1709)
राजपाल देव (1709-1721)
- इसे रक्षपाल देव भी कहते है।
- इन्होंने प्रौढ़ प्रताप चक्रवर्ती की उपाधि धारण किया था।
- यह मणिकेश्वरी देवी (दंतेश्वरी देवी) का उपासक था।
चन्देल मामा (1721-1731)
- यह चंदेल वंश व चंदेलिन रानी का भाई था।
- दलपत देव ने रक्षा बंधन के अवसर पर इसकी हत्या कर दी।
दलपत देव (1731-1774)
- इन्होंने 1770 में बस्तर से राजधानी जगदलपुर ले गया ।
- इसी समय रतनपुर के कल्चुरियों का अंत भोंसले ने किया था।
- भोंसला सेनापति नीलूपंत ने बस्तर में प्रथम बार आक्रमण किया लेकिन असफल रहा।
- इसी समय बस्तर में बंजारों द्वारा वस्तु विनिमय व्यापार प्रारंभ हुआ था।
- इसी व्यापार के कारण बाहरी लोग बस्तर में प्रवेश करने लगे परिणाम स्वरूप जनजाति विद्रोह प्रारंभ हुआ।
अजमेर सिंह (1774-1777)
- इसे क्रांति का मसीहा कहते है।
- 1774 में अजमेर सिंह व दरिया देव के बीच हल्बा विद्रोह हुआ था।
- भोंसले ने जगदलपुर पर आक्रमण कर अजमेर सिंह को छोटे डोगर भागने पर विवश कर दिया।
दरिया देव (1777-1800)
- अजमेर सिंह के विरूद्ध षड्यंत्र कर मराठों की सहायता की ।
- दरिया देव ने कोटपाड़ संधि 6 अप्रैल 1778 में मराठों से किया तथा प्रतिवर्ष 59000 टकोली देना स्वीकार किया।
- अप्रत्यक्ष रूप से बस्तर का संचालन रतनपुर से होने लगा।
- दरिया देव प्रथम काकतीय शासक था जिसने मराठों की अधीनता स्वीकार किया था।
- इसी समय बस्तर छ.ग. का अंग बना।
- इसी समय 1795 में भोपालपट्टनम् संघर्ष हुआ था।
- 1795 में कैप्टन ब्लंट पहले अंग्रेज यात्री थे जिन्होंने बस्तर के सीमावर्ती क्षेत्रों की यात्रा की। बस्तर पर प्रवेश नहीं कर पाये। परन्तु कांकेर की यात्रा की।
महिपाल देव (1800-1842)
- इन्होंने मराठों का वार्षिक टकोली देना बंद कर दिया।
- इसके शासन काल में 1825 में गेंदसिंह के नेतृत्व में परलकोट विद्रोह हुआ था।
भूपाल देव (1842-1853)
- अपने सौतेले भाई दलगंजन सिंह को तारापुर परगने का जमीदार बनाया था।
- इसी समय मेरिया (1842) व तारापुर (1842) विद्रोह हुआ था।
भैरम देव (1853-1891)
- अंग्रेजों के अधीन प्रथम काकतीय शासक था।
- 1856 में छ.ग. संभाग का प्रथम डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स इलियट बस्तर आया था।
- इसी समय लिंगागिरी (1856) मुड़िया (1876) विद्रोह हुआ था।
रानी चोरिस का विद्रोह (1878-86)
- इनका वास्तविक नाम जुगराज कुंवर थी।
- इसने अपने पति भैरमदेव के विरुद्ध विद्रोह की थी।
- इसलिए इसे छ.ग. का प्रथम विद्रोहिणी कहते है।
रूद्र प्रताप देव (1891-1921)
- इनका राज्यभिषेक 1908 में हुआ था।
- इनका शिक्षा राजकुमार कॉलेज रायपुर में हुआ था।
- इन्होंने जगदलपुर को चौराहों का शहर बनवाया।
- पुस्तकालय की स्थापना व बस्तर में शिक्षा अर्जित किया। घेतोपोनी प्रथा प्रचलित थी जो स्त्री विक्रय से सम्बंधित थी।
- यूरोपीय युद्ध में अंग्रेजों की सहायता करने के कारण इसे सेंट ऑफ जेरू सलेम की उपाधि से नवाजा गया था।
- इसी समय 1910 में गुण्डाथुर ने भूमकाल विद्रोह किया था।
- इनका एक ही पुत्री प्रफुल्ल कुमारी देवी थी।
प्रफुल्ल कुमारी देवी (1921-1936)
- छ.ग. की प्रथम व एकमात्र महिला शासिका थी।
- इनका विवाह उड़ीसा के राजकुमार प्रफुल्ल चंद भंजदेव से हुआ था।
- इनका राज्याभिषेक 12 वर्ष के उम्र में हो गया था।
- इनकी मृत्यु 1936 में अपेंडी साइटिस नामक बीमारी से लंदन में हुआ था। (रहस्यमय)
- इनका पुत्र प्रवीरचंद भंजदेव था।
प्रवीरचंद भंजदेव (1936-1966)
- यह अंतिम काकतीय शासक था।
- 1 जनवरी 1948 में बस्तर रियासत का भारत संघ में विलय हो गया।
- कम उम्र के प्रसिद्ध विधायक व बस्तर क्षेत्र के 12 में से 11 विधानसभा क्षेत्र में इनके नेतृत्व में स्वतंत्र उम्मीदवारों ने जीत हासिल किया था। 1966 में गोलीकांड में इनकी मृत्यु हुई थी।
- भारतीय राजनीति का भेंट चढ़ गया।
भंजदेव का परिवार
- प्रवीरचंद भंजदेव
- विजयचंद भंजदेव
- भरतचंद भंजदेव
- कमलचंद भंजदेव (वर्तमान)
6. हैहयवंशीय वंश
- संस्थापक – अकाल देव
- राजधानी – अकलतरा (जांजगीर चांपा)
प्रसिद्ध शासक
- अकाल देव – इसने अकलतरा शहर बसाया था।
इन्हें भी देखे
- छत्तीसगढ़ का प्राचीन इतिहास
- छत्तीसगढ़ का मध्यकालीन इतिहास
- छत्तीसगढ़ का आधुनिक इतिहास
- छत्तीसगढ़ के प्रमुख राजवंश
- छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की शासन व्यवस्था
FAQs