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तापमान क्या है? तापमान की माप, वितरण, प्रकार, घटक, तापलेखी एवं दैनिक ताप परिसर

तापमान से यह पता चलता है कि कोई वस्तु ठंढी है या गर्म। उदाहरणार्थ, यदि किसी एक वस्तु का तापमान 20 डिग्री है और एक दूसरी वस्तु का 40 डिग्री, तो यह कहा जा सकता है कि दूसरी वस्तु प्रथम वस्तु की अपेक्षा गर्म है।

जब किसी स्थान की वायु संचालन और विकिरण द्वारा गरम हो जाती है तो गर्मी पाकर वह हल्की होती है, परन्तु इसके आसपास ठण्डी और भारी वायु विद्यमान होती है। इस प्रकार गरम वायु ऊपर उठती है और ठण्डी वायु उसका स्थान लेने के लिए नीचे आती है। इस प्रकार वायुमंडल में संवाहन धाराएं उत्पन्न हो जाती हैं। इस संवाहन क्रिया के द्वारा समस्त वायुमंडल गरम हो जाता है।

तापमान की माप 

तापमान को मापने के लिए तीन प्रकार के पैमाने काम में लाए जाते हैं, जिन्हें फारेनहाइट, सेण्टीग्रेड और रियूमर (Reaumur) कहते हैं। फारेनहाइट पैमाना 180 बराबर भागों में बंटा रहता है। इसमें हिमांक बिंदु (Freezinz Point) 32° और क्वथनांक बिंदु (Boiling Point) 212° होते हैं। सेन्टीग्रेड पैमाना 100 भागों में बंटा रहता है। इसमें हिमांक बिंदु 0° और क्वथनांक बिंदु 100° माना जाता है।

तापमापी यंत्र (Thermometers) सामान्यतः इन दोनों पैमाने पर ही बने होते हैं। इसके अतिरिक्त अधिकतम न्यूनतम तापमान मापने के लिए अधिकतम और न्यूनतम तापमापी काम में लाया जाता है। इस यन्त्र में लकड़ी के एक तख्ते पर दो तापमापी लगे होते हैं।

उपर्युक्त °C और °F पैमाने अधिक प्रचलित हैं लेकिन विशेष उद्देश्यों में रियूमर(°R) का भी प्रयोग होता है। °R में हिमांक बिंदु 0° तथा क्वथनांक बिंदु 80° और सम्पूर्ण मापन 80 बराबर भागों में बंटा होता है। एक पैमाने से दूसरे पैमाने में परिवर्तन के निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग करते हैं-

C/5 = F-32 / 9 = R/4

तापलेखी Thermograph

तापमान का स्वयं-सूचक यन्त्र होता है। इसमें दो धातुओं (जिनके प्रसारण गुण भिन्न होते हैं) की दो पतियाँ लगी रहती हैं। इसके एक सिरे पर पेंसिल लगी रहती है, जिसकी नोंक एक घूमते हुए ढोल को छूती है। तापमान के घटनेबढ़ने पर धातु की पती पर जो प्रभाव होता है उससे पेंसिल ऊंची=नीची होती है और नोंक से ढोल पर चिपके ग्राफ कागज पर उसकी एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा खिंच जाती है। इस रेखा से हमें तापमान के सभी परिवर्तन ज्ञात हो जाते हैं।

दैनिक ताप परिसर

दिन और रात के अधिकतम और न्यूनतम तापमान के अन्तर को दैनिक ताप परिसर कहा जाता है। इससे जलवायु की विषमता का पता लगता है। इसकी विशेषताएँ निम्न हैं-

  1. विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर दैनिक तापपरिसर घटता जाता है। भूमध्य रेखा पर कम तथा मरुस्थलीय क्षेत्रों में यह सर्वाधिक रहता है।
  2. मेघ तथा जल-वाष्प की उपस्थिति में यह अधिक नहीं होने पाता। मेघ कम्बल का कार्य करते हैं। वे सूर्य किरणों के ताप को सोखकर दिन में तापमान को अधिक बढ़ने तथा विकीर्ण ताप रोककर रात्रि में अधिक घटने से रोकते हैं। फलस्वरूप ताप-परिसर अधिक नहीं होने पाता।
  3. ऊँचाई बढ़ने के साथ तापपरिसर घटता है।
  4. सागरों तथा जलाशयों की निकटवर्ती स्थिति से भी तापपरिसर अधिक नहीं होने पाता, किन्तु महाद्वीपों के भीतरी भागों में यह अधिक रहता है।
  5. हिम की उपस्थिति से तापपरिसर बढ़ता है, क्योंकि उससे विकिरण शीघ्र होता है।

वार्षिक ताप परिसर

वर्ष के सबसे गर्म महीने के औसत तापमान और सबसे ठण्डे महीने के औसत तापमान के अन्तर को वार्षिक ताप-परिसर कहा जाता है। जिन स्थानों का दैनिक और वार्षिक ताप-परिसर जितना अधिक होता है, उतनी ही वहाँ की जलवायु विषम होती है, किन्तु जहाँ यह कम होता है वहां की जलवायु भी सम होती है। वार्षिक ताप-परिसर की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  1. कर्क तथा मकर रेखाओं के बीच में अर्थात् उष्ण कटिबन्ध सूर्य वर्ष में दो बार लम्बवत् चमकता है। इस कारण वहाँ दो अधिकतम तथा दो न्यूनतम तापमान प्राप्त होते हैं। अत: इस कटिबन्ध के महाद्वीपीय भागों में ताप परिसर सर्वाधिक रहता है
  2. शीतोष्ण तथा शीत कटिबन्घों में ग्रीष्ममें सूर्य की अपेक्षाकृत लम्बवत् किरणे प्राप्त होती हैं तथा तापमान ऊँचे रहते हैं। इसके विपरीत, शीत ऋतु में तापमान अधिक गिर जाता है। अतः ताप परिसर अधिक रहता है।
  3. सागर के सीमावर्ती भागों में तापपरिसर कम होता है, क्योंकि जल और स्थल सभी दैनिक तापमान को सम रखते हैं।
  4. ऊँचाई बढ़ने से भी तापपरिसर कम हो जाता है। ध्रुवों पर वार्षिक तापपरिसर सबसे अधिक होता है, क्योंकि वहां 6 महीने तक निरन्तर सूर्य चमकता रहता है और शेष 6 महीने निरन्तर रात्रि रहती है।

भू-मंडल पर तापमान का क्षैतिज वितरण Distribution Temperature on Earth Surface

भूमण्डल पर तापमान के वितरण का अध्ययन दो रूपों में किया जाता है-

  1. तापमान का क्षैतिज वितरण
  2. तापमान का ऊर्ध्वाधर वितरण।

तापमान का क्षैतिज वितरण

सूर्यामिताप की मात्रा विषुवत् रेखा से उत्तर और दक्षिण की और बढ़ने पर घटती जाती है। इससे स्पष्ट है कि धरातल पर ताप क्षेत्रों की सीमाएँ अक्षांश रेखाओं द्वारा बनायी जाती हैं। यूनानी विद्वानों ने इसी आधार पर पृथ्वी को निम्नांकित तीन ताप कटिबन्धों (Thermal zones) में विभक्त किया था-

  1. उष्ण कटिबंध Torrid or Tropical Zone- विषुवत रेखा के दोनों ओर कर्क रेखा (23½° उत्तर) और मकर रेखा (23½° दक्षिण) के बीच फैला है। सूर्य 21 जून को कर्क रेखा पर तथा 22 दिसम्बर को मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है। साथ ही साथ ये दोनों रेखाएँ सूर्य की उत्तरी तथा दक्षिणी सीमाएँ हैं इन्हीं के मध्य सूर्य वर्षपर्यन्त चमकता है। अत: इस कटिबन्ध में वर्षपर्यन्त अधिक तापमान रहता है। इस मण्डल में तापमान 52°C तक रिकार्ड किया गया है।
  2. शीतोष्ण कटिबन्ध Temperate zone- दोनों गोलाद्धों में 23½° अक्षांश से 66½°  अक्षांश तक फैला हुआ है। इस भाग में दिन की लम्बाई 40° अक्षांश पर 16 घण्टे, 63° अक्षांश पर 20 घण्टे होती है।
  3. शीत कटिबन्ध Frigid Zone- दोनों गोलाद्धों में 66½° अक्षांश से ध्रुवों तक 90 अक्षांश) फैले हुए हैं। इस भाग में दिन की अवधि 64 घण्टे से अधिक होती है। ध्रुवों के समीप छः महीने का दिन और छः महीने की रात होती है। सूर्य की किरणे अत्यन्त तिरछी पड़ने के कारण यहां कठोर शीत पड़ती है।

समतापी रेखाएँ  

“भूमण्डल पर तापमान का वितरण समतापी रेखाओं द्वारा दिखाया जाता है। ये समतापी रेखाएँ वे कल्पित रेखाएँ हैं, जो कि सभी स्थानों के समुद्र तल पर मानकर समान औसत तापमान वाले स्थानों को मिलाती हैं।”

विश्व में समताप रेखाओं की प्रवृत्ति

  1. समतापी रेखाएँ सामान्य अक्षांशों के समानान्तर पूर्व से पश्चिम जाती हैं, क्योंकि भूखण्ड पर भूमध्य रेखा से ध्रुवों की ओर सूर्याभिताप की मात्रा घटती-बढ़ती जाती है। तापमान अक्षांशों के अनुसार घटताबढ़ता है।
  2. ये रेखाएँ सीधी होती हैं, किन्तु समुद्रतट के समीप इनकी दिशा में परिवर्तन हो जाता है। स्थल से समुद्र की ओर जाते समय ये रेखाएँ ग्रीष्म ऋतु में विषुवत् रेखा की ओर तथा शीत ऋतु में ध्रुवों की ओर मुड़ जाती हैं, क्योंकि जल और स्थल के तापमान में अन्तर पाया जाता है। सामुद्रिक धाराएँ तथा स्थायी पवनें भी इनकी दिशाओं को प्रभावित करती हैं।
  3. दक्षिणी गोलार्द्ध में उत्तरी गोलार्द्ध की अपेक्षा जल का विस्तार अधिक होने से ये रेखाएं अधिक स्थायी (सीधी) होती हैं।
  4. जल और स्थल के मिलन क्षेत्रों में इनकी सामान्य दिशा पूर्व-पश्चिम की अपेक्षा उत्तर-दक्षिण हो जाती है।
  5. निम्न अक्षांशों में जलधाराओं के कारण ये रेखाएं विषुवत् रेखा की ओर झुक जाती हैं, जबकि ऊंचे अक्षांशों में गर्म जल की धाराओं के कारण ये ध्रुवों की ओर झुक जाती हैं।
  6. विषुवत् रेखा पर वर्ष भर अधिक सूर्याभिताप की प्राप्ति के कारण सर्वोच्च औसत तापमान पाया जाता है।
  7. ध्रुवों पर सूर्य की किरणे सदैव तिरछी पड़ने तथा तीन महीने तक सूर्य के न निकलने के कारण निम्नतम औसत तापमान ध्रुवों के निकट पाया जाता है।
  8. उत्तरी गोलार्द्ध में गर्मी का सर्वोच्च तापमान और शीतकाल का निम्न तापमान स्थल पर ही पाया जाता है। उदाहरणार्थ, अफ्रीका में लीविया देश के अजीजिया नगर का सर्वोच्च तापमान 72° सेण्टीग्रेड और साइबेरिया के वखॉयांस्क नगर में निम्नतम तापमान -50° सेण्टीग्रेड अंकित किया गया है।

तापमान के वितरण को प्रभावित करने वाले घटक

भूमध्य रेखा से दूरी या अक्षांशीय स्थिति- किसी स्थान पर उसके अक्षांश के अनुसार ही सूर्य की किरणों का तिरछापन होता है। सामान्यतः भूमध्य रेखा पर सूर्य लम्बवत् चमकता है तथा उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्र में वर्ष पर्यन्त रहता है अतः यहाँ अधिक गरमी प्राप्त होती है। भूमध्य रेखा से उत्तर और दक्षिण की ओर जाने पर ताप कम हो जाता है। यही कारण है कि कोलम्बो मुम्बई से अधिक गरम रहता है।

सागर से दूरी- स्थल की अपेक्षा जल धीरे-धीरे गरम होता है और धीरे-धीरे ठण्डा होता है। इसी कारण सागर स्थल की अपेक्षा गर्मियों में शीतल और शीतकाल में भी हल्के गरम रहते हैं। इसी भांति तटवर्ती भागों की अपेक्षा दूर वाले स्थानों में ग्रीष्म में अधिक गर्मी और शीतकाल में अधिक सर्दी पड़ती है। अतः सागर के निकटवर्ती भागों की जलवायु सम और दूर वाले स्थानों की जलवायु विषम होती है। इसी कारण मुम्बई की तुलना में दिल्ली की जलवायु विषम रहती है।

समुद्रतल की ऊँचाई- साधारणतः ऊँचाई के साथ विलोमता साथ तापमान घटता जाता है। प्रति 165 मीटर की ऊंचाई पर 1° सेण्टीग्रेड तापमान कम हो जाता है। अतः जो स्थान समुद्रतल से जितनी अधिक ऊँचाई पर होता है, वह उतना ही ठण्डा होता है। विषुवत् रेखा के निकट समुद्रतल पर बसे सिंगापुर का औसत तापमान 23°  सेण्टीग्रेड है, जबकि विषुवत् रेखा पर 2,851 मीटर की ऊँचाई पर स्थित क्वीटो नगर का औसत तापमान 13° सेण्टीग्रेड है।

प्रचलित पवनें- किसी भी स्थान की जलवायु वहां पर चलने वाली पवनों पर ही निर्भर करती है। जब किसी स्थान पर गरम पवनें चलती हैं तो तापमान को बढ़ा देती हैं और यदि वहां ठण्डी पवनें चलती हैं तो वे उसके तापमान को नीचा कर देती हैं। ध्रुवों की ओर से आने वाली ठण्डी पवनें शीतकाल में समस्त मध्य एशिया को बहुत ही ठण्डा कर देती हैं जबकि थार मरुस्थल की ओर से चलने वाली पवने ग्रीष्म में दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के तापमान को बढ़ा देती हैं।

समुद्री धाराएँ- धाराओं का तटवर्ती भागों की जलवायु पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जिन तटों के समीप ठण्डी धाराएँ बहती हैं, वहां शीतकाल में तापमान बहुत नीचे हो जाते हैं और समुद्र तटों पर हिम जम जाता है। इसके विपरीत, जिन तटों के समीप गरम धाराएँ बहती हैं, वे तट को गरम बना देती हैं। ऐसे तटों का तापमान शीतकाल में भी काफी ऊँचा रहता है जिससे वे जमते नहीं। उदाहरणार्थ, फिनलैण्ड की खाड़ी तथा उत्तरी सागरीय क्षेत्र के समीप से उत्तरी अटलांटिक प्रवाह गर्भ धारा बहती है जिससे वहां का तट शीतकाल में भी नहीं जमता, परन्तु उन्हीं अक्षांशों पर स्थित लैब्राडोर का पठार लैब्रोडोर की ठण्डी धारा के कारण वर्ष में नौ महीने हिम से ढका रहता है।

भूमि का ढाल- साधारणतः सूर्य के सम्मुख पड़ने वाले ढाल विमुख ढालों की अपेक्षा गर्मियों में अधिक गरम और शीतकाल में कम ठण्डे रहते हैं। इसका कारण यह है कि सूर्य के सम्मुख ढाल पर विमुख ढाल की अपेक्षा सूर्य की किरणे कम तिरछी पड़ती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में हिमालय पर्वत के दक्षिणी ढाल, जो सूर्य के सम्मुख पड़ते हैं, उत्तरी ढालों की अपेक्षा अधिक गरम रहते हैं।

मिट्टी की प्रकृति- मिट्टी की प्रकृति का भी जलवायु पर प्रभाव पड़ता है। बालू मिट्टी शीघ्र गरम अथवा ठण्डी हो जाती है। फलस्वरूप मरुभूमि अन्य स्थानों की अपेक्षा गर्मियों में अधिक गरम और जाड़ों में अधिक ठण्डी रहती है। राजस्थान के उत्तर-पश्चिमी भागों में जलवायु की विषमता का एक प्रमुख कारण रही है, किन्तु चिकनी मिट्टी वाले प्रदेश धीरे-धीरे गरम और ठण्डे होते हैं।

मेघ तथा वर्षा- जिन भागों में वर्ष भर वर्षा होती है और आकाश मेघों से ढका रहता है, वहां गर्मियों का औसत तापमान अपेक्षाकृत कम रहता है, क्योंकि मेघ सूर्य की गर्मी का कुछ अंश सोख लेते हैं और कुछ गर्मी वाष्पीकरण क्रिया में नष्ट हो जाती है। इसके विपरीत, शीतकाल में मेघ धरातल से विकिरण को रोक लेते हैं, जिससे शीत ऋतु में वहां का तापमान अपेक्षाकृत अधिक रहता है। संक्षेप में, मेघ और वर्षा दोनों ही वार्षिक ताप-परिसर को कम करने में सफल होते हैं। यही कारण है कि ब्रिटेन में सामुद्रिक तटों और भारत का मालाबार तट का ताप-परिसर बहुत कम रहता है।

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