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मेघ या बादल क्या है? वर्गीकरण, वर्षा के प्रकार, वर्षा को प्रभावित करने वाले कारक

वर्षा होने के लिए पर्याप्त मात्रा में जलवाष्प उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए पवनें तथा उनके घनीभवन होने के लिए न्यून तापमान एवं नाभिक कणों की आवश्यकता होती है।

मेघ Clouds- धरातल से कुछ ऊँचाई पर होने वाली संघनन क्रिया से जलवाष्प जलकणों में बदल जाती है और मेघ बनने लगते हैं। मेघों की रचना ऊँचाई, वाष्प की मात्रा, अक्षांश, तापमान, आकाशीय स्थिति, आदि पर निर्भर है। अतः मेघ कई प्रकार के होते हैं।

सामान्यत: बादलों अथवा मेघ का वर्गीकरण दो प्रकार से किया जाता है-

  1. ऊँचाई के अनुसार
  2. अन्तर्राष्ट्रीय वर्गीकरण

ऊँचाई के अनुसार

साधारण रूप से बादल धूल के कणों पर स्थित जल बिन्दुओं के विशाल रूप ही हैं जो कि वायुमण्डल के अक्षांशों के अनुसार भिन्न-भिन्न ऊँचाइयों पर पाए जाते हैं।

ऊँचाई के अनुसार मेघ तीन प्रकार के होते हैं-

नीचे मेघ अथवा परतदार मेघ Low or Stratus Clouds-  धरातल के निकट 1,830 मीटर की ऊँचाई तक के बादलों को नीचे मेघ कहा जाता है। इन मेघों में पतली-पतली परतें बनती हैं, परन्तु ये मेघ आकाश के अधिक भाग में फैले होते हैं, इस प्रकार के मेघों के अन्तर्गत स्तरी कपासी मेघ तथा स्तरी मेघ, कपासी मेघ समिलित किए जाते हैं।

माध्यमिक मेघ Medium Clouds- इस प्रकार के मेघों का निर्माण गर्म वायु के ऊपर उठकर फैलने से घनीभवन की क्रिया के कारण होता है। इन मेघों की उत्पत्ति 1,830 मीटर से 6,100 मीटर की ऊँचाई तक होती है। इस भाग के मेघों को कुन्तल मेघ भी कहते हैं। इस प्रकार के मेघों को एल्टोसिरस (Altocirrus) मेघ भी कहते हैं।

उच्च मेघ High Clouds- इस प्रकार के मेघ 6,100 से 12,000 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इस प्रकार के मेघों में पक्षाभ, पक्षाभ कपासी मेघ तथा पक्षाभ स्तरी मेघ सम्मिलित किए जाते हैं।

मेघों का अन्तर्राष्ट्रीय वर्गीकरण

सन् 1932 में मेघों को चार भागों में विभाजित किया गया-

पक्षाभ मेघ Cirrus Clouds वायुमंडल में सर्वाधिक ऊंचाई पर पाए जाने वाले इन मेघों की रचना हिम कणों से होती है। इस प्रकार के मेघ दिन में पृथ्वी से पंख की भांति रेशों से निर्मित दिखायी देते हैं। ये मेघ अत्यन्त कोमल और सफेद रेशम के समान होते हैं। इन मेघों की ऊँचाई 8 से 10 किलोमीटर होती है। इनकी उपस्थिति से स्वच्छ मौसम की आशा की जाती है।

कपासी मेघ Cumulus Clouds- इस प्रकार के मेघ 1,000 से 5,000 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं। इनका रूप घुनी रूई के ढेर के समान दिखायी देता है। इनके खण्ड आकाश में गुम्बद के आकार के दिखायी देते हैं, जिनके शीर्ष जैसी आकृति के होते हैं। यह अपने आधार से कई हजार मीटर ऊँचाई तक फैले होते हैं।

स्तरी मेघ stratusclouds Clouds- ये मेघ वायुमण्डल में सबसे नीचे के भाग में विकसित होते हैं। ये मेघ आकाश में समानान्तर परतों से एक छोर से दूसरे छोर तक विस्तार में दिखायी देते हैं। इनका रंग भूरा, गहरा भूरा अथवा काला होता है। इन मेंघों की धरातल से ऊँचाई 1½ से 3 किलोमीटर होती है। इन मेघों का निर्माण कोहरे की निचली परतों के विसरण अथवा उनके उत्थान के कारण होता है। इन मेघों के शीर्ष भाग से विकिरण द्वारा ऊष्मा के क्षय के कारण इनके ऊपर वायु की परतों में संघनन होने से इनका विकास ऊपर की ओर होता है। इस प्रकार के मेध शीतोष्ण कटिबन्ध में प्रायः शीत ऋतु में अधिक बनते हैं।

वर्षी मेघ Nimbus Clouds- ये मेघ घने और काले पिण्ड के समान होते हैं। इनकी सघनता के कारण सूर्य की किरणे इनमें प्रवेश नहीं कर पाती हैं। ये मेघ धरातल से एक किलोमीटर की ऊँचाई पर निर्मित होते हैं। ये मेघ वायुमण्डल में सबसे नीचे के भाग में होने से ऐसा प्रतीत होता है कि ये धरती को छू रहे हों।

इन मेघों के अतिरिक्त कई मेघ एक-दूसरे से मिले होने के कारण इनके संयुक्त रूप में भी पाए जाते हैं-

पक्षाभ स्तरी मेघ Cirro Stratus Clouds- जब पक्षाभ मेघ चिड़िया के पंख के समान न होकर महीन सफ़ेद चादर के समान सम्पूर्ण आकाश में छाए रहते हाँ तो आकाश का रंग दूधिया हो जाता है। इन बादलों के समय सूर्य और चन्द्रमा के चरों ओर एक प्रभा मंडल बन जाता है। यह मेघ 7,700 मी. की ऊंचाई तक पाए जाते हैं। इस प्रकार के मेघ तूफान की पूर्व सूचना होते हैं।

पक्षाभ कपासी मेघ Cirro Cumulus Clouds- ये मेघ कपासी और पक्षाभ मेघों के आपसी मिलन से बनते हैं। ये मेघ सदैव पंक्तियों और समूहों में पाए जाते हैं। इस प्रकार के मेघों का आकार गोलाकार धब्बों के समान और कभी-कभी सागर तट की बालू पर पड़ी लहरों के समान होता है। इस प्रकार के मेघ 7,500 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं।

उच्च कपासी मेध High Cumulus Clouds- ये मेघ पतले गोलाकार धब्बों की तरह दिखायी देते हैं। ये मेघ श्वेत और भूरे रंग के होते हैं। ये मेघ पंक्तिबद्ध या लहरों के आकार में पाए जाते हैं।

उच्चस्तरीय मेघ अथवा स्तरी मध्य मेघ High Stratus Clouds –ये भूरे अथवा नीले रंग के छोटे स्तरों के मेघ होते हैं। ये मेघ लगातार चादर की तरह फैले दिखायी देते हैं। ये मेघ 5,400 से 7,500 मीटर की ऊँचाई पर पाए जाते हैं।

स्तरी कपासी मेघ Strato Cumulus Clouds-  ये मेघ 3,000 मीटर की ऊँचाई तक समूहों और पंक्तियों अथवा लहरों में दिखायी पड़ते हैं। इनका रंग कुछ काला होता है। में ये मेघ सम्पूर्ण आकाश को ढके रहते हैं।

कपासी वर्षी मेघ Cumulo Nimbus Clouds- ये मेघ लम्ववत् विकास, काले रंग वाले भारी बादल होते हैं। इन्हें गरजने वाले मेघ भी कहते हैं। ये 7,500 मीटर की ऊँचाई तक पाए जाते हैं। इस प्रकार के मेघों से भारी वर्षा या ओले के रूप में वर्षा होती है।

वर्षा को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting Rainfall

जब घनीभवन के कारण जलवाष्प की आर्द्रता जल के रूप में उससे पृथक् हो जाती है तब उसे वर्षा कहते हैं।

वर्षा होने के लिए पर्याप्त मात्रा में जलवाष्प उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने के लिए पवनें तथा उनके घनीभवन होने के लिए न्यून तापमान एवं नाभिक कणों की आवश्यकता होती है। घनीभवन के लिए तापमान घटने और वायु के ठण्डे होने की क्रिया निम्न प्रकार से हो सकती है-

  1. गर्म वाष्पयुक्त वायु संवाहन धाराओं के कारण ऊपर उठ जाए और फैलकर ठण्डी हो जाए
  2. गर्म वाष्पयुक्त वायु के मार्ग में कोई ऊँची बाधा उपस्थित हो जिससे टकराकर या जिसे पार करने के लिए वह ऊँची उठ जाए जिससे उसका तापमान शीघ्र कम हो जाए
  3. गर्म वाष्पयुक्त वायु ठण्डे क्षेत्रों की ओर या ठण्डी हवाओं की ओर बहे जिससे उसका तापमान तेजी से घट जाए।

इनके अलावा किसी स्थान में होने वाली वर्षा को निम्नलिखित कारक व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं-

  1. वायु में जलवाष्प की मात्रा,
  2. समुद्र से दूरी
  3. अक्षांशीय स्थिति
  4. भाप भरी हवाओं में बाधा (पर्वत आदि) का विस्तार,
  5. जलाशयों का विस्तार,
  6. वनस्पतियों का आवरण आदि

वर्षा के प्रकार Types of Rains

धरातल पर सामान्यतः निम्नांकित तीन प्रकार की वर्षा होती है-

संवाहनीय वर्षा Convection Rainfall- जब वायु गरम हो जाती है तो वह संवाहन धाराओं के रूप में ऊपर उठती है और ऊपर उठकर फ़ैल जाती है जिससे इसका तापमान गिर जाता है और घनीभवन की क्रिया आरम्भ हो जाती है। इस घनीभूत क्रिया से मेघ बन जाते हैं और घनघोर वर्षा होती है यह वर्षा गरज और चमक के साथ होती है। विषुवत् रेखीय प्रदेशों में साल भर इसी प्रकार की वर्षा होती है।

चक्रवातीय वर्षा Cyclonic Rainfall- चक्रवात के आतंरिक भाग में जब भिन्न तापमान वाली पवने आपस में मिलती हैं तो ठण्डी पवन गरम पवनों को ऊपर की ओर धकेलती हैं। ऊपर उठने पर पवन ठण्डी हो जाती है और वर्षा कहा जाता है। यह वर्षा बड़ी धीरे-धीरे होती है। अयन रेखाओं तथा मध्य अक्षांशों में अधिकतर वर्षा चक्रवातों द्वारा होती है।

पर्वतीय वर्षा Mountainous Rainfall उष्ण और आर्द्र पवनों के मार्ग में जब कोई पर्वत, पठार अथवा ऊँची पहाड़ियां आ जाती हैं तो पवन को बाध्य होकर ऊपर चढ़ना पड़ता है। ऊपर उठने पर वह ठण्डी हो जाती है व वर्षा कर देती है। इस प्रकार की वर्षा को ही पर्वतीय वर्षा कहा जाता है। यह उस ढाल पर अधिक होती है जो ठीक पवनों के सामने पड़ता है। जो ढाल आने वाली पवनों के विपरीत होता है बहुत कम वर्षा प्राप्त करता है। इसे मानसूनी वर्षा भी कहते हैं। यहाँ पर्वतों के पवनामुख (windward) ढालों पर अधिक वर्षा होती है, किन्तु पवनाभिमुख ढाल (Leeward Slope) वर्षा से अछूते रहते हैं, क्योंकि जब पवनें पर्वतों के दूसरी ओर नीचे उतरती हैं तो शुष्क होती जाती हैं। यह वर्षा विहीन भाग दृष्टिछाया प्रदेश (Rain shadow Area) कहलाता है।

वर्षा का वितरण Distribution Rainfall

विश्व के वर्षा-वितरण मानचित्र का अध्ययन करने से निम्नलिखित तथ्य स्पष्ट होते हैं-

  1. ज्यों-ज्यों विषुवत् रेखा से उत्तर या दक्षिण की ओर बढ़ते हैं त्यों-त्यों वर्षा की मात्रा में कमी होती जाती है। ध्रुवों पर अधिक शीत होने से पवनों में नमी बहुत ही कम रहती है, फलतः वर्षा कम होती है।
  2. पर्वत के पवनामुखी ढालों (Windward slopes) पर वर्षा अधिक होती है। जबकि पृष्ठ भागों (Leeward ) में अल्प वर्षा या वर्षा नहीं होती है।
  3. समुद्र से ज्यों-ज्यों दूर हो जाते हैं वर्षा की मात्रा में कमी आती है। महाद्वीप के भीतरी भागों गोवी, थार, सहारा, पश्चिमी आस्ट्रेलिया, आदि के मरुस्थलों में सागर से दूर होने के कारण वर्षा बहुत ही कम होती है।
  4. 30° उत्तरी और 40°  दक्षिणी अक्षांशों के बीच में स्थायी या व्यापारिक पवनों के चलने के कारण महाद्वीपों के पूर्वी भागों पर (जापान, दक्षिण-पूर्वी एशिया, पूर्वी संयुक्त राज्य अमेरिका) अधिक वर्षा होती है 40° और 65° अक्षांशों के बीच पछुआ पवनों के कारण महाद्वीपों के पश्चिमी भागों (पश्चिमी द्वीपसमूह, पश्चिमी यूरोप) पर अधिक वर्षा होती है। शीतोष्ण कटिबन्धों में चक्रवातों द्वारा उत्तरी और मध्य यूरोप तथा अमरीका में भी कुछ वर्षा हो जाती है।
  5. भूमध्य सागर के तटीय भाग, दक्षिणी आस्ट्रेलिया और दक्षिणी अमरीका में ग्रीष्म-ऋतु में सन्मार्गी पवनों के मार्ग में होने के कारण शुष्क रह जाते हैं, किन्तु शीतकाल में ये प्रदेश पछुआ पवनों के मार्ग में आ जाने के कारण शीतकालीन वर्षा प्राप्त करते हैं।
  6. भूमध्य रेखा पर संवाहनिक वर्षा होती है, किन्तु शीतोष्ण कटिबन्ध के अक्षांशों में प्रायः चक्रवातिक वर्षा होती है।
  7. ग्रीष्म ऋतु में समुद्र की ओर से आने वाली पवनों (मानसून पवनों) द्वारा भारत, चीन, जापान और इण्डोनेशिया में पार्वत्य या धरातलीय वर्षा होती है।
  8. उष्ण कटिबन्ध के चक्रवातों द्वारा हिन्द महासागर एवं चीन सागर के तटीय भागों में (जिसका प्रभाव फिलीपीन द्वीपों और जापान तक पहुंचता है) वर्षा होती है। इस प्रकार की वर्षा मैक्सिको की खाड़ी एवं मेडागास्कर के आसपास भी होती है।

वर्षा मापी Rain Gauge

वर्षा को मापने के लिए वर्षामापी यन्त्र काम में लाया जाता है। यद्यपि ये कई प्रकार के होते हैं, परन्तु सबका कार्य एक ही है। इसमें धातु का एक बेलनाकार खोल होता है जिसमें कीप लगी रहती है। इस कीप का व्यास बेलनाकास् खोल के व्यास के बराबर होता है। इस कीप पर पड़ने वाली वर्षा की बूंदें खोल के अन्दर रखी बोतल में एकत्र होती रहती हैं। बोतल में वर्षा जल को नापने वाले पात्र जिस पर नापने के लिए इन्च या सेण्टीमीटर के चिह्न मिमी में) बने होते हैं से माप लेते हैं। वर्तमान काल में स्वचालित तथा कम्प्यूटर नियन्त्रित वर्षामापी यन्त्र प्रयोग में लाए जाते हैं।

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