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कार्यपालिका क्या है? परिचय एवं कार्यपालिका के प्रकार

कार्यपालिका शब्द के सामान्यतया दो अर्थ किये जाते हैं- एक व्यापक अर्थ व दूसरा सीमित अथवा संकीर्ण अर्थ। “एक व्यापक और सामूहिक अर्थ में कार्यपालिका के अन्तर्गत वे सभी कार्य, संस्थाएँ या एजेंसियाँ आती हैं जिनका संबंध राज्य की इच्छा के कार्यान्वयन से है जो कानून के रूप में निर्मित और व्यक्त की गई है। अर्थात् व्यापक अर्थ में कार्यपालिका का तात्पर्य, उन सभी राजकर्मचारियों से होता है जिसका संबंध राज्य के प्रशासन से होता है। इस अर्थ में कार्यपालिका राज्य के सर्वोच्च अध्यक्ष (राष्ट्रपति, सम्राट या राजा) से लेकर दफ्तर के एक चपरासी तक सभी प्रशासन कर्मचारियों को कहा जाता है।

कार्यपालिका : एक परिचय

राज्य एक अर्मूत भाव है। इसको मूर्त रूप देनेवाली संस्थागत व्यवस्था को सरकार कहा जाता है। सरकार, राज्य इच्छा का निर्माण, अभिव्यक्ति और क्रियान्वयन करने की संस्थात्मक संरचना है। कार्यपालिका सरकार या शासन का महत्वपूर्ण शाखा या अंग है, जो व्यवस्थापिका तथा आम प्रशासन के द्वारा अधिनियमित कानूनों को लागू करने के लिए उत्तरदायी होती है। अर्थात् कार्यपालन संबंधी शक्तियों से संबंधित संरचनात्मक व्यवस्था को कार्यपालिका कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, विधियों को लागू करने के लिए जिस शक्ति का प्रयोग होता है उसे कार्यपालिका शक्ति तथा इस शक्ति का प्रयोग करनेवाली संस्थात्मक संरचना को कार्यपालिका कहा जाता है।

कार्यपालिका अध्यक्ष और उसके प्रमुख सहयोगी शासन तंत्र को चलाते हैं, वे राष्ट्रीय नीति का निर्धारण करते हैं और इस बात को सुनिश्चित करते हैं कि इसे सावधानीपूर्वक अमली जामा पहनाया जाय। प्रशासकों की एक बहुत बड़ी सेना होती है जिसका यह दायित्व होता है कि प्रमुख प्रशासन प्राधिकारियों द्वारा निर्मित नीति को ईमानदारी से कार्यरूप में परिणत करें।

इस प्रकार, लोकतंत्र शासन व्यवस्थाओं में मंत्रिमंडल नीति बनाते हैं और वे इस नीति निर्माण के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं, इसलिए हम इसको कार्यपालिका कह सकते हैं। अतः सीमित अर्थ में कार्यपालिका केवल राज्य के प्रधान तथा उसके मंत्रिमण्डल को ही कहा जाता है।

कार्यपालिका के प्रकार

आधुनिक राज्य के अन्तर्गत कार्यपालिका की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण है कि आम बोलचाल की भाषा में कार्यपालिका को ही ‘सरकार’ के रूप में पहचाना जाता है। यद्यपि कार्यपालिका वास्तव में सरकार का केवल एक अंग है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि कार्यपालिका अपनी मर्यादा में रहे। जहां सारी शक्तियां कार्यपालिका की हाथों में आ जाती हैं, वह अधिनायकतंत्र (Dictatorship) की प्रवृत्ति पैदा हो जाती है।

यह स्थिति अलोकतंत्रवादी देशों में देखने को मिलती है। लोकतंत्रीय देशों में भी इसकी अधिकार सत्ता जितनी समझी जाती है उससे बहुत अधिक होती है। फाइनर का कहना है कि “सरकार के दो अन्य अंग विधायिका और न्यायपालिका के जितने अधिकार होते हैं, उनके बाद बचे बाकी सभी अधिकार कार्यपालिका के ही हैं। विधायिका द्वारा बनाये गये और अदालतों द्वारा व्याख्या किये कानूनों को लागू करने के अलावा और भी बहुत से दूसरे काम कार्यपालिका करती है।”

विभिन्न शासन प्रणालियों के अन्तर्गत कार्यपालिका भिन्न-भिन्न रूपों में अपनी भूमिका निभाती है। अतः कार्यपालिका के स्वरूप और भूमिका को समझने के लिए इसके भिन्न-भिन्न रूपों की जानकारी आवश्यक है। इसका वर्गीकृत रूप इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है।

नाममात्र की या औपचारिक कार्यपालिका

नाममात्र की तथा वास्तविक कार्यपालिका के भेद उस राजनीतिक व्यवस्था से संबंधित है जहां संवैधानिक राजतंत्र अथवा संसदीय शासन प्रणाली हो। राजा अथवा कोई निर्वाचित प्रमुख (जैसे राष्ट्रपति) संवैधानिक रूप से नाममात्र का प्रमुख होता है जिसके पास वास्तविक शक्तियां नहीं होतीं अथवा बहुत कम होती हैं। खासकर संसदीय शासन प्रणाली के देशों में नाममात्र की कार्यपालिका को देश के वास्तविक शासन का काम बहुत कम करना पड़ता है।

यद्यपि, उसी के नाम से सम्पूर्ण शासन का संचालन होता है, पर उसके सारे कार्यों पर एक मंत्री की सहमति आवश्यक होती है अर्थात ऐसी व्यवस्था में वास्तविक शक्ति (प्रधानमंत्री) के अधीन मंत्रियों की परिषद को दी जाती है जो विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है। मंत्री ही वास्तविक कार्यपालिका का गठन करते हैं। नाममात्र की कार्यपालिका द्वारा किये जानेवाले अनेक कार्य रस्मी होते हैं, जैसे वह संसद का अधिवेशन बुलाता है, स्थगित करता है और उसे भंग करता है पर यह सब काम तात्कालिक मंत्रिमंडल के निश्चय के अनुसार ही होता है।

नाममात्र की कार्यपालिका दो प्रकार की होती है- पैतृक या आनुवंशिक और निर्वाचित। अर्थात् नरेश आनुवंशिक उत्तराधिकार के कानून के अनुसार अपने पद पर आसीन हो सकता है अथवा उसे किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रक्रिया से निर्वाचित किया जा सकता है।

वस्तुतः नाममात्र, आलंकारिक या सांकेतिक कार्यपालिका संसदीय शासन प्रणाली की देन है। यहां राज्याध्यक्ष के पद पर कोई नृपति (king) या राष्ट्रपति विराजमान होता है। सांकेतिक कार्यकारी की भूमिका गौण होती है। साथ ही नाममात्र या सांकेतिक कार्यकारी राज्य का सांविधानिक प्रमुख या अध्यक्ष होता है। वह दलगत राजनीति से ऊपर होता है। अतः सर्वत्र आदर का पात्र होता है। इस तरह, वह राष्ट्रीय एकता का प्रतीक बन जाता है।

वास्तविक या यथार्थ कार्यपालिका

जब कार्यपालिका का प्रधान नाममात्र का प्रधान न होकर राज्य की समस्त शक्तियों का प्रयोग करता है, तब हम उसे वास्तविक कार्यपालिका कहते हैं। जैसे अमेरिका का राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका का उदाहरण है। संसदीय प्रणाली में शासन की यथार्थ शक्तियाँ मंत्रिमण्डल के हाथों में रहती हैं, जिसे हम यथार्थ (वास्तविक) कार्यपालिका की श्रेणी में रखते हैं। वास्तव में, सबसे अधिक महत्व वास्तविक कार्यपालिका का है।

एकल और बहुल कार्यपालिका

एकल कार्यपालिका

एकल कार्यपालिका वह है जिसका अध्यक्ष एक नेता होता है और जिसकी शक्तियों में इसका कोई भाग नहीं होता अर्थात् जिस कार्यपालिका में सारी कार्यकारणी शक्तियाँ एक ही व्यक्ति के हाथों में रहती हैं, उसे एकल कार्यपालिका कहते हैं। राष्ट्रपति अथवा प्रधानमंत्री का नेतृत्व इसी कोटि से संबंधित है। उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में संघीय सरकार की सारी कार्यकारी शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथों में रहती हैं जिसे मुख्य कार्यकारी कहा जाता है। राष्ट्रपति के मंत्रिमण्डल के सदस्य उसके ‘सेवक’ मात्र होते हैं। अतः वहां की कार्यपालिका एकल कार्यपालिका की श्रेणी में आती है।

इधर ब्रिटिश कार्यपालिका जैसी संसदीय कार्यपालिका में सिद्धान्ततः मंत्रिमण्डल में सामूहिक उत्तरदायित्व को मान्यता दी जाती है। परन्तु व्यवहारतः वहां प्रधानमंत्री निर्णायक भूमिका निभाता है। अतः इसे भी एकल कार्यपालिका ही माना जाता है।

बहुल कार्यपालिका

दूसरी ओर, बहुल कार्यपालिका की स्थिति एकल कार्यपालिका से भिन्न है, जहाँ मंत्रियों के समूह को निर्देश देने का अधिकार होता है, अर्थात् बहुल कार्यपालिका ऐसी कार्यपालिका है जिसमें अनेक सदस्य संयुक्त रूप से सारे महत्वपूर्ण निर्णय करते हैं, और मंत्रिमण्डल में उनकी स्थिति सर्वथा समान होती है। किसी सदस्य की स्थिति अमेरिकी राष्ट्रपति या ब्रिटिश प्रधानमंत्री के तुल्य नहीं होती। वस्तुतः इसमें कार्यपालिका शक्ति एक व्यक्ति में सीमित न रहकर व्यक्तियों की एक समिति में निहित होती है। कार्यपालिका का एक विलक्षण, उदाहरण स्विट्जरलैण्ड की संघीय परिषद् (Swiss Federal Council) है। इसमें सात सदस्यों की व्यवस्था है। इसकी कार्यकारी शक्ति किसी एक जगह केंद्रित नहीं है, बल्कि इसके सब सदस्य मिल-जुलकर कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करते हैं। यह परिषद अपने एक सदस्य को बारी-बारी से एक वर्ष के लिए अपना अध्यक्ष चुनती है। परन्तु वह केवल इसके सामूहिक निर्णय को अभिव्यक्ति प्रदान करता है।

राजनैतिक (अस्थायी) तथा गैर-राजनैतिक (स्थायी) कार्यपालिका

(क) राजनैतिक का अस्थायी कार्यपालिका

लोकतंत्रीय प्रणाली के अन्तर्गत राजनीतिक निर्णय तथा सर्वोच्च प्रशासनिक निर्णय मुख्य कार्यकारी (Chief Executive) अथवा मंत्रिमण्डल के हाथ में रहते हैं। इन्हें हम राजनीतिक कार्यपालिका के श्रेणी में रखते हैं, क्योंकि ये आवधिक चुनाव में विजय प्राप्त करके इस पद पर पहुंचते हैं, और इन्हें अपने पद पर बने रहने के लिए बार-बार मतदाताओं या उनके प्रतिनिधियों का समर्थन और विश्वास प्राप्त करना होता है। जनमत में परिवर्तन होने पर पूरानी राजनीतिक कार्यपालिका की जगह नई कार्यपालिका सत्तारूढ़ होती है। अतः राजनीतिक कार्यपालिका स्वभावतः अस्थायी होती है। इसमें मंत्री, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या चांसलर के अधीन होते हैं जो कुछ समय तक अपने पदों पर रहते हैं तथा जिनका किसी राजनीतिक दल अथवा दलों से संबंध होता है।

(ख) गैर राजनीतिक या स्थाई कार्यपालिका

दूसरी ओर, इसमें अनेक असैनिक अधिकारियों को शामिल किया जाता है। प्रशासन के अधिकारियों की नियुक्ति योग्यता और कार्य-कुशलता (प्रशिक्षण) के आधार पर की जाती है जो अपने पद पर बने रहने के लिए राजनीतिक समर्थन पर आश्रित नहीं होते, ये सेवा निवृत्ति की निश्चित आयु तक अपने पद पर बने रहते हैं। साथ ही वे किसी विशेष राजनीतिक दल के साथ प्रतिबद्ध नहीं होते हैं। इनका काम राजनीतिक कार्यपालिका के निर्णयों को कार्यान्वित करना है। राजनीतिक स्थिति में परिवर्तन होने से इनके अस्तित्व पर कोई आँच नहीं आती। यही कारण है कि इन अधिकारियों के समुच्चय या नौकरशाही (अधिकारीतंत्र) को स्थायी कार्यपालिका कहते हैं। उदाहरण के लिए राजनीतिक स्थिति में परिवर्तन होने पर मंत्रिमण्डल के मंत्री या उपमंत्री को अपने पद से हट जाना पड़ता है, परन्तु सचिवालय का सचिव या उप-सचिव फिर भी अपने पद पर बना रहता है और नई नीति को कार्यान्वित करने की भूमिका संभाल लेता है।

लोकतांत्रिक, सर्वाधिकारवादी और उपनिवेशवादी राज्यों की कार्यपालिका

लोकतांत्रिक कार्यपालिका

जब इसके सदस्यों का चुनाव लोगों द्वारा किया जाता है तो यह लोकतांत्रिक होती है। यह अपने निर्वाचकों के प्रति उत्तरदायी होती है। इसमें मंत्रियों के आचरण की आलोचना करने और उनकी निन्दा करने की आजादी होती है जिसका परिणाम होता है कि उनके विरुद्ध अविश्वास अथवा महाभियोग का प्रस्ताव पास हो जाने की स्थिति में वास्तविक कार्यपालिका को पद से मुक्त होना पड़ता है। ब्रिटिश मंत्रिमण्डल को हाउस आफ कामन्स में प्रतिकूल मत के परिणाम स्वरूप हटाया जा सकता है। अमेरिकी राष्ट्रपति को महाभियोग की प्रक्रिया से हटाया जा सकता है। ये राजनीतिक कार्यपालिकाओं के ऐसे उदाहरण हैं जिनका संबंध लोकतांत्रिक वर्ग से है।

सर्वाधिकारवादी पद्धति का रूप (कार्यपालिका)

सर्वाधिकारवादी पद्धति में वास्तविक कार्यपालिका को लोगों या उनके चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा नहीं हटाया जा सकता क्योंकि वहां सरकार के व्यवहार की आलोचना अथवा निन्दा करने की स्वतंत्रता नहीं होती। किसी विशेष राजनीतिक दल के उच्चतम नेता या किसी सैनिक मंडली के बड़े-बड़े अधिकारी शासन का संचालन इस प्रकार करते हैं कि विरोध का अर्थ विनाश या अंगभंग होता है। जिस देश में फासिस्ट शासन प्रणाली हो, या सैनिक मंडली का शासन हो, या जो मार्क्सवादी लेनिनवादी विचारधारा से सम्बद्ध हो, इसी वर्ग में शामिल किये जा सकते हैं।

उपनिवेशवादी कार्यपालिका

उपनिवेशवादी कार्यपालिका वह है जो एक उपनिवेशवादी शासन के पर्यवेक्षण, निर्देशन और नियंत्रण के अधीन कार्य करती है। इसे ‘नामित कार्यपालिका’ भी कहा जा सकता है, क्योंकि एक आश्रित देश के वास्तविक शासकों को उपनिवेशी शक्ति के द्वारा नामित किया जाता है। उदाहरण के लिए- भारत में स्वतंत्रता से पूर्व इसी प्रकार की कार्यपालिका का अस्तित्व था।

संसदीय, अध्यक्षीय (राष्ट्रपतीय) तथा अर्द्ध-राष्ट्रपतीय कार्यपालिका

संसदीय (मंत्रिमण्डल) कार्यपालिका

संसदीय शासन प्रणाली वह है जिसका संचालन एक मंत्रिमण्डल या मंत्रिपरिषद (प्रधानमंत्री की अध्यक्षता) द्वारा किया जाता है और जो सामूहिक रूप में विधायिका के प्रति उत्तरदायी है। यह शक्तियों के संकेन्द्रण के सिद्धान्त के आधार पर कार्य करता है क्योंकि मंत्रिमण्डल उस कड़ी की भाँति है जो विधायी और कार्यपालक विभागों को आपस में जोड़ती है। संसदीय कार्यपालिका या मंत्रिमण्डल के सदस्य संसद अर्थात विधानमण्डल के सदस्यों से चुने जाते हैं, और वे अपने अस्तित्व के लिए विधानमण्डल के निरन्तर विश्वास और समर्थन पर आश्रित होते हैं। इस पद्धति के अन्तर्गत सांकेतिक कार्यकारी अर्थात सम्राट या राष्ट्रपति को न तो कोई यर्थात् शक्तियां प्राप्त होती हैं, न उसका कोई उत्तरदायित्व होता है। इंगलैण्ड तथा भारत में इसी प्रकार की कार्यपालिका है।

राष्ट्रपतीय या अध्यक्षात्मक कार्यपालिका

संसदीय कार्यपालिका से भिन्न राष्ट्रपतीय या अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है। इसमें राष्ट्रपति वास्तविक शक्तियों का उपभोग करता है अर्थात् यह राष्ट्रपति के नेतृत्व के अधीन कार्य करती है जो (और उसके मंत्री भी) विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होते, यद्यपि विधायिका उसे महाभियोग की प्रक्रिया से हटा सकती है। इस प्रकार की कार्यपालिका शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धान्त के आधार पर कार्य करती है। अध्यक्षीय कार्यपालिका सांविधानिक दृष्टि से विधानमण्डल से स्वतंत्र होती है अर्थात् न तो उसका कार्यकाल विधानमण्डल के समर्थन पर आश्रित होता है, न वह अपने कार्यों के लिए विधानमण्डल के प्रति उत्तरदायी होती है।

अर्द्ध राष्ट्रपतीय अथवा अर्द्ध संसदीय (संसदीयवत या राष्ट्रपतीयवत)

संसदीय एवं राष्ट्रपतीय के बीच में फ्रांस व श्रीलंकाई कार्यपालिका का प्रतिमान है जिसे इस तथ्य के कारण संसदीयवत पर राष्ट्रपतीयवत कहा जा सकता है कि इसमें राष्ट्रपति वास्तविक कार्यपालिका है जबकि मंत्रिमण्डल (प्रधानमंत्री के साथ) उसके नियंत्रण में है, लेकिन साथ ही वह संसद के प्रति उत्तरदायी भी है।

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