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वायुदाब का अर्थ? वायुदाब को प्रभावित करने वाले कारक, माप के यंत्र एवं वितरण

वायुमण्डल में पायी जाने वाली विभिन्न गैसें एवं अन्य तत्व भी भौतिक पदार्थ हैं, अतः इनमें भार होता है। भूपृष्ठ पर वायुमण्डल के दाब या भार को वायुमण्डलीय दाब या वायुदाब या वायुभार कहते हैं।

हम सदैव ही 112 किलोग्राम वायु का भार अपने ऊपर लादे फिरते हैं, किन्तु फिर भी हमें वायु का कोई दबाव अनुभव नहीं होता। इसका कारण यह है कि हमारे चारों ओर वायु का दबाव समान रूप से पड़ता है। हम वायु के इस महासागर के नीचे उसी प्रकार रह रहे हैं जैसे कि समुद्र के अन्दर जल-जीव निवास करते हैं।

वायुदाब का अर्थ 

वायुमण्डल में पायी जाने वाली विभिन्न गैसें एवं अन्य तत्व भी भौतिक पदार्थ हैं, अतः इनमें भार होता है। भूपृष्ठ पर वायुमण्डल के दाब या भार को वायुमण्डलीय दाब या वायुदाब या वायुभार कहते हैं। पृथ्वी के चारों ओर कई सौ किलोमीटर की ऊँचाई तक वायु का आवरण फैला है। वायु के इस आवरण का धरातल पर भारी दबाव पड़ता है। अनुमान लगाया गया है कि समुद्रतल के समीप प्रति वर्ग सेण्टीमीटर भूमि पर 1.25 किलोग्राम वायुदाब होता है।

वायुदाब को प्रभावित करने वाले कारक

धरातल पर वायु का दाव न तो सर्वत्र समान ही होता है और न यह सदैव ही एक समान रहता है, वरन् स्थान और समय के अनुसार उसमें परिवर्तन आता है। वायुदाब में इस परिवर्तन पर निम्न तथ्यों का विशेष प्रभाव पड़ता है।

तापमान

वायुदाब और तापमान में घनिष्ट सम्बन्ध पाया जाता है। वायु का तापमान बढ़ जाने पर उसका आयतन बढ़ जाता है और उसके भार और दबाव में कमी हो जाती है। जब वायु का तापमान घटता है तो वायु सिकुड़ती है, जिससे वहां निकटवर्ती भागों से और वायु जाती है। फलस्वरूप वायु का घनत्व बढ़ जाता है और उसका दबाव अधिक हो जाता है। इस प्रकार तापमान के परिवर्तन के साथ वायुदाब भी घटता-बढ़ता है।

ध्यान रखें कि सामान्य दशाओं में वायुदाब और तापमान में विलोम सम्बन्ध है यदि वायु का तापमान अधिक होता है तो वायुदाब कम होता है और यदि तापमान कम होता है तो वायुदाब अधिक होता है। ध्रुवों पर अधिक वायुदाब तथा विषुवत् रेखा पर कम वायुदाब पाए जाने का यही कारण है।

ऊँचाई 

वायु का अधिकांश भार उसकी नीचे की परतों में होता है, क्योंकि धरातल की निकटवर्ती वायु पर ऊपरी तहों का भार पड़ता है। जलवाष्प, धूल के कण तथा भारी गैसें भी घरातल से कुछ ही ऊँचाई तक सीमित रहती हैं, अतः धरातल के समीप की वायु घनी और भारी होती है। ऊपर जाने पर वायु हल्की और पतली होती जाती है। इसलिए ज्यों-ज्यों हम ऊपर जाते हैं, वायुदाब कम होता जाता है।

जलवाष्प 

यह वायु से हल्की होती है। अतः वायु में जितनी ही वाष्प मिली रहती है, वायु उतनी ही हल्की होती है। फलस्वरूप वायु जितनी हल्की होती है, उसका दाब उतना ही कम होता है। मौसम के अनुसार वायु में वाष्प की मात्रा बदलती रहती है, इस कारण वायुदाब भी घटता-बढ़ता रहता है। वर्षा काल में वायुदाब कम तथा शुष्क मौसम में अधिक होता है।

पृथ्वी की पूर्णन गति 

पृथ्वी की घूर्णन गति के कारण अपकेन्द्रीय उत्पन्न होता है, जिससे प्रभावित होकर विषुवत् रेखा एवं ध्रुवों के आसपास की वायु अपने स्थान से हटकर मध्यवर्ती अक्षांशों की ओर चलने लगती है। परिणामस्वरूप विषुवत् रेखा पर एवं ध्रुवों के आसपास कम वायुदाब की मेखलाएँ बन जाती हैं और मध्यवर्ती अक्षांश (30° -35°) अधिक वायुदाब के क्षेत्र बन जाते हैं।

वायुदाब के माप के यंत्र 

वायुदाबमापी 

पृथ्वी के वायुदाब के मापने के लिए वायुदाबमापी यन्त्र का उपयोग किया जाता है। इस यन्त्र में यह माना जाता है कि यन्त्रं एक मीटर लम्बी नली के मुंह के बराबर समतल क्षेत्र पर वायु का दाब उतना ही होता है जितना कि उस नली में भरे पारे का भार होता है। समुद्रतल पर नली में पारे की औसत ऊँचाई 76 सेण्टीमीटर होती है। यदि किसी कारणवश वायु का दबाव कम हो जाता है तो नली में पारे की लम्बाई भी उसी अनुपात में कम हो जाती है। वायुदाब को की विधि का आविष्कार सबसे पहले सन् 1643 मेंगैलिलियो के शिष्य टेरिसिली ने किया था।

फोर्टिन बैरोमीटर 

यह साधारण वैरीमीटर का ही सुधरा हुआ रूप है। इसे फोर्टिन (J. Fortin, 1750-1831) ने बनाया था। इसमें पारा भरी हुई नली के नितल को एक पेच की सहायता से ऊपर-नीचे किया जा सकता है। पैमाने का शून्य हाथी-दांत के एक निर्देशक की सीध में होता है। पेंच के द्वारा पारे के धरातल को इस प्रकार ऊँचा-नीचा करते हैं कि पारा पैमाने के शून्य की सीध में आ जाए। तब वायुदाब का घटनावढ़ना पैमाने के द्वारा ज्ञात हो जाता है।

निर्दव या एनेराइड बैंरोमीटर 

यह एक घड़ीनुमा यन्त्र है, जो फोर्टिन बैरोमीटर की अपेक्षा अधिक सुगमता से प्रयोग में लाया जा सकता है। यह यन्त्र धातु की चद्दर का बना होता है। इसकी सतह लहरदार होती है। इस यन्त्र में कोई द्रव वस्तु नहीं भरी जाती। यन्त्र की सारी वायु पम्प द्वारा बाहर निकाल दी जाती है। वायु के दबाव से जब ढक्कन ऊपर से नीचे होता है तो उत्तोलकों (Lever) के सहारे सुई भी घूमती है और डायल पर बने पैमाने के द्वारा वायु दवाव को प्रकट कर देती है। डायल पर वर्षा, आँधी, शुष्कता, आर्द्रता, आदि शब्द व चिह्न बने होते हैं, जिन पर संकेतक की स्थिति से मौसम का ज्ञान भी हो सकता हैं।

वायुदाब लेखी 

यह वायुदाब को मापने का स्वयंलेखी यन्त्र होता है, इसमें कई एनेराइड बैरोमीटर होते हैं, जो एक दूसरे के ऊपर रखे होते हैं। इनकी गति से एक निर्देशक घूमता है। निर्देशक के साथ एक कलम जुड़ी रहती है, जो एक घूमते हुए ढोल को छूती है। ढोल पर ग्राफ कागज लिपटा रहता है। निर्देशक के घूमने के साथ-साथ उससे जुड़ी हुई कलम भी ऊपरनीचे घूमती है और ढोल पर लिपटे कागज पर चिह्न बना देती है। इस प्रकार कागज पर वायुदाब का स्वयं चित्रण हो जाता है।

भूतल पर वायुदाब का वितरण

पृथ्वी के गोले पर वायुदाब की सात पेटियां पायी जाती हैं, उनमें से चार उच्च वायुदाब और तीन न्यून वायुदाब की मेखलाएँ हैं-

विषुवत रेखीय न्यून दाब पेटी 

यह विषुवत रेखा के समीप 5° उत्तर और दक्षिण के बीच पायी जाती हैं। यहाँ वर्ष भर सूर्य की किरणे सीधी पड़ने के कारण तापमान ऊँचा रहता है, अतः निम्न वायुदाब पाया जाता है। इस क्षेत्र में गरम भूमि के सम्पर्क से वायु भी गरम हो। जाती है और हल्की होकर ऊपर उठती है तथा वायुमण्डल के ऊपरी स्तरों से ठण्डी वायु पृथ्वी के धरातल पर नीचे उतरती है। इस प्रकार वायुमंडल में संवहन धाराएँ  उत्पन्न हो जाती हैं। पवन धरातल के समान्तर नहीं चलती।

उपोष्ण उच्च वायुदाब पेटियाँ 

उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध में 30° और 35° अक्षांशों के बीच में उच्च वायुदाब की मेखलाएँ स्थित हैं। वायुदाब की ये मेखलाएँ पृथ्वी की गति के कारण उत्पन्न होती हैं। इन मेखलाओं में वायु सदा ऊपर से नीचे उतरती है, अतः उनका दाव बढ़ जाता है। इन मेखलाओं को अश्व अक्षांश भी कहा जाता है.

उपध्रुवीय न्यून वायुदाब पेटियां 

ये 60° से 66½° के बीच पायी जाती हैं। इनमें न्यून वायुदाब पाया जाता है। इन वृतों के समीप न्यून वायुदाब की मेखलाओं के बनने के सम्भावित कारण हैं-

  1. इन मेखलाओं के दोनों ओर अधिक वायुदाब मिलता है, ध्रुवों की ओर शीत के कारण और विषुवत् रेखा की ओर मध्य अक्षांशों के समीप पृथ्वी की गति के कारण
  2. इन मेखलाओं में स्थित सागरों में गरम जलधाराएँ चला करती हैं जिनसे यहाँ तापमान बढ़ जाता है और वायुदाव कम हो जाता है।
  3. पृथ्वी की परिभ्रमण गति के कारण ध्रुवों के ऊपर भंवर उत्पन्न हो जाते हैं। वायु की इस भंवर से ध्रुवों पर गड्ढा बन जाता है।

ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटियाँ

ध्रुव वृतों से ध्रुवों की ओर जाने पर वायुदाब बढ़ता जाता है। ध्रुवों के निकट तो उच्च वायुदाब का एक विशेष क्षेत्र बन जाता है। जिस प्रकार विषुवत् रेखा के निकट न्यून वायुदाब का कारण तापमान की अधिकता है, उसी प्रकार ध्रुवों के समीप उच्च वायुदाब का कारण तापमान की न्यूनता है।

दक्षिणी गोलार्द्ध में ध्रुव के ऊपर हिम से ढका हुआ एण्टार्कटिक महाद्वीप है और उसके चारों ओर बाधारहित सागर फैले हुए हैं। इन सब कारणों से वायुदाब एक समान पाए जाते हैं। एण्टार्कटिक महाद्वीप के ऊपर सदा उच्च वायुदाब रहता है और उसके चारों ओर बाधारहित सागर फैले हुए हैं, अतः उसके चारों ओर उपधुवीय न्यून वायुदाब की मेखला रहती है।

वायुदाब पतियों का खिसकना

पृथ्वी का अपनी धुरी पर 23½° के कोण बनाने तथा उसके वार्षिक परिक्रमण के फलस्वरूप ग्रीष्म काल में सूर्य की सीधी किरणें कर्क रेखा पर पड़ती हैं, अतः 21 जून को तापीय विषुवत् रेखा उत्तर की ओर खिसक जाती है, जबकि शीत काल में सूर्य की सीधी किरणें मकर रेखा पर पड़ती हैं, अत: 22 दिसम्वर को तापीय विषुवत् रेखा वास्तविक विषुवत् रेखा से दक्षिण की ओर होती है, अतः तापीय विषुवत् रेखा का उत्तर और दक्षिण को खिसकना वायुदाब की पेटियों को तथा उसके परिणामस्वरूप स्थलीय पवनों की पेटियों को मौसम के अनुसार 5° से 10° उत्तर और दक्षिण में खिसका देती हैं।

21 मार्च और 23 सितम्बर सूर्य विषुवत् रेखा पर लम्बवत् चमकता है। 21 जून को जब सूर्य कर्क रेखा पर लम्बवत् चमकता है, अतः सभी वायुदाब की पेटियों एवं पवन पेटियां 5° से 10° उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। इसके विपरीत, शीत ऋतु में 21 दिसम्बर को सूर्य मकर रेखा पर सीधा चमकता है, अतः इस अवस्था में सभी वायुदाब की पेटियाँ (वास्तविक स्थिति 23 सितम्बर से) 5° से 10° दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।

वायुदाब पेटियों के खिसकने के प्रभाव

वायुदाब पेटियों के खिसकने का प्रभाव स्थायी तथा स्थानीय पवनों, आर्द्रता, वर्षा और मौसम की अन्य घटनाओं पर स्पष्ट रूप से पड़ता है जिनमें निम्नलिखित प्रमुख हैं-

  1. उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य कर्क रेखा पर सीधा चमकता है, वायु पेटियाँ तथा वायुदाब पेटियाँ 5° से 10° उत्तर की ओर खिसक जाती हैं। भूमध्यरेखीय शान्त वायु की पेटी उत्तर से 5° उत्तर से 5° दक्षिण अक्षांश न रहकर 0° अक्षांश से 10° उत्तरी अक्षांश के बीच हो जाती है। कर्क और मकर रेखाओं पर स्थित शान्त वायु की पेटियाँ 10°  उत्तर की ओर खिसक जाती हैं, अर्थात् 25° से 35° अक्षांशों के बीच न रहकर उत्तरी गोलार्द्धों में 30° से 40° उत्तर अक्षांशों और दक्षिणी गोलार्द्ध में 30° से 20° दक्षिणी अक्षांशों के बीच हो जाती हैं।
  2. जब सूर्य मकर रेखा पर सीधा चमकता है तो वायुदाब पेटियाँ इसी क्रम में 5° से 10° अक्षांश दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं।
  3. भूमध्यरेखीय शान्त वायु की पेटी 0° से 10°  दक्षिणी अक्षांश के बीच तथा मकर रेखा पर स्थित उच्च भार की पेटी 25° से 35° अक्षांशों के मध्य न रहकर यह 30° से 40° दक्षिणी अक्षांश के बीच हो जाती है। इसी प्रकार उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवीय वृत्त पर स्थित निम्न वायुदाब की पेटियाँ भी इसी क्रम में लगभग 5° ध्रुवों की ओर खिसक जाती हैं।
  4. इन वायुदाब की पेटियों के खिसकने के परिणामस्वरूप हवाओं की पेटियों में भी परिवर्तन हो जाता है, और-
  5. उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म में जब सूर्य कर्क रेखा पर सीधा चमकता है, तब भूमध्यरेखीय शान्त वायु की पेटी 0° से 10°  उत्तरी अक्षांश तथा कर्क रेखा पर स्थित शान्त वायु की पेटी 30° से 40° उत्तरी अक्षांश पर स्थित रहती है, अतः ग्रीष्म ऋतु में उत्तरी-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ 30° से 10° उत्तर अक्षांश तक चलती हैं। दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ 20° दक्षिण अक्षांश से विषुवत् रेखा तक चलती हैं।
  6. पछुआ हवाएँ उत्तरी गोलार्द्ध में ग्रीष्म ऋतु में कुछ भागों में 40° से 65° उत्तरी अक्षांश के बीच एवं कुछ भागों में 35° से 60° तक चलती हैं। यह परिवर्तन स्थल तथा जल की स्थिति के कारण होता है। दक्षिणी गोलार्द्ध में पछुआ हवाएँ 35° दक्षिणी अक्षांश से चलने लगती हैं।
  7. 22 दिसम्बर को जब सूर्य मकर रेखा पर लम्बवत् चमकता है, वायुभार पेटियां 10° दक्षिण की ओर खिसक जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप वायु पेटियां भी खिसक जाती हैं। दक्षिण-पूर्वी व्यापारिक हवाएँ 30° दक्षिण से विषुवत् रेखा तक तथा पछुआ हवाएँ 40° दक्षिण से चलने लगती हैं, क्योंकि दक्षिण गोलार्द्ध में इन अक्षांशों में समुद्रों का विस्तार अधिक होने से पछुआ हवाएँ निर्वाध गति से तेज आवाज करती चलती हैं, अतः यहाँ इन्हें गरजने वाला चालीसा एवं दहाड़ता पचासा कहा जाता है।
  8. उत्तर और दक्षिण दोनों गोलार्द्धों के 30° से 40° अक्षांशों के बीच के प्रदेश ग्रीष्मकाल में व्यापारिक हवाओं के प्रभाव में रहते हैं। शीतकाल में यहीं प्रदेश पछुआ हवाओं के क्षेत्र में आ जाते हैं। अत: यहां शीतकाल में अच्छी वर्षा हो जाती है।

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