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ऋग्वैदिक काल में राजनैतिक व्यवस्था

ऋग्वैदिक काल में राजनैतिक व्यवस्था

प्राचीन भारतीय संस्कृति के इतिहास में वेदों का स्थान अत्यंत गौरवपूर्ण है। वेद भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर हैं। आर्यों के ही नहीं बल्कि विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद ही हैं। भारतीय संस्कृति में वेदों का बहुत महत्व है क्योंकि इन वेदों से ही वैदिक आर्यों की नैतिकता, रहन-सहन, आर्थिक और धार्मिक जीवन की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

राजा वैदिक युग के राष्ट्र या जनपद का मुखिया होता था। सामान्यतया, राजा का पुत्र ही पिता की मृत्यु के बाद राजा के पद को प्राप्त करता था। पर इस वैदिक युग में प्रजा जिस व्यक्ति को राजा के पद पर वरण करती थी, उससे वह यही आशा रखती थी कि वह ध्रुवरूप से राष्ट्र का शासन करेगा।

उसे किसी निश्चित अवधि के लिए राजा नहीं बनाया जाता था। इसीलिए अथर्ववेद में कहा है- हे राजन्, तू सुप्रसन्न रूप से राष्ट्र में दशमी अवस्था तक शासन करता रहे। 90 साल से ऊपर की आयु को दशमी अवस्था कहते हैं। राजा से वैदिक काल में यही आशा की जाती थी कि वह दशमी अवस्था तक (वृद्धावस्था तक) राष्ट्र के शासन का संचालन करता रहेगा।

ऐसे अवसर भी उपस्थित हो सकते थे, जबकि राजा दशमी अवस्था तक राष्ट्र का शासन न कर सके। राजा को कतिपय कारणों से निर्वासित भी कर दिया जा सकता था, और यदि जनता उसे राजा के पद पर पुन: अधिष्ठित करना चाहे, तो उसे निर्वासन से वापस भी बुलाया जा सकता था। जिस राजा का वरण विश या प्रजा करती थी, उससे वह कतिपय कर्तव्यों के पालन की आशा भी रखती थी।

ऋग्वैदिक काल की राजनीतिक स्थिति

वैदिक साहित्य में दी गई वंशावलियों से ऐसा प्रतीत होता है कि राजा का पद वंशानुगत था और पिता की मृत्यु के बद ज्येष्ठ पुत्र उत्तराधिकारी होता था। इस आधार पर गैल्डनर महोदय का मत है कि जन साधारण द्वारा राजा का चुनाव औपचारिकता मात्र था। किन्तु, यह औपचारिकता भी इस बात का द्योतक है कि उत्तराधिकारी के निर्णय में जनमत की भूमिका थी।

प्रशासन का लोकप्रिय स्वरूप ऋग्वैदिक काल में राजतंत्रात्मक था। संभवत: कुछ गैर-राजतंत्रात्मक राज्य भी थे। इसे ऋग्वेद में गण कहा गया है एवं इसका प्रमुख ज्येष्ठक या गणपति होता था, इस तरह यहाँ गणतंत्र का प्रारंभिक उल्लेख मिलता है। राजा की स्थिति स्पष्ट नहीं थी और राजा की पहचान उसके कबीले से होती थी।

राजा को जनस्य गोप्ता तथा दुर्ग का भेदन करने वाला (पुराभेत्ता) कहा जाता था। इनके अतिरिक्त राजा की निम्नलिखित उपाधियाँ भी थीं, यथा विशाम्पति, गणना गणपति, ग्रामिणी आदि। कबीले के लोग स्वेच्छा से राजा को एक कर देते थे। इसे बलि कहा जाता था। संभवत: इस बलि की दर कुल उत्पादन के 1/16 से 1/10 भाग तक थी।

कुछ कबीलाई संस्थाएँ अस्तित्व में थीं। सभा, समिति, विदथ और गण। अथर्ववेद के अनुसार सभा और समिति प्रजापति की दो पुत्रियाँ हैं। मैत्रायणी संहिता के अनुसार, सभा में स्त्रियाँ भाग नहीं लेती थीं। सभा में भागीदारी करने वाले को समये कहा जाता था। इसके सदस्य श्रेष्ठ जन होते थे और उन्हें सुजात कहा जाता था। सभा के कुछ न्यायिक कार्य भी थे। ऋग्वेद में आठ बार सभा की चर्चा की गई है।

आर्यों को अपने शत्रुओं से निरन्तर युद्ध करना पड़ता था। इसलिए यह आवश्यक था कि वे एक मजबूत और संगठित प्रशासन का निर्माण करें। आर्यों की राजनीतिक स्थिति की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं।

1.राज्य की विभिन्न छोटी इकाइयाँ 

राज्य की सबसे छोटी इकाई परिवार थी। गाँवों में पितृसत्तात्मक व्यवस्था थी। कुछ परिवारों ने मिलकर एक ‘ग्राम’ (गांव) बनाया और ‘ग्राम’ के मुखिया को बज्रपति या ‘ग्रामणी’ कहा गया। गांव से ऊपर की संस्था विश थी, ‘विश’ का निर्माण कई गांवों को मिलाकर किया गया था। एक साथ अनेक ‘विश’ को जन कहा गया। विष के रक्षक गोप थे। पंचजन्य शब्द का प्रयोग वैदिक आर्यों के लिए किया जाता था। राजा को गोप-जनस्युप भी कहा जाता था।

2.राजा

आमतौर पर राजा का पद वंशानुगत होता था। ऋग्वेद में राजा की तुलना इंद्र और वरुण से की गई है। राजा का पद वंशानुगत होता था। सिहांसनारोहण के साथ-साथ राज्याभिषेक की भी परंपरा थी, राज्याभिषेक के समय राजा को अपनी प्रजा की रक्षा का संकल्प लेना होता था। राजा का पद वंशानुगत होता था, लेकिन जनता की स्वीकृति आवश्यक थी। लोग राजा को पदच्युत या निर्वासित भी कर सकते थे।

राजा के मुख्यत: दो कर्तव्य थे: प्रथम, युद्ध में नेतृत्व करना और दूसरे, कबीले की रक्षा करना। युद्ध की आवश्यकताओं के अनुकूल राजा का पद था। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद के साक्ष्य से ऐसा प्रतीत होता है कि वैदिक काल में विश् समिति में एकत्रित होकर राजा का चुनाव करता था।

इस काल के लोग लोक व्यवस्था से भी परिचित थे। राजा अपनी प्रजा की रक्षा करता था और प्रजा इसके बदले में उसे ‘बलि’ या ‘कर’ देती थी। युद्ध के समय राजा अपनी प्रजा की रक्षा और ‘कुल’ का नेतृत्व करता था। राजा ने न्यायाधीश के रूप में भी कार्य किया। प्रशासनिक कार्यों में राजा की सहायता के लिए कई अधिकारी होते थे। उनमें मुख्य पुजारी और योद्धा थे। इसके अलावा अन्य संस्थान भी थे।

3.राज्य के अधिकारी

प्रशासन में राजा की सहायता के लिए कई अधिकारी होते थे। मुख्य पुरोहित और पुजारी, योद्धा और ग्रामीण विशेष थे। राजा के अधिकारियों में ‘याजक (पुरोहित)’ का पद सर्वोच्च और सबसे महत्वपूर्ण होता था। वह राजा, मंत्री और पुजारी का मुख्य सलाहकार था, और सेनानी राज्य की सेना का मुखिया होता था। ग्रामिणी गाँव का मुखिया होता था।

4.‘सभा’ और ‘समिति’

ऋग्वेद में ‘सभा’ और ‘समिति’ का उल्लेख मिलता है। सभा और समिति मिलकर राजा को निरंकुश बनने से रोकते थे और उसकी शक्तियों को सीमित कर देते थे। मजूमदार के अनुसार सभा, जो एक ग्राम परिषद थी, गाँव के निवासियों के लिए एक आकर्षण थी। वर्तमान पंचायतों की भाँति सभा का कार्य भी न्याय से सम्बन्धित था। समिति में आम लोग शामिल थे। वास्तव में राज्य की बागडोर समिति के हाथ में थी।

समिति का उपयोग राजा के मामलों को नियंत्रित करने के लिए किया जाता था। समिति ही मुख्य विषयों जैसे राजा का चयन, राजा को सिंहासन से हटाना और उसके स्थान पर किसी अन्य राजा का चयन करना तय करती थी। इस प्रकार समिति ही राज्य का संचालन करती थी।

5.न्यायपालिका व्यवस्था 

वैदिक काल में न्याय का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। साधारण मामले परिवार के मुखिया या गाँव के मुखिया द्वारा सुलझाए जाते थे, बाकी राजा के पास जाते थे। गंभीर आरोप मौत की सजा के अधीन थे। अपराध कम थे।

6.सेना

राजा सेना का नेतृत्व करता था। पैदल और रथ दोनों सेनाएँ थीं। सेना की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। भाले, धनुष, तलवार और कुल्हाड़ी का प्रयोग किया जाता था।

अन्य महत्वपूर्ण बिंदु 
  • रॉथ के अनुसार विदथ संस्था सैनिक, असैनिक तथा धार्मिक कायाँ से संबद्ध थी। यही वजह है कि विदथ को के.पी. जायसवाल एक मौलिक बड़ी सभा मानते हैं, जो आगे चलकर सभा, समिति एवं सेना में विभक्त हो गई। रामशरण शर्मा इसे आर्यों की प्राचीनतम संस्था मानते हैं। विवरण विदथ का महत्वपूर्ण दायित्व था। त्वष्ट्रि को प्रथम वितरक कहा गया है। जिन ऋभुजनों की सभा का वह प्रधान था, उन्हें वितरण के काम में लगे होने के कारण स्वैच्छिक वितरक की संज्ञा दी गई।
  • विदथ का महत्व इसी बात से आका जा सकता है कि जहाँ ऋग्वेद में सभा शब्द का उल्लेख आठ बार और समिति का नौ बार हुआ है, वहीं विदथ शब्द का उल्लेख 122 बार हुआ है। विदथ के महत्व में यद्यपि परवतींकाल में कमी आई, तथापि सभा और समिति के सापेहन में इसका भी महत्व बरकरार रहा।
  • अथर्ववेद में सभा शब्द सत्रह बार और समिति शब्द तेरह बार आया है, यही विदथ 22 बार हुआ है। इसी प्रकार गण शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में 46 बार तथा अथर्ववेड में 9 बार हुआ है।
  • राजा का निर्वाचन संभवत: समिति करती थी। समिति के अध्यक्ष को पति या ईशान कहा जाता था। कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा ही समिति का अध्यक्ष होता था। ऋग्वेद में नौ बार समिति की चर्चा हुई है।
  • ऋग्वेद तथा अथर्ववेद से ज्ञात होता है कि समिति में राजकीय विषयों की चर्चा होती थी तथा सहमति से निर्णय लिया जाता था। जीमर महोदय ने सभा को ग्राम संस्था एवं समिति को केन्द्रीय संस्था कहा है।
  • पंचालों के राजा प्रवाहण जैवलि ने समिति के समक्ष पाँच प्रश्न रखे, इनका वह उत्तर न दे पाई। अत: संभवत: समिति राष्ट्रीय अकादमी की तरह भी काम करती थी।
इन्हें भी देखे 

Political system in Rigvedic period

FAQ

Q. ऋग्वैदिक काल की सबसे प्राचीन राजनीतिक संस्था कौन सी थी?

Ans- ऋग्वेद काल में राज्य कबीलाई संगठन पर आधारित था और इसका शासन सभा, समिति और विदथ नामक संस्थाओं की सहायता से चलाया जाता था। विदथ सबसे प्राचीन संस्था थी, इसका ऋग्वेद में 122 बार उल्लेख हुआ है जबकि समिति का 9 बार और सभा का 8 बार उल्लेख हुआ है। सभा वृद्ध जनों एवं कुलीन लोगों की संस्था थी।

Q. ऋग्वैदिक आर्यों के राजनीतिक संगठन कौन थे?

Ans- इस काल में अनेक जनतांत्रिक संस्थाओं का विकास हुआ जिनमें सभा, समिति तथा विदथ प्रमुख हैं। इन संस्थाओं में राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक प्रश्नों पर चर्चाएं होती थीं। ऋग्वैदिक काल में महिलाएं भी राजनीति में भाग लेती थीं। सभा एवं विदथ परिषदों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी थी।

Q. ऋग्वैदिक काल की स्थिति क्या है?

Ans- वैदिक काल को ऋग्वैदिक या पूर्व वैदिक काल (1500–1000 ई. पू.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000–600 ई. पू.) में बांटा गया है।

Q. ऋग्वैदिक काल की विशेषताएं क्या हैं?

Ans- प्रारंभिक वैदिक काल को ऋग्वैदिक काल भी कहा जाता है। इस अवधि में, इंडो-आर्यन (सी। 1750 ईसा पूर्व से 1000 ईसा पूर्व) ज्यादातर देहाती गतिविधियों में विश्वास करते थे, एक छोटी अर्थव्यवस्था के साथ सीमित कृषि । उन्होंने मवेशी, भेड़ और बकरियों को पाला, जो बहुतायत या धन के प्रतीक बन गए।

Q. वैदिक काल में राजनीतिक संरचना क्या थी?

Ans-  वैदिक काल में कुला (परिवार) में एक ही छत के नीचे रहने वाले सभी लोग शामिल थे। कई परिवारों का एक संग्रह ग्राम (गांव) का गठन करता था और इसके मुखिया को ग्रामिनी कहा जाता था। कई ग्रामों के संग्रह को विस और उसके प्रमुख को विसपति कहा जाता था।
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